अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 34
ये निखा॑ता॒ येपरो॑प्ता॒ ये द॒ग्धा ये चोद्धि॑ताः। सर्वां॒स्तान॑ग्न॒ आ व॑ह पि॒तॄन्ह॒विषे॒अत्त॑वे ॥
स्वर सहित पद पाठये । निऽखा॑ता: । ये । परा॑ऽउप्ता: । ये । द॒ग्धा: । ये । च॒ । उद्धि॑ता: । सर्वा॑न् । तान् । अ॒ग्ने॒ । आ । व॒ह॒ । पि॒तॄन् । ह॒विषे॑ । अत्त॑वे ॥२.३४॥
स्वर रहित मन्त्र
ये निखाता येपरोप्ता ये दग्धा ये चोद्धिताः। सर्वांस्तानग्न आ वह पितॄन्हविषेअत्तवे ॥
स्वर रहित पद पाठये । निऽखाता: । ये । पराऽउप्ता: । ये । दग्धा: । ये । च । उद्धिता: । सर्वान् । तान् । अग्ने । आ । वह । पितॄन् । हविषे । अत्तवे ॥२.३४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 34
विषय - पुरुष को सदाचारमय जीवन का उपदेश।
भावार्थ -
(ये) जो (निखाताः) निकट ही, द्दढ़रूप से गड़े हुए अपना घर जमा कर बैठे हुए हैं और (ये परोप्ताः) जो दूर अपनी सन्तान उत्पन्न करते हैं। और (ये दग्धाः) दग्ध अर्थात् अपने पाप आदि मानसिक और कायिक, वाचिक मलों को भस्म कर चुके हैं (ये च) और जो (उत्हिताः) जो उत्कृष्ट पदों पर पहुँचे हुए हैं (तान् सर्वान्) उन सब (पितॄन्) पिता के समान पूजनीय पालकों को (हविषे अत्तवे) पवित्र अन्न भोजन करने के लिये हे (अग्ने) गृहस्थ, अग्रणी नेता पुरुष ! तू (आ वह) प्राप्त कर। उनको अपने घर ला और प्रेमसे उनको भोजन करा अथवा—(ये निखाताः) जो पृथ्वी में गाड़ दिये हैं ये (परा-उप्ताः) जो दूर युद्धक्षेत्र आदि देशों में कट गये हैं (ये च उद्-हिताः) और जो ऊर्ध्व गति को प्राप्त होगये हैं (तान सर्वान् अग्ने आवह हविषे अत्तवे) हे अग्ने परमेश्वर ! उन सब को हविः अर्थात् कर्मफल के भोग के लिये लोकान्तर को प्राप्त करा।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ताश्च बहवो दवताः। ४, ३४ अग्निः, ५ जातवेदाः, २९ पितरः । १,३,६, १४, १८, २०, २२, २३, २५, ३०, ३६,४६, ४८, ५०, ५२, ५६ अनुष्टुमः, ४, ७, ९, १३ जगत्यः, ५, २६, ३९, ५७ भुरिजः। १९ त्रिपदार्ची गायत्री। २४ त्रिपदा समविषमार्षी गायत्री। ३७ विराड् जगती। ३८, ४४ आर्षीगायत्र्यः (४०, ४२, ४४ भुरिजः) ४५ ककुम्मती अनुष्टुप्। शेषाः त्रिष्टुभः। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥
इस भाष्य को एडिट करें