ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 112/ मन्त्र 12
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ, द्वितीयस्य अग्निः, शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
याभी॑ र॒सां क्षोद॑सो॒द्नः पि॑पि॒न्वथु॑रन॒श्वं याभी॒ रथ॒माव॑तं जि॒षे। याभि॑स्त्रि॒शोक॑ उ॒स्रिया॑ उ॒दाज॑त॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम् ॥
स्वर सहित पद पाठयाभिः॑ । र॒साम् । क्षोद॑सा । उ॒द्गः । पि॒पि॒न्वथुः॑ । अ॒न॒श्वम् । याभिः॑ । रथ॑म् । आव॑तम् । जि॒षे । याभिः॑ । त्रि॒ऽशोकः॑ । उ॒स्रियाः॑ । उ॒त्ऽआज॑त । ताभिः॑ । ऊँ॒ इति॑ । सु । ऊ॒तिऽभिः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । आ । ग॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
याभी रसां क्षोदसोद्नः पिपिन्वथुरनश्वं याभी रथमावतं जिषे। याभिस्त्रिशोक उस्रिया उदाजत ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥
स्वर रहित पद पाठयाभिः। रसाम्। क्षोदसा। उद्गः। पिपिन्वथुः। अनश्वम्। याभिः। रथम्। आवतम्। जिषे। याभिः। त्रिऽशोकः। उस्रियाः। उत्ऽआजत। ताभिः। ऊँ इति। सु। ऊतिऽभिः। अश्विना। आ। गतम् ॥ १.११२.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 112; मन्त्र » 12
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 35; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 35; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ शिल्पदृष्टान्तेन सभासेनापतिकृत्यमुपदिश्यते ।
अन्वयः
हे अश्विना युवां याभिरुद्नः क्षोदसा रसां पिपिन्वथुर्याभिर्जिषेऽनश्वं रथमावतं याभिर्वा त्रिशोको विद्वानुस्रिया उदाजत ताभिरु ऊतिभिः स्वागतम् ॥ १२ ॥
पदार्थः
(याभिः) शिल्पक्रियाभिः (रसाम्) प्रशस्तं रसं जलं विद्यते यस्यां ताम्। रस इति उदकना०। (निघं०) १। १२। अत्रार्शआदित्वान्मत्वर्थीयोऽच्। (क्षोदसा) प्रवाहेण (उद्नः) जलस्य (पिपिन्वथुः) पिपूर्त्तम् (अनश्वम्) अविद्यमाना अश्वा तुरङ्गादयो यस्मिन् (याभिः) गमनागमनाख्याभिर्गतिभिः (रथम्) विमानादियानसमूहम् (आवतम्) रक्षतम् (जिषे) शत्रून् जेतुम् (याभिः) सेनाभिः (त्रिशोकः) त्रिषु दुष्टगुणकर्मस्वभावेषु शोको यस्य विदुषः सः (उस्रियाः) उस्रासु रश्मिषु भवा विद्युतः। उस्रा इति रश्मिना०। (निघं०) १। ५। (उदाजय) ऊर्द्धं समन्तात् क्षिपतु। अत्र लोडर्थे लङ्। ताभिरित्यादि पूर्ववत् ॥ १२ ॥
भावार्थः
यथा सर्वशिल्पशास्त्रकुशलो विद्वान् विमानादियानेषु कलायन्त्राणि रचयित्वा तेषु जलविद्युदादीन् प्रयुज्य यन्त्रैः कलाः संचाल्य स्वाभीष्टे गमनागमने करोति तथैव सभासेनापती आचरेताम् ॥ १२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब शिल्प दृष्टान्त से सभापति और सेनापति के काम का उपदेश किया है ।
पदार्थ
हे (अश्विना) अध्यापक और उपदेशको ! आप दोनों (याभिः) जिन शिल्प क्रियाओं से (उद्नः) जल के (क्षोदसा) प्रवाह के साथ (रसाम्) जिसमें प्रशंसित जल विद्यमान हो उस नदी को (पिपिन्वथुः) पूरी करो अर्थात् नहर आदि के प्रबन्ध से उसमें जल पहुँचाओ, वा (याभिः) जिन आने-जाने की चालों से (जिषे) शत्रुओं को जीतने के लिये (अनश्वम्) विन घोड़ों के (रथम्) विमान आदि रथसमूह को (आवतम्) राखो, वा (याभिः) जिन सेनाओं से (त्रिशोकः) जिनको दुष्ट गुण, कर्म, स्वभावों में शोक है वह विद्वान् (उस्रियाः) किरणों में हुए विद्युत् अग्नि की चिलकों को (उदाजत) ऊपर को पहुँचावे, (ताभिरु) उन्हीं (ऊतिभिः) सब रक्षारूप उक्त वस्तुओं से (स्वागतम्) हम लोगों के प्रति अच्छे प्रकार आइये ॥ १२ ॥
भावार्थ
जैसे सब शिल्पशास्त्रों में चतुर विद्वान् विमानादि यानों में कलायन्त्रों को रच के, उनमें जल विद्युत् आदि का प्रयोग कर, यन्त्र से कलाओं को चला, अपने अभीष्ट स्थान में जाना-आना करता है, वैसे ही सभा सेना के प्रति किया करें ॥ १२ ॥
विषय
ज्ञानरश्मियों का उदय
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! आप (ताभिः ऊतिभिः) = उन रक्षणों से (उ) = निश्चयपूर्वक (सु) = उत्तमता से हमें (आगतम्) = प्राप्त होओ , (याभिः) = जिनसे (रसाम्) = इस रसमय पृथिवीरूप शरीर को (उद्नः) = रेतः कणों के रूप में शरीर में रहनेवाले जलों के (क्षोदसा) = [क्षुदिर् सम्पेषणे] रोगकृमियों को पीस डालनेवाले प्रवाह से (पिपिन्वथुः) = प्रीणित करते हो । प्राणसाधना से शरीर में रेतः कणों की ऊर्ध्वगति होती है । इन सुरक्षित रेतः कणों से रोग - कृमियों का संहार होता है । वीर्य - विशेषरूप से [वि] रोग - कृमियों को कम्पित [ईर] करनेवाला है । नीरोगता से शरीर की शक्ति बनी रहती है और शरीर के अङ्ग रसमय बने रहते हैं ।
२. हमें उन रक्षणों के साथ प्राप्त होओ (याभिः) = जिनसे (अनश्वं रथम्) = इस शरीररूप रथ को जिसमें लौकिक घोड़े नहीं जुते हुए (आवतम्) = रक्षित करते हो ताकि (जिषे) = इस संसार - संग्राम में विजय हो सके । विजय - प्राति के लिए शरीर - रथ सुरक्षित होना अत्यन्त आवश्यक है । इसकी निर्विकारता प्राणसाधना पर ही निर्भर करती है ।
३. हमें उन रक्षणों से आप प्राप्त होओ (याभिः) = जिनसे (त्रिलोकः) = शरीर , मन व मस्तिष्क की दीप्तिवाला पुरुष (उस्रिया) = ज्ञान की रश्मियों को [Brightness , light] (उदाजत) = उत्कृष्ट रूप से प्रेरित करता है । प्राणसाधना से ज्ञान की रश्मियों का उदय होता है । शरीर , मन व मस्तिष्क - सभी दीप्त होते हैं । यह प्राणसाधक ‘त्रिशोक’ बनता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से शरीर के अङ्ग रसमय बनते हैं , शरीर - रथ सुन्दर बनता है और हमें विजयी बनाता है , ज्ञान रश्मियाँ उदित होती हैं और हम त्रिशोक बनते हैं ।
विषय
missing
भावार्थ
( याभिः ) जिन ( ऊतिभिः ) विज्ञान युक्त साधनों से ( रसाम् ) पृथ्वी को तथा नदी को ( उद्गः क्षोदसा ) जल के प्रवाह से ( पिपिन्वथुः ) आप दोनों मेघों के समान पूर्ण कर देते हो और (याभिः) जिन विज्ञान साधनों से ( अनश्वम् ) विना घोड़े के ( रथम् ) रथ को ( जिषे ) विजय करने के लिये ( आ अवतम् ) यन्त्रादि साधनों से अच्छी प्रकार चला देते हो ( त्रिशोकः ) तीनों भुवनों में तेजस्वी गुण, कर्म, स्वभाव तीनों में उज्ज्वल पुरुष, अथवा अग्नि, विद्युत्, सूर्य तीनों तेजो को जानने हारे वैज्ञानिक, अग्नि, जल, विद्युत् तीनों के तत्वज्ञ पुरुष ( याभिः ) जिन उपायों से ( उस्त्रियाः ) ऊपर जाने वाली जलधाराओं, किरणों और विद्युत् की धाराओं को ( ऊद् आजतम् ) उठाने में समर्थ होते हैं ( ताभिः नः सुआगतम् ) उन सब साधनों सहित हमें प्राप्त होवो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ द्वितीयस्य अग्निः शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, २, ६, ७, १३, १५, १७, १८, २०, २१, २२ निचृज्जगती । ४, ८, ९, ११, १२, १४, १६, २३ जगती । १९ विराड् जगती । ३, ५, २४ विराट् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् त्रिष्टुप् । २५ त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जसा सर्व शिल्पशास्त्रात चतुर असलेला विद्वान विमान इत्यादी यानात कलायंत्रांना निर्माण करून त्यात जल, विद्युत इत्यादीचा प्रयोग करून यंत्राने कळा फिरवून आपल्या अभीष्ट स्थानी जाणे-येणे करतो. तसेच सभेच्या सेनापतीने करावे. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
By feats of irrigation engineering you augment the stream of water with over-flowing rush of floods of water. By feats of automotive engineering you protect and propel the horse-less chariot onward for victory. By electrical engineering, the leader, feeling the want of education, justice and economic well-being throws up the currents of electric energy for development. With all these wonders of science and technology, O Ashvins, scientists and leaders, come with grace and protection for development and progress.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O President of the Assembly and commander of the Army! please come to us willingly with those protective powers by which industrial processes you fill up a canal with the flow of waters and by which in order to conquer the enemies, you arrange to manufacture the group of aircrafts without horses and by which a man who strongly dislikes evil thoughts, actions and temperament utilizes the electric currents.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(रसाम्) प्रशस्तं रसं जलं विद्यते यस्यां ताम् = Canal full of good water. (उस्त्रिया:) उस्राषु रश्मिषु भवा विद्युत:उत्रा इति रश्मिनाम (निघ० १.५ ) = Electric currents.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As an expert artisan goes from place to place by making machines the aero planes and using water and electricity there, so should the President of the Assembly and the Commander of the Army do.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal