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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 112 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 112/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ, द्वितीयस्य अग्निः, शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    याभि॒: परि॑ज्मा॒ तन॑यस्य म॒ज्मना॑ द्विमा॒ता तू॒र्षु त॒रणि॑र्वि॒भूष॑ति। याभि॑स्त्रि॒मन्तु॒रभ॑वद्विचक्ष॒णस्ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याभिः॑ । परि॑ऽज्मा । तन॑यस्य । म॒ज्मना॑ । द्वि॒इमा॒ता । तू॒र्षु । त॒रणिः॑ । वि॒ऽभूष॑ति । याभिः॑ । त्रि॒ऽमन्तुः॑ । अभ॑वत् । वि॒ऽच॒क्ष॒णः । ताभिः॑ । ऊँ॒ इति॑ । सु । ऊ॒तिऽभिः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । आ । ग॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    याभि: परिज्मा तनयस्य मज्मना द्विमाता तूर्षु तरणिर्विभूषति। याभिस्त्रिमन्तुरभवद्विचक्षणस्ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याभिः। परिऽज्मा। तनयस्य। मज्मना। द्विऽमाता। तूर्षु। तरणिः। विऽभूषति। याभिः। त्रिऽमन्तुः। अभवत्। विऽचक्षणः। ताभिः। ऊँ इति। सु। ऊतिऽभिः। अश्विना। आ। गतम् ॥ १.११२.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 112; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 33; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे अश्विना युवां याभिरूतिभिर्द्विमाता तूर्षु तरणिः परिज्मा वायुस्तनस्य मज्मना सुविभूषत्यु याभिरूतिभिस्त्रिमन्तुर्विचक्षणोऽभवद् भवेत् ताभिरूतिभिः सर्वानस्मान् विद्यादानायाऽगतम् ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (याभिः) (परिज्मा) परितः सर्वतो गन्ता वायुः (तनयस्य) अपत्यस्याग्नेः (मज्मना) बलेन (द्विमाता) द्वयोरग्निजलयोर्माता प्रमापकः (तूर्षु) शीघ्रकारिषु (तरणिः) प्लविताऽतिवेगवान् (विभूषति) अलङ्करोति (याभिः) (त्रिमन्तुः) तिसृणां कर्मोपासनाज्ञानविद्यानां मन्तुर्मन्ता (अभवत्) भवेत् (विचक्षणः) विविधतया दर्शकः (ताभिः०) इत्यादि पूर्ववत् ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः प्राणवत् प्रियत्वेन संन्यासिवदुपकारकत्वेन सर्वेभ्यो विद्योन्नतिः संपादनीया ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे दोनों कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अश्विना) विद्या और उपदेश की प्राप्ति करानेहारे विद्वान् लोगो ! (याभिः) जिनसे (द्विमाता) दोनों अग्नि और जल का प्रमाण करनेवाला (तूर्षु) शीघ्र करनेवालों में (तरणिः) उछलता सा अतीव वेगवाला (परिज्मा) सर्वत्र गमन करता वायु (तनयस्य) अपने से उत्पन्न अग्नि के (मज्मना) बल से (सु, विभूषति) अच्छे प्रकार सुशोभित होता (उ) और (याभिः) जिनसे (त्रिमन्तुः) कर्म, उपासना और ज्ञान विद्या को माननेहारा (विचक्षणः) विविध प्रकार से सब विद्याओं को प्रत्यक्ष करानेहारा (अभवत्) होवे (ताभिः) उन (ऊतिभिः) रक्षाओं से सहित सब हम लोगों को विद्या देने के लिये (आ, गतम्) प्राप्त हूजिये ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि प्राण के समान प्रीति और संन्यासियों के समान उपकार करने से सबके लिये विद्या की उन्नति किया करें ॥ ४ ॥

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    विषय

    द्विमाता - त्रिमन्तुः

    पदार्थ

    १. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! आप (ताभिः) = उन (ऊतिभिः) = रक्षणों से (उ) = निश्चय से (स) = अच्छी प्रकार (आगतम्) = प्रास होओ (याभिः) = जिनसे आपकी साधना करनेवाला आपका साधक (परिज्मा) = सर्वतो गन्ता होता है , सतत क्रियाशील होता हुआ विविध कार्यों में लगा रहता है । 

    २. कर्मों में लगा रहने से ही यह तनय शक्तियों का विस्तार करनेवाला होता है । (तनयस्य) = [तनु विस्तारे] शक्तियों के विस्तारक पुरुष के (मज्मना) = बल से यह (द्विमाता) = शरीर व मस्तिष्क दोनों का निर्माण करनेवाला होता है । इसका शरीर दृढ़ होता है तो मस्तिष्क दीप्त । 

    ३. शरीर व मस्तिष्क दोनों को विकसित करके यह (तूर्षु) = [तुर्वी हिंसायाम्] हिंसा करनेवाले काम - क्रोध व लोभादि शत्रुओं में (तरणिः) = तैर जानेवाला होता है । इन शत्रुओं का पराभव करता है और इस प्रकार (विभूषति) = अपने जीवन को विभूषित करता है । 

    ४. हे प्राणापानो ! (ताभिः ऊतिभिः उ सु आगतम्) = हमें उन रक्षणों के साथ निश्चय से प्राप्त होओ (याभिः) = जिनसे मनुष्य (त्रिमन्तुः) = ईश्वर , जीव और प्रकृति - तीनों का विचार करनेवाला और (विचक्षणः) = विशेषरूप से तत्त्व को देखनेवाला (अभवत्) = होता है । प्राणसाधना से बुद्धि तीव्र होती है और मनुष्य उत्तम विचारक व तत्त्वद्रष्टा बनता है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से क्रियाशीलता व ज्ञान में वृद्धि होती है । मनुष्य शरीर व मस्तिष्क दोनों का उत्तम निर्माण करता है और प्रकृति , जीव व परमात्मा तीनों का मनन करता है [त्रिमन्तु] । 
     

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    विषय

    द्विमाता तरणि, त्रिमन्तु विचक्षण का रहस्य ।

    भावार्थ

    ( परिज्मा ) सर्वत्र सब पदार्थों को अपने वेग से उथल पुथल और प्रेरित करने में समर्थ वायु ( तनयस्य ) अपने से उत्पन्न अग्नि के ( मज्मना ) बल से ( द्विमाता ) पृथिवी और आकाश दोनों को धारण करने वाला और ( तूर्षु ) अति वेगवान् पदार्थों में ( तरणिः ) सब से अधिक शीघ्रगामी ( विभूषति ) होकर रहता है। उसी प्रकार ( परिज्मा ) सब तरफ आक्रमण करने हारा दिग्विजयी पुरुष अपने ( तनयस्य ) राज्य प्रसारक सैन्य बल के ( मज्मना ) बल से ( द्विमाता ) राज-वर्ग और प्रजा वर्ग दोनों पर शासनकारी या ( द्विमाता ) माता पिता दोनों को आदर करने वाला और ( तूर्षु ) हिंसाकारी शत्रुओं पर ( तरणिः ) वेग से आक्रमण करने वाला या सूर्य के समान वेगवान् तेजस्वी होकर ( याभिः ) जिन नाना रक्षादि व्यवहारों से ( विभूषति ) विशेष शोभा को धारण करे । और ( याभिः ) जिन उत्तम उपायों से ( त्रिमन्तुः सन् ) कर्म, उपासना और विज्ञान इन तीनों की विद्या अर्थात् त्रैविद्या, वेदों को जानने वाला अथवा अरि, मित्र और उदासीन तीनों को अपने वश करने वाला, ( विचक्षणः ) विलक्षण, अतिचतुर, कुशल, विद्वान् ( अभवत् ) होता है अथवा जिनसे (त्रिमन्तुः) माता, पिता और गुरु का मान्यकर्त्ता पुरुष विद्वान् हो जाता है । ( ताभिः ऊतिभिः ) उनहीं उपायों सहित हे ( अश्विनौ ) अश्विगणों (आ गतम् ) आओ ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ द्वितीयस्य अग्निः शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, २, ६, ७, १३, १५, १७, १८, २०, २१, २२ निचृज्जगती । ४, ८, ९, ११, १२, १४, १६, २३ जगती । १९ विराड् जगती । ३, ५, २४ विराट् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् त्रिष्टुप् । २५ त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी प्राणाप्रमाणे प्रेम व संन्याशाप्रमाणे उपकार करून सर्वांसाठी विद्यावृद्धी करावी. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, complementary forces of natural evolution, teacher and scholar, human forces of social evolution, come with power and grace with those means and powers of protection and progress by which the all-round moving Vayu, wind energy, source of fire and water, blows and shines among the fast moving forces of nature with the light and grandeur of its extension, the fire, and by which the teacher and scholar shines in society by the merit of his disciple and power of his creative work, and by which the man of knowledge, action and prayer rises to the universal vision of existence.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Please come to us with those protective powers with which the circumambient wind endowed with the vigor and of its son (fire), the measurer of fire and water and swiftest of the swift, beautifies all things and by which the knower of Jnana, (knowledge) Karma (action) and Upasana (Communion) becomes a wonderful guide.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (परिज्मा) परितः सर्वतो गन्ता (वायु:) = Wind that goes in all directions. अत्र (त्रिमन्तु:) तिसृणं कर्मोपासनाज्ञानविद्यानां मन्तु:मन्ता । = Knower of the three-action, communion and knowledge.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should diffuse knowledge with love like the very life and with the benevolent spirit of the Sanyasis.

    Translator's Notes

    The word परिज्मा is from परि-अज गति क्षेपणयोः परिपूर्वकादज-गतिक्षेपण -योरित्यस्मात् श्व्न्नुक्षत्रित्यादौनिपात्यते The word is used also for a Sanyasi, who goes from place to place for preaching Dharma. Rishi Dayananda Sarasvati hints at this second meaning in his Bhavarth or purport saying मनुष्यै: सन्यासिवदुपकारकत्वेन सर्वेभ्यो विद्योन्नतिः सम्पादनीया ॥ Sayanacharya, Prof. Wilson and Griffith take सुमन्तु (Sumantu) to be the name of Kaksheevan. Sayanacharya interprets it is त्रयाणां मन्ता त्रिविधेषु पाकयज्ञ हविर्यज्ञ सोम यज्ञेष्वासादित ज्ञान: कक्षीवान् = Kakshevan who had acquired knowledge of three kinds of Yajnas which Griffith translates as the sapient one acquired his triple lore, explaining in the footnote. "Knowledge of sacrificial food, oblations of the clarified butter, and libations of Soma Juice. But he frankly adds" 'The meaning of the passage is uncertain.' Rishi Dayananda Sarasvati's interpretation of सुमन्तुः has been quoted above which is quite correct as तिसॄणां कर्मोपासना ज्ञानविद्यानां मन्तुमन्ता The knower of the Sciences of Karma, Upasana and Jnana as it is derived from मनु-अवगमे ।

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