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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 10
    ऋषिः - बृहदुक्थो वामदेव्य ऋषिः देवता - सूर्य्यो देवता छन्दः - निचृत त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    अश्वो॑ घृ॒तेन॒ त्मन्या॒ सम॑क्त॒ऽउप॑ दे॒वाँ२ऽऋ॑तु॒शः पाथ॑ऽएतु।वन॒स्पति॑र्देवलोकं प्र॑जा॒नन्न॒ग्निना॑ ह॒व्या स्व॑दि॒तानि॑ वक्षत्॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अश्वः॑। घृ॒तेन॑। त्मन्या॑। सम॑क्त॒ इति॒ सम्ऽअ॑क्तः। उप॑। दे॒वान्। ऋ॒तु॒श इत्यृ॑तु॒ऽशः। पाथः॑। ए॒तु॒। वन॒स्पतिः॑। दे॒व॒लो॒कमिति॑ देवऽलो॒कम्। प्र॒जा॒नन्निति॑ प्रऽजा॒नन्। अ॒ग्निना॑। ह॒व्या। स्व॒दि॒तानि॑। व॒क्ष॒त् ॥१० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्वो घृतेन त्मन्या समक्त उप देवाँऽऋतुशः पाथऽएतु । वनस्पतिर्देवलोकम्प्रजानन्नग्निना हव्या स्वदितानि वक्षत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अश्वः। घृतेन। त्मन्या। समक्त इति सम्ऽअक्तः। उप। देवान्। ऋतुश इत्यृतुऽशः। पाथः। एतु। वनस्पतिः। देवलोकमिति देवऽलोकम्। प्रजानन्निति प्रऽजानन्। अग्निना। हव्या। स्वदितानि। वक्षत्॥१०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 10
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे विद्वान, आपण (देवलोकम्) सर्वांना मार्ग दाखविणार्‍या विद्वानांच्या मार्गावर (प्रजानन्) चांगल्याप्रकारे चालत आपण आपल्या (त्मन्या) आत्म्याद्वारे (ऋतुशः) प्रत्येक ऋतूमधे (देवान्) उत्तम व्यवहार वा कर्म (समक्तः) सम्यक प्रकारे पूर्ण करता. (कशाप्रकारे? की जसा) (घृतेन) जलाने संयुक्त केल्यामुळे (अश्‍वः) शीघ्रगामी अग्नी (अपेक्षित कार्य पूर्ण करतो) आपण अशाप्रकारे (पाथः) अन्न-धान्याच्या (उप, एतु) ??? संग्रह प्राप्त करा. ज्याप्रकारे (अग्निना) अग्नीसह (वनस्पतिः) किरणांचा रक्षक सूर्य (स्वदितानि) स्वादिष्ट (हव्या) भोजनयोग्य अन्नादी पदार्थ (वक्षत्) उत्पन्न करतो (आम्हांस भोजन मिळवून देतो) त्याप्रमाणे हे विद्वान, आपण आपल्या आत्म्याशी व्यवहार करा (आत्मस्वरूप ओळख) ॥10॥

    भावार्थ - भावार्थ -या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. हे विद्वान मनुष्यांनो, ज्याप्रमाणे सूर्य वसंत आदी ऋतूंची वेगवेगळी रचना करतो, त्या त्या ऋतूत सेवनीय पदार्थ उत्पन्न करतो, तसे अध्यापकांनी विद्यार्थ्यापैकी उत्तम, मध्यम, अधम असे विद्यार्थ्यांचे विभाग करावे, विद्या काय व अविद्या काय, याची नीट परीक्षा करावी आणि विद्यार्थ्यांच्या ज्ञानात वृद्धी व अविद्येची निवृत्ती करावी ॥10॥

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