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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 112 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 112/ मन्त्र 10
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ, द्वितीयस्य अग्निः, शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    याभि॑र्वि॒श्पलां॑ धन॒साम॑थ॒र्व्यं॑ स॒हस्र॑मीळ्ह आ॒जावजि॑न्वतम्। याभि॒र्वश॑म॒श्व्यं प्रे॒णिमाव॑तं॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याभिः॑ । वि॒श्पला॑म् । ध॒न॒ऽसाम् । अ॒थ॒र्व्य॑म् । स॒हस्र॑ऽमीळ्हे । आ॒जौ । अजि॑न्वतम् । याभिः॑ । वश॑म् । अ॒श्व्यम् । प्रे॒णिम् । आव॑तम् । ताभिः॑ । ऊँ॒ इति॑ । सु । ऊ॒तिऽभिः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । आ । ग॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    याभिर्विश्पलां धनसामथर्व्यं सहस्रमीळ्ह आजावजिन्वतम्। याभिर्वशमश्व्यं प्रेणिमावतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याभिः। विश्पलाम्। धनऽसाम्। अथर्व्यम्। सहस्रऽमीळ्हे। आजौ। अजिन्वतम्। याभिः। वशम्। अश्व्यम्। प्रेणिम्। आवतम्। ताभिः। ऊँ इति। सु। ऊतिऽभिः। अश्विना। आ। गतम् ॥ १.११२.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 112; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 34; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्याह ।

    अन्वयः

    हे अश्विना सेनायुद्धाधिकृतौ युवां याभिरूतिभिः सहस्रमीळ्ह आजौ विश्पलां धनसामथर्व्यमजिन्वतं याभिर्वशं प्रेणिमश्व्यमावतं ताभिरूतिभिर्युक्तौ भूत्वा प्रजापालनाय स्वागतम् ॥ १० ॥

    पदार्थः

    (याभिः) (विश्पलाम्) विशः प्रजाः पात्यनेन सैन्येन तल्लाति यया ताम् (धनसाम्) धनानि सनन्ति संभजन्ति येन ताम् (अथर्व्यम्) अहिंसनीयां स्वसेनाम् (सहस्रमीळ्हे) सहस्राणि मीळ्हानि धनानि यस्मात् तस्मिन् (आजौ) संग्रामे। आजाविति संग्रामना०। निघं० २। १७। (अजिन्वतम्) प्रीणीतम् (याभिः) (वशम्) कमनीयम् (अश्व्यम्) तुरङ्गेषु वेगादिषु वा साधुम् (प्रेणिम्) शत्रुनाशाय प्रेरितुमर्हम् (आवतम्) रक्षतम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥ १० ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैरिदमवश्यं ज्ञातव्यं शरीरात्मपुष्ट्या सुशिक्षितया सेनया च विना युद्धे विजयस्तमन्तरा प्रजापालनं श्रीसञ्चयो राजवृद्धिश्च भवितुमयोग्यास्ति ॥ १० ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे दोनों कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अश्विना) सेना और युद्ध के अधिकारी लोगो ! (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षाओं से (सहस्रमीळ्हे) असंख्य पराक्रमादि धन जिसमें हैं उस (आजौ) संग्राम में (विश्पलाम्) प्रजा के पालन करनेहारों को ग्रहण करने (धनसाम्) और पुष्कल धन देनेहारी (अथर्व्यम्) न नष्ट करने योग्य अपनी सेना को (अजिन्वतम्) प्रसन्न करो, वा (याभिः) जिन रक्षाओं से (वशम्) मनोहर (प्रेणिम्) और शत्रुओं के नाश के लिये प्रेरणा करने योग्य (अश्व्यम्) घोड़ों वा अग्न्यादि पदार्थों के वेगों में उत्तम की (आवतम्) रक्षा करो, (ताभिरु) उन्हीं रक्षाओं के साथ प्रजा पालन के लिये (स्वागतम्) अच्छे प्रकार आया कीजिये ॥ १० ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को यह अवश्य जानना चाहिये कि शरीर, आत्मा की पुष्टि और अच्छे प्रकार शिक्षा की हुई सेना के विना युद्ध में विजय और विजय के विना प्रजापालन, धन का संचय और राज्य की वृद्धि होने को योग्य नहीं है ॥ १० ॥

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    विषय

    ‘विशपला - प्रोणि’

    पदार्थ

    १. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (ताभिः ऊतिभिः) = उन रक्षणों से (उ) = निश्चयपूर्वक (सु) = उत्तमता से (आगतम्) = हमें प्राप्त होओ (याभिः) = जिन रक्षणों से (सहस्त्रमीळ्हे आजौ) = शतशः सुखों का वर्षण करनेवाले अथवा आनन्दरूप धनवाले अध्यात्म - संग्राम में (विश्पलाम्) = [सर्वत्र विशति इति (विश्) = सर्वव्यापक प्रभु , पल - to go] सर्वव्यापक प्रभु की ओर जानेवाली चित्तवृत्तिवाले को (धनसाम्) = धन का संविभागपूर्वक सेवन करनेवाले को (अथर्व्यम्) = [अथर्व] डाँवाडोल न होनेवाले को (अजिन्वतम्) = प्रीणित करते हो । प्राणसाधना का परिणाम चित्तवृत्ति के निरोध के रूप में होता है । निरुद्ध चित्तवृत्ति प्रभु की ओर झुकती है और यह व्यक्ति विश्पला बनता है । यह प्रभु की ओर झुकी हुई चित्तवृत्तिवाला पुरुष धनसा बनता है , धन को बाँटकर सेवन करनेवाला होता है । यह अथर्व्य न डाँवाडोल होनेवाला होता है । 

    २. (याभिः) = जिन रक्षणों से हे प्राणापानो ! आप (वशम्) = इन्द्रियों को वश में करनेवाले को , (अश्व्यम्) = उत्तम इन्द्रियरूप अश्वोंवाले को और (प्रेणिम्) = [स्तुतेः प्रेरयितारम् - सा०] अपने जीवन में स्तुतिशील को (आवतम्) = रक्षित करते हो । प्राणसाधना से चित्तवृत्तियों का निरोध होता है , परिणामतः इन्द्रियाँ विषयों में नहीं भटकतीं । विषयों में न भटकने के कारण इन्द्रियरूप अश्व बड़े उत्तम होते हैं और यह पुरुष अश्व्य कहलाता है । यह विषय - व्यावृत होकर अपने को प्रभु के स्तवन की ओर प्रेरित करता है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना हमें ‘विश्पला , धनसा , अथर्व्य , वश , अश्व्य व प्रेणि’ बनाती है । 
     

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    विषय

    पिप्पला का रहस्य

    भावार्थ

    हे ( अश्विना ) विद्वान् शिल्पी जनो ! ( याभिः ) जिन विज्ञान के उपायों से ( धनसाम् ) ऐश्वर्यों को उत्पन्न करने वाली ( अथर्व्यम् ) कभी न मारी जाने वाली, दृढ़, ( विश्पलाम् ) प्रजाओं के पालक को अपने ऊपर प्रभु रूप में स्वीकार करने वाली विशाल सेना या सेना पति को ( सहस्रमीढ़े ) सहस्रों सुखों और ऐश्वर्यों के प्राप्त कराने वाले (आजौ) संग्राम में (अजिन्वतम्) तृप्त करते हो अर्थात् सेनाओं को शस्त्रास्त्र, रथ आदि आवश्यक उपकरणों से सुसज्जित करते हो और ( याभिः ) जिन उपायों और क्रियाओं सहित ( वशम् ) राष्ट्र पर वश करने वाले (अश्व्यं) अश्व सेनाओं के स्वामी, ( प्रेणिम् ) सबके आज्ञापक सेनापति को ( आ अवतम् ) प्राप्त होते हो । (ताभिः ) उन सहित ही हमें भी प्राप्त होवो । अध्यात्म में—प्राण, अपान जिन सामर्थ्यो से ( विश्पलाम् ) अन्तः-प्रविष्ट प्राणों के पालक, ( धनसाम् ) ऐश्वर्यों के भोक्ता ( अथर्व्यम् ) अविनाशी आत्मा को तृप्त, सुखी करते हैं, वे दोनों जिन बलों से सबके वशी, ( अश्व्यम् ) प्राण के पति ( प्रेणिम् ) सबके प्रेरक आत्मा को प्राप्त हों उन सामर्थ्यो से हमें भी प्राप्त हों । इति चतुस्त्रिंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ द्वितीयस्य अग्निः शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, २, ६, ७, १३, १५, १७, १८, २०, २१, २२ निचृज्जगती । ४, ८, ९, ११, १२, १४, १६, २३ जगती । १९ विराड् जगती । ३, ५, २४ विराट् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् त्रिष्टुप् । २५ त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी हे अवश्य जाणले पाहिजे की शरीर, आत्म्याची पुष्टी व चांगल्या प्रकारे शिक्षित केलेल्या सेनेशिवाय युद्धात विजय मिळू शकत नाही व विजयाशिवाय प्रजेचे पालन, धनाचा संचय व राज्याची वृद्धी होऊ शकत नाही. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, ruler and commander of the army, come with all those acts and powers by which you refresh and promote the defence forces which protect the people, create wealth and remain steady and unshaken in the war of a thousand battles, and by which you raise and maintain an impressive cavalry and armoured corps which is inspired and committed to the nation. Ashvins, come and come with grace.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are they (Ashvinau) is taught further in the tenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Commander of the Army and in-charge of Military operations, Please come us willingly with those protective powers by which you protect the army which accepts a guardian of the people as its chief in the battle field, that bestows much wealth upon the victor and is inviolable being invincible and which distributes wealth among the needy. Come with those aids by which you protect a hero who is desired by all, who is an expert horse rider and is a destroyer of enemies.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (विश्पलाम् ) विशः प्रजा: पाति अनेन सॅन्येन तत् लाति यया ताम | = An army which accepts as Chief the hero who protects the people. (सहस्रमीळे) सहस्रारिणमीळानि धनानि यस्मात् तत् = Giver of much wealth. (अथर्वाम् ) अहिंसनीया स्वसेनाम् = An army which is inviolable and invincible.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men must know this, that without the development of physical and spiritual powers and without a well-trained army, it is not possible to achieve victory in a battle, preserve the people to gather wealth and to develop the State.

    Translator's Notes

    मोळमिति धननाम (निघ० २.१०) थर्व-हिंसायाम् (काशकृत्सन् धातुपाठे) (वशम्) कमनीयम् वश कान्तौ इत्यस्मात् = Desired by all.

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