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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 112 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 112/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ, द्वितीयस्य अग्निः, शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    याभी॑ रे॒भं निवृ॑तं सि॒तम॒द्भ्य उद्वन्द॑न॒मैर॑यतं॒ स्व॑र्दृ॒शे। याभि॒: कण्वं॒ प्र सिषा॑सन्त॒माव॑तं॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याभिः॑ । रे॒भम् । निऽवृ॑तम् । सि॒तम् । अ॒त्ऽभ्यः । उत् । वन्द॑नम् । ऐर॑यतम् । स्वः॑ । दृ॒शे । याभिः॑ । कण्व॑म् । प्र । सिसा॑सन्तम् । आव॑तम् । ताभिः॑ । ऊँ॒ इति॑ । सु । ऊ॒तिऽभिः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । आ । ग॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    याभी रेभं निवृतं सितमद्भ्य उद्वन्दनमैरयतं स्वर्दृशे। याभि: कण्वं प्र सिषासन्तमावतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याभिः। रेभम्। निऽवृतम्। सितम्। अत्ऽभ्यः। उत्। वन्दनम्। ऐरयतम्। स्वः। दृशे। याभिः। कण्वम्। प्र। सिसासन्तम्। आवतम्। ताभिः। ऊँ इति। सु। ऊतिऽभिः। अश्विना। आ। गतम् ॥ १.११२.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 112; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 33; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे अश्विना युवां याभिरूतिभिः सितं निवृतं रेभं वन्दनं स्वर्दृशऽद्भ्य उदैरयतं याभिश्च सिषासन्तं कण्वं प्रावतं ताभिरु स्वागतम् ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (याभिः) (रेभम्) स्तोतारम् (निवृतम्) नितरां स्वीकृतं शास्त्रबोधम् (सितम्) शुद्धधर्मम् (अद्भ्यः) जलेभ्यः (उत्) उत्कृष्टे (वन्दनम्) गुणकीर्त्तनम् (ऐरयतम्) गमयतम् (स्वः) सुखम् (दृशे) (द्रष्टुम्) (याभिः) (कण्वम्) मेधाविनम् (प्र) (सिसासन्तम्) विभाजितुमिच्छन्तम् (आवतम्) पालयतम् (ताभिः०) इत्यादि पूर्ववत् ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या विदुषः सुरक्ष्य तेभ्यो विद्याः प्राप्य जलादिपदार्थेभ्यः शिल्पविद्याः संपाद्य वर्द्धन्ते ते सर्वाणि सुखानि प्राप्नुवन्ति ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे दोनों कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अश्विना) पढ़ाने और उपदेश करनेवालो ! तुम (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षाओं से (सितम्) शुद्ध धर्मयुक्त (निवृतम्) निरन्तर स्वीकार किये हुए शास्त्रबोध की (रेभम्) स्तुति और (वन्दनम्) गुणों की प्रशंसा करनेहारे को (स्वः) सुख के (दृशे) देखने के अर्थ (अद्भ्यः) जलों से (उत्, ऐरयतम्) प्रेरणा करो और (याभिः) जिनसे (सिषासन्तम्) विभाग कराने को इच्छा करनेहारे (कण्वम्) बुद्धिमान् विद्वान् की (प्र, आवतम्) रक्षा करो (ताभिः, उ) उन्हीं रक्षाओं से हम लोगों के प्रति (सु, आ, गतम्) उत्तमता से आइये ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य विद्वानों की अच्छे प्रकार रक्षा कर, उनसे विद्याओं को प्राप्त हो, जलादि पदार्थों से शिल्पविद्या को सिद्ध करके बढ़ते हैं, वे सब सुखों को प्राप्त होते हैं ॥ ५ ॥

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    विषय

    ‘रेभ - निवृत् - सित - वन्दन , कण्व’

    पदार्थ

    १. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! आप (ताभिः) = उन (ऊतिभिः) = रक्षणों से (उ) = निश्चय से (सु) = उत्तमता से (आगतम्) = हमें प्राप्त होओ (याभिः) = जिन रक्षणों के द्वारा (आप रेभम्) = स्तोता को (निवृतम्) = विषयों से परावृत [to come back , to retreat] पुरुष को , (सितम्) = श्वेत - शुद्ध जीवनवाले को [सितम् - शुद्धधर्मम् - द०] , (वन्दनम्) = बड़ों का अभिवादन करनेवालों को (अद्भ्यः) = रेतः कणों के रूप में शरीर में रहनेवाले जलों के द्वारा (उदैरयतम्) = उत्कृष्ट मार्ग प्राप्त कराते हो ताकि (स्वर्दृशे) = प्रकाशमय लोक अथवा स्वर्ग का वे दर्शन कर सकें । प्राणसाधना से ही वस्तुतः हम रेभ , निवृत् , सित व वन्दन बनते हैं । ऐसा बनने का रहस्य भी इस बात में है कि प्राणसाधना से शरीर में रेतः कणों की ऊर्ध्वगति होती है । इस ऊर्ध्वगति से हमारे जीवनों में प्रभु - प्रवणता होती है । उससे हम (रेभ) = प्रभु के स्तोता बनते हैं । विषयों से हम पराङ्मुख होते हैं । हमारा मन विषयों की ओर नहीं झुकता । इससे हमारा जीवन शुद्ध व धार्मिक होता है । हम निवृत् व सित बनते हैं । हमारे जीवन में बड़ों के प्रति आदर की भावना बनी रहती है , अर्थात् हम वन्दन होते हैं । 

    २. हे प्राणापानो ! हमें उन रक्षणों से प्राप्त होओ जिनसे आप (सिषासन्तम्) = [संभक्तुमिच्छन्तम् - सा०] संविभाग की कामनावाले (कण्वम्) = मेधावी पुरुष की (प्रावतम्) = प्रकर्षेण रक्षा करते हैं । प्राणसाधना का हमारे जीवन पर यह भी परिणाम होता है कि बुद्धि तीन होकर हम कण्व बनते हैं । यह कण्व सदा संविभागपूर्वक वस्तुओं का सेवन करता है । सब - कुछ स्वयं ही नहीं खा लेता , सदा यज्ञशेष का ही सेवन करता है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से हम ‘रेभ , निवृत् , सित , वन्दन व कण्व’ बनेंगे । ऐसा बनकर हमारा उत्थान होता है और हम प्रकाशमय लोक का दर्शन कर पाते हैं । 
     

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    विषय

    रेभ और वन्दन का रहस्य ।

    भावार्थ

    हे ( अश्विना ) विद्वान् आचार्य और शिक्षक पुरुषो ! माता, पिता और योग्य स्त्री पुरुषो ! आप दोनों ( याभिः ऊतिभिः ) जिन रक्षा आदि उपायों और ज्ञान-वाणियों से ( रेभम् ) स्तुतिशील, (निवृतम्) सब प्रकार के अपनाये हुए, विनीत एवं उपवीत अथवा (निवृतम्) सब कष्टों, अज्ञानों या दुःखों से घिरे हुए ( सितम् ) शुद्धाचारी, ( वन्दनम् ) अभिवादनशील पुत्र और शिष्य को ( स्वःदृशे ) परम ज्ञानमय परमेश्वर या परम सुख का दर्शन करने के लिये ( उत् ऐरयतम् ) उत्तम पद की ओर प्रेरणा करते हैं, उसे उत्पन्न करते हैं और ( याभिः ) जिन ज्ञान, रक्षा आदि उपायों से ( सिषासन्तं कण्वं ) ज्ञानवान् और ऐश्वर्य के इच्छुक बुद्धिमान् पुरुष को ( प्र आवतम् ) और आगे बढ़ाते हो, ( ताभिः ऊतिभिः सुआगतम् ) उन उपायों से हमें प्राप्त होवो । ( २ ) परमेश्वरपक्ष में—प्राण और अपान दोनों ( रेभं ) स्तुतिकर्त्ता, ( निवृतम् ) वासनाओं से या अज्ञान से घिरे, ( सितम् ) कर्म बंधनों में बंधे ( वन्दनम् ) स्तुतिकारी उपासक आत्मा को ( स्वः दृशे उत् ऐरयतम् ) परमात्मा के दर्शन के लिये ऊपर उठाते हैं । ( ३ ) राजा और सेनापति ( रेभं ) प्रार्थना करने वाले, (सितम्) शत्रुओं के कारागार में बंधे, ( वन्दनम् ) बन्दी बने पुरुष को उबारते हैं। इत्रयस्त्रिंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ द्वितीयस्य अग्निः शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, २, ६, ७, १३, १५, १७, १८, २०, २१, २२ निचृज्जगती । ४, ८, ९, ११, १२, १४, १६, २३ जगती । १९ विराड् जगती । ३, ५, २४ विराट् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् त्रिष्टुप् । २५ त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे विद्वानांचे चांगले रक्षण करून त्यांच्याकडून विद्या प्राप्त करतात व जल वगैरे पदार्थांनी शिल्पविद्या संपादित करून वाढतात ती माणसे सर्व सुख प्राप्त करतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, catalytic powers of nature’s divinity, analytic scholars of nature, educational and developmental powers of society, come up to us with grace with all those powers and protections by which you support and advance the scholar wholly and exclusively dedicated to worshipful study of nature in the field of water and liquids and see him emerging from the waters for a sight of divinity through success. Come with those protections by which you support the scholar of eminence in his analytical studies of the elements until he comes out successful.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are they (Ashvinau) is taught further in the fifth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O teachers and preachers possessing self-control ! Come to us willingly with those protective powers, by which you raise from the waters of difficulties a devotee who is admirer of the pure Dharma, the Shastric knowledge and the glorification of God, to behold the path of happiness, by which you protect a genius who desires to distribute his wealth and knowledge among the needy.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (रेभम) स्तोतारम् = Admirer. (निवृतम) नितरां स्वीकृतं शास्त्रबोधम् = The Shastric Knowledge that has been accepted as true. (सितम्) शुद्धधर्मम् = Pure Dharma or righteousness. कण्व इति मेधाविनाम (निघ० ३.१५) रेभ इति स्तोतृनाम (निघ० ३.१६) वदि-अभिवादनस्तुत्योः - It is wrong on the part of Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others to take Rebha, Vandana and Kanva as the names of particular persons instead of taking them as general terms denoting certain attributes as their derivation and the quotation from the Nighantu (Vedic Lexicon) clearly denote.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those people who grow ever more by protecting learned persons, having acquired spiritual knowledge from them and put into use the industrial knowledge from the water and other elements, enjoy all kinds of happiness.

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