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  • यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 25
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - भूमिसूर्य्यौ देवते छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    मा॒ता च॒ ते पि॒ता च॒ तेऽग॑रे वृ॒क्षस्य॑ क्रीडतः। विव॑क्षतऽइव ते॒ मुखं॒ ब्रह्म॒न्मा त्वं व॑दो ब॒हु॥२५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा॒ता। च॒। ते॒। पि॒ता। च॒। ते॒। अग्रे॑। वृ॒क्षस्य॑। क्री॒ड॒तः॒। विव॑क्षतऽइ॒वेति॑ विव॑क्षतःऽइव। ते॒। मुख॑म्। ब्रह्म॑न्। मा। त्वम्। व॒दः॒। ब॒हु ॥२५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    माता च ते पिता च ते ग्रे वृक्षस्य क्रीडतः । विवक्षतऽइव ते मुखम्ब्रह्मन्मा त्वँवदो बहु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    माता। च। ते। पिता। च। ते। अग्रे। वृक्षस्य। क्रीडतः। विवक्षतऽइवेति विवक्षतःऽइव। ते। मुखम्। ब्रह्मन्। मा। त्वम्। वदः। बहु॥२५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 23; मन्त्र » 25
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे (ब्रह्मन) चार वेदांचे ज्ञाता विद्वान, सूर्याप्रमाणे तेजोमयी (च) आणि पृथ्वीप्रमाणे सहनशीला (ते) आपली (माता) माता (च) तसेच (ते) आपला सूर्याप्रमाणे प्रतापी (पिता) (च) देखील (वृक्षस्य) संसाररूप राज्याच्या (अग्ने) विद्याप्रसार व उन्नतीकार्यात (क्रीडतः) रममाण आहेत (या कार्यात सक्रिय भाग घेतात) अशा (ते) आपले (विवक्षत इव) पुष्कल बोलण्यास उत्सुक असलेल्या (बडबड्या) मनुष्याच्या मुखाप्रमाणे जे आपले (मुखम्) मुख होऊ नये. (त्वम्) आपण (बहु) फार व अनावश्यक (मा) (वदः) बोलू नका ॥25॥

    भावार्थ - भावार्थ - जे आईवडील स्वतः सुशील, धर्मात्मा, लक्ष्मीवान आणि कुलीन (सुसंस्कृत, सभ्य) असतात, त्यांच्या तर्फे सुसंस्कार दिलेल्या त्यांचा पुत्रदेखील योग्य त्या प्रमाणात बोलणारा (बडबड न करणारा) होऊन समाजात कीर्ति प्राप्त करतो. ॥25॥

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