ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 112/ मन्त्र 7
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ, द्वितीयस्य अग्निः, शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
याभि॑: शुच॒न्तिं ध॑न॒सां सु॑षं॒सदं॑ त॒प्तं घ॒र्ममो॒म्याव॑न्त॒मत्र॑ये। याभि॒: पृश्नि॑गुं पुरु॒कुत्स॒माव॑तं॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम् ॥
स्वर सहित पद पाठयाभिः॑ । शु॒च॒न्ति । ध॒न॒साम् । सु॒ऽसं॒सद॑म् । त॒प्तम् । घ॒र्मम् । ओ॒म्याऽव॑न्तम् । अत्र॑ये । याभिः॑ । पृष्नि॑ऽगुम् । पु॒रु॒ऽकुत्स॑म् । आव॑तम् । ताभिः॑ । ऊँ॒ इति॑ । सु । ऊ॒तिऽभिः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । आ । ग॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
याभि: शुचन्तिं धनसां सुषंसदं तप्तं घर्ममोम्यावन्तमत्रये। याभि: पृश्निगुं पुरुकुत्समावतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥
स्वर रहित पद पाठयाभिः। शुचन्ति। धनसाम्। सुऽसंसदम्। तप्तम्। घर्मम्। ओम्याऽवन्तम्। अत्रये। याभिः। पृश्निऽगुम्। पुरुऽकुत्सम्। आवतम्। ताभिः। ऊँ इति। सु। ऊतिऽभिः। अश्विना। आ। गतम् ॥ १.११२.७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 112; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 34; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 34; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे अश्विना युवां याभिरूतिभिरत्रये शुचन्तिं धनसां सुषंसदं तप्तं घर्ममोम्यावन्तं जनं पृश्निगुं पुरुकुत्सं चावतं ताभिरु स्वागतम् ॥ ७ ॥
पदार्थः
(याभिः) (शुचन्तिम्) पवित्रकारकम् (धनसाम्) यो धनानि सनोति विभजति तम्। अत्र धनोपपदात् सन् धातोर्विट्। (सुषंसदम्) शोभना संसद् यस्य तम् (तप्तम्) ऐश्वर्ययुक्तम्। ऐश्वर्यार्थात् तप्धातोस्तः प्रत्ययः। (घर्मम्) प्रशस्ता घर्मा यज्ञा विद्यन्ते यस्य तम्। घर्म इति यज्ञना०। निघं० ३। १७। घर्मशब्दादर्शआदित्वादच्। (ओम्यावन्तम्) ये अवन्ति ते ओमानस्तान् ये यान्ति प्राप्नुवन्ति त ओम्याः एते प्रशस्ता विद्यन्ते यस्य तम् (अत्रये) अविद्यमानानि त्रीण्याध्यात्मिकाधिभौतिकाधिदैविकानि दुःखानि यस्मिन् व्यवहारे तस्मै (याभिः) (पृश्निगुम्) अन्तरिक्षे गन्तारम् (पुरुकुत्सम्) बहवः कुत्सा वज्राः शस्त्रविशेषा यस्मिँस्तम् (आवतम्) पालयतम् (ताभिरिति) पूर्ववत् ॥ ७ ॥
भावार्थः
विद्वद्भिर्धर्मात्मरक्षणेन दुष्टानां दण्डनेन च सत्यविद्या प्रकाशनीयाः ॥ ७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे दोनों कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (अश्विना) उपदेश करने और पढ़ानेवालो ! तुम दोनों (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षाओं से (अत्रये) जिसमें आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक दुःख नहीं है, उस व्यवहार के लिये (शुचन्तिम्) पवित्रकारक (धनसाम्) धन के विभागकर्त्ता (सुषंसदम्) अच्छी सभावाले (तप्तम्) ऐश्वर्ययुक्त (घर्मम्) उत्तम यज्ञवान् (ओम्यावन्तम्) रक्षकों को प्राप्त होनेहारे पुरुष प्रशंसित जिसके हैं उसकी और (याभिः) जिन रक्षाओं से (पृश्निगुम्) विमानादि से अन्तरिक्ष में जानेहारे (पुरुकुत्सम्) बहुत शस्त्राऽस्त्रयुक्त पुरुष की (आवतम्) रक्षा करें (ताभिः, उ) उन्हीं रक्षाओं से हम लोगों को (सु, आ, गतम्) उत्तमता से प्राप्त हूजिये ॥ ७ ॥
भावार्थ
विद्वानों को योग्य है कि धर्मात्माओं की रक्षा और दुष्टों की ताड़ना से सत्यविद्याओं का प्रकाश करें ॥ ७ ॥
विषय
‘शुचन्ति पुरुकुत्स’
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! आप (ताभिः ऊतिभिः) = उन रक्षणों से (उ) = निश्चयपूर्वक (सु) = उत्तमता से (आगतम्) = हमें प्राप्त होओ , (याभिः) = जिनसे (शुचन्तिम्) = अपने जीवन को पवित्र बनानेवाले को (आवतम्) = रक्षित करते हो , जिनसे (धनसाम्) = धन का उचित संविभाग करनेवाले को रक्षित करते हो , जिनसे (सुषंसदम्) = उत्तमता से प्रभु के उपासन में बैठनेवाले को रक्षित करते हो या परस्पर प्रेम से मिलकर बैठनेवाले का रक्षण करते हो , (तप्तम्) = [तसमस्यास्तीति] तपस्वी को रक्षित करते हो , (धर्मम्) = यज्ञशील [नि० ३/१७] जीवनवाले को जिनसे रक्षित करते हो , (ओम्यावन्तम्) = [ओम्या protection] अपना रक्षण करनेवाले को जिन रक्षणों से प्राप्त होते हो , उन्हीं से हमें भी प्राप्त होओ । वस्तुतः प्राणसाधना का ही यह परिणाम होता है कि हमारा जीवन पवित्र बनता है [शुचन्ति] , हम बाँटकर खाने की वृत्तिवाले होते हैं [धनसा] , परस्पर प्रेम से मिलकर बैठते हैं और प्रभु के उपासन में आसीन होते हैं [सुषंसदम्] , तपस्वी जीवनवाले बनते हैं [तप्तम्] , यज्ञशील होते हैं [घर्मम्] , शरीर को रोगों से व मन को वासना से बचाते हैं [ओम्यावान्] और इस प्रकार (अत्रये) = [अविद्यामानाः त्रयो यस्मिन्] हम अपने को उस स्थिति के लिए सिद्ध करते हैं , जिसमें आध्यात्मिक , आधिदैविक व आधिभौतिक तीनों प्रकार के ही कष्ट दूर हो जाते हैं ।
२. हे प्राणापानो ! हमें उन रक्षणों से प्राप्त होओ (याभिः) = जिनसे (पृश्निगुम्) =[प्रश्नि गच्छति] प्रकाश की किरणों की ओर चलनेवाले को तथा (पुरुकुत्सम्) = बुराइयों के खूब ही संहार करनेवाले को (आवतम्) = आप रक्षित करते हो । प्राणसाधना से हमारी बुद्धि तीव्र बनती है और स्वाध्याय के द्वारा हम प्रकाश की किरणों को प्राप्त करते हैं । प्राणसाधना से हमारे मलों का भी दहन होता है और हम (पुरुकुत्स) = बुराइयों का खूब हिंसन करनेवाले होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से हम ‘शुचन्ति , धनसा , सुषंसद् , तप्त , धर्म , ओम्यावान् , पृश्निगु व पुरुकुत्स’ बनें ।
विषय
शुचन्ति, पुरुकुत्स, पृश्निगु का रहस्य ।
भावार्थ
हे ( अश्विना ) विद्वान् स्त्री पुरुषो ! राजा और विद्वान् जनो ! (याभिः) जिन उपायों से ( शुचन्तिम् ) प्रजाजनों के हृदयों को और नगरों के निवास भूमि को शुद्ध पवित्र करने और प्रकाश से जगमगा देने वाले जनों को ( धनसां ) ऐश्वर्यों के दान देने वाले ( सुसंसदम् ) उत्तम सभा के अध्यक्ष को, ( तप्तं ) सन्तप्त पुरुष को और ( धर्मम् ) तेजस्वी पुरुष को ( अत्रये ) इस राष्ट्र में बसने वाले जन समूह के हित के लिये ( अवतम् ) सब प्रकार से सुरक्षित करते हों। और (याभिः) जिन उपायों से (पृश्निगुम्) नाना प्रकार की गौओं के पालक या अन्तरिक्ष में जाने वाले वैमानिक वर्ग और ( पुरुकुत्सम् ) नाना शस्त्रास्त्रों के स्वामी, शस्त्रागार के रक्षक वर्गों की ( आ अवतम् ) रक्षा करते हो (ताभिः आगतम्) उन सब उपायों सहित तुम दोनों हमें प्राप्त होवो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ द्वितीयस्य अग्निः शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, २, ६, ७, १३, १५, १७, १८, २०, २१, २२ निचृज्जगती । ४, ८, ९, ११, १२, १४, १६, २३ जगती । १९ विराड् जगती । ३, ५, २४ विराट् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् त्रिष्टुप् । २५ त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वानांनी धर्मात्म्याचे रक्षण व दुष्टांची ताडना करून सत्य विद्यांचा प्रकाश करावा. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, scholars, teachers and social planners, come with grace with all those modes and means by which you protect and promote the pure hearted creator and distributor of wealth, the noble parliamentarian, brilliant enthusiast, protective warrior, the astronaut and the versatile scholar for the establishment of a social order free from physical, psychological and spiritual ailments.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is they (Ashvinau) is taught further in the seventh Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Ashvinau (teachers and preachers) please come to us willingly with those protecting powers by which you protect him who purifies all, who distributes wealth among the needy, who is associated with good assembly, who is endowed with the admirable wealth of wisdom, is performer of admirable Yajnas (non-violent sacrifices), who is surrounded by noble persons that protect others, who travels to the firmament by means of air-craft and who has powerful arms to overcome the wicked, in order to have a dealing where there is absence of internal social and cosmic suffering.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(शुचन्तिम्) पवित्रकारकम् = Purifier. (घर्मम्) प्रशस्ताः घर्मा: यज्ञा विद्यन्ते यस्य तम् घर्म इति यज्ञ नाम (निघ० ३.१७ घर्म शब्दादर्श आदित्वादच् । ) = Performer of admirable Yajnas. (पृश्निगुम् ) अन्तरिक्ष गन्तारम् = Travelling to the firmament by means of an aircraft. पृश्निरित्यन्तरिक्षनाम (निघ० १.४)
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Learned persons should manifest and diffuse true knowledge by protecting the righteous persons and by punishing the wicked.
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