ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 112/ मन्त्र 24
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ, द्वितीयस्य अग्निः, शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अप्न॑स्वतीमश्विना॒ वाच॑म॒स्मे कृ॒तं नो॑ दस्रा वृषणा मनी॒षाम्। अ॒द्यू॒त्येऽव॑से॒ नि ह्व॑ये वां वृ॒धे च॑ नो भवतं॒ वाज॑सातौ ॥
स्वर सहित पद पाठअप्न॑स्वतीम् । अ॒श्वि॒ना॒ । वाच॑म् । अ॒स्मे इति॑ । कृ॒तम् । नः॒ । द॒स्रा॒ । वृ॒ष॒णा॒ । म॒नी॒षाम् । अ॒द्यू॒त्ये॑ । अव॑से । नि । ह्व॒ये॒ । वा॒म् । वृ॒धे । च॒ । नः॒ । भ॒व॒त॒म् । वाज॑ऽसातौ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अप्नस्वतीमश्विना वाचमस्मे कृतं नो दस्रा वृषणा मनीषाम्। अद्यूत्येऽवसे नि ह्वये वां वृधे च नो भवतं वाजसातौ ॥
स्वर रहित पद पाठअप्नस्वतीम्। अश्विना। वाचम्। अस्मे इति। कृतम्। नः। दस्रा। वृषणा। मनीषाम्। अद्यूत्ये। अवसे। नि। ह्वये। वाम्। वृधे। च। नः। भवतम्। वाजऽसातौ ॥ १.११२.२४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 112; मन्त्र » 24
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 37; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 37; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अध्यापकोपदेशकाभ्यां किं कर्त्तव्यमित्याह ।
अन्वयः
हे दस्रा वृषणाऽश्विनाध्यापकोपदेशकौ युवामस्मेऽस्मभ्यमप्नस्वतीं वाचं कृतम्। अद्यूत्येनोऽवसे मनीषां कृतम्। वाजसातौ नोऽस्माकमन्येषां च वृधे सततं भवतम्। एतदर्थं वा युवामहं निह्वये ॥ २४ ॥
पदार्थः
(अप्नस्वतीम्) प्रशस्तापत्ययुक्ताम् (अश्विना) आप्तावध्यापकोपदेशकौ (वाचम्) वेदादिशास्त्रसंस्कृतां वाणीम् (अस्मे) अस्मासु (कृतम्) कुरुतम्। अत्र विकरणस्य लुक्। (नः) (अस्मभ्यम्) (दस्रा) दुःखोपक्षयितारौ (वृषणा) सुखाभिवर्षकौ (मनीषाम्) योगविज्ञानवतीम्बुद्धिम् (अद्यूत्ये) द्यूते भवो व्यवहारो द्यूत्यश्छलादिदूषितस्तद्भिन्ने (अवसे) रक्षणाद्याय (नि) नितराम् (ह्वये) आह्वानं कुर्वे (वाम्) युवाम् (वृधे) सर्वतो वर्धनाय (च) अन्येषां समुच्चये (नः) अस्माकम् (भवतम्) (वाजसातौ) युद्धादिव्यवहारे ॥ २४ ॥
भावार्थः
न खलु कश्चिदप्याप्तयोर्विदुषोः समागमेन विना पूर्णविद्यायुक्तां वाचं प्रज्ञां च प्राप्तुमर्हति नह्येते अन्तरा शत्रुजयमभितो वृद्धिं च ॥ २४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अध्यापक और उपदेशकों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (दस्रा) सबके दुःखनिवारक (वृषणा) सुखको वर्षानेहारे (अश्विना) अध्यापक उपदेशक लोगो ! तुम दोनों (अस्मे) हममें (अप्नस्वतीम्) बहुत पुत्र-पौत्र करनेहारी (वाचम्) वाणी को (कृतम्) कीजिये (अद्यूत्ये) छलादि दोषरहित व्यवहार में (नः) हमारी (अवसे) रक्षादि के लिये (मनीषाम्) योग विज्ञानवाली बुद्धि को कीजिये (वाजसातौ) युद्धादि व्यवहार में (नः) हमारी (च) और अन्य लोगों की (वृधे) वृद्धि के लिये निरन्तर (भवतम्) उद्यत हूजिये, इसी के लिये (वाम्) तुम दोनों को मैं (निह्वये) नित्य बुलाता हूँ ॥ २४ ॥
भावार्थ
कोई भी पुरुष आप्त विद्वानों के समागम के विना पूर्ण विद्यायुक्त वाणी और बुद्धि को प्राप्त नहीं हो सकता, न इन दोनों के विना शत्रुओं का जय और सब ओर से बढ़ती को प्राप्त हो सकता है ॥ २४ ॥
विषय
अप्नस्वती वाणी
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (अस्मे) = हमारी (वाचम्) = वाणी को (अप्नस्वतीम्) = प्रशस्त कर्मोंवाला (कृतम्) = कीजिए । हम वाग्वीर ही न बने रहें , जो कुछ बोलें उसके अनुसार कर्म करनेवाले हों ।
२. हे (दत्रा) = सब दुः खों का उपक्षय करनेवाले तथा (वृषणा) = सुखों का वर्षण करनेवाले प्राणापानो ! आप (नः) = हमारी (मनीषाम्) = बुद्धि व विचारशक्ति को (कृतम्) = अतिपरिष्कृत बना दीजिए । हमारी बुद्धि ठीक विचार ही देनेवाली हो । बुद्धि के ठीक होने पर विचारों की उत्तमता से हमारे दुःख दूर होते हैं और सुखों की वृद्धि होती है ।
३. हे प्राणापानो ! मैं (वाम्) = आपको (अद्यूत्ये) = जो , [द्यूत] जूए से नहीं कमाया गया उस (अवसे) = [अवस् - wealth] धन के लिए (निह्वये) = निश्चय से पुकारता हूँ । प्राणसाधना करनेवाला श्रम से ही धनार्जन को ठीक समझता है , वह द्यूतवृत्ति से धन को कभी नहीं कमाता और
४. यह प्रार्थना करता है कि हे प्राणापानो ! आप (वाजसातौ) = शक्ति प्राप्ति के निमित्त अथवा इस जीवन - संग्राम में (नः) = हमारे (वृधे) = वर्धन के लिए (भवतम्) = होओ । प्राणसाधना के द्वारा शक्ति की ऊर्ध्वगति होने पर हम शक्ति - सम्पन्न बनते हैं और संसार - संग्राम में सदा विजयी होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से हम [क] वाणी के अनुसार कर्म करनेवाले होते हैं , [ख] हमारी बुद्धि परिष्कृत होती है , [ग] हमें श्रम से धनार्जन रुचिकर होता है , [घ] संसार - संग्राम में हम विजयी बनते हैं ।
विषय
missing
भावार्थ
हे ( अश्विना ) विद्वान् स्त्री पुरुषो! या दो मुख्य पुरुषो ! सभा सेनाध्यक्षो ! आप दोनों (अस्मे) हमारे हित के लिये ( अप्नस्वतीम् वाचम् ) उत्तम कर्म या क्रियायोग का उपदेश करने वाली वाणी का (कृतम्) उपदेश करो । हे ( दस्रा ) दुःखों, दुष्ट पुरुषों और शत्रु का विनाश करने हारे मुख्य पुरुषो ! हे ( वृषणा ) सुखों का वर्षण करने वाले, और बलवान् पुरुषो ! आप दोनों हमारे हित के लिये ( अप्नस्वतीम् मनीषाम् ) उत्तम कर्मों का उपदेश करनेवाली बुद्धि या मानस शक्ति या प्रेरणा को करो । ( वां ) तुम दोनों को मैं ( अद्यूत्ये ) प्रकाशरहित अन्धकारमय मार्ग में ( अवसे ) प्रकाश करने के लिये और ( अद्यूत्ये अवसे ) द्यूत आदि छल कपट के व्यवहार से रहित धर्ममार्ग में गमन कराने के लिये ( नि ह्वये ) नित्य बुलाता हूं । और ( नः ) हमें ( वाजसातौ वृधे च ) ज्ञान, ऐश्वर्य प्राप्ति और संग्राम के विजय कार्य में वृद्धि करने के लिये ( भवतम् ) होवो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ द्वितीयस्य अग्निः शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, २, ६, ७, १३, १५, १७, १८, २०, २१, २२ निचृज्जगती । ४, ८, ९, ११, १२, १४, १६, २३ जगती । १९ विराड् जगती । ३, ५, २४ विराट् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् त्रिष्टुप् । २५ त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
कोणताही माणूस आप्त विद्वानांच्या संगतीशिवाय पूर्ण विद्यायुक्त वाणी व बुद्धी प्राप्त करू शकत नाही. या दोन्हीशिवाय शत्रूंवर विजय व सर्व प्रकारे वाढ होऊ शकत नाही. ॥ २४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, complementary divinities of nature and powers of humanity, generous harbingers of showers of strength and prosperity, give us the holy voice which is creative and effective. Give us the intelligence and wisdom for reflection, imagination and planning. I invoke you for protection and advancement in the sure, clear and honest business of life for light and progress. We take no chances, nor gamble with life, be kind and gracious, lords, be favourable to grant us growth and prosperity in food, energy, success and advancement.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Ashvins (Absolutely teachers and preachers) who are destroyers of all miseries and showerers of happiness, please endow us with cultured speech refined by the Vedic knowledge and noble progeny. In a dealing free from deceit, endow us with an intellect full of the knowledge of Yoga for our preservation. We invoke you both, in the battle with evil propensities and wicked persons for our harmonious development and for the growth of others' prosperity.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अप्नस्वतीम् ) प्रशस्तापत्ययुक्ताम् = Accompanied by noble progeny. (अद्यूत्ये) द्यूतभवो व्यवहारो द्यूत्यः छलादि दूषितस्तद् भिन्ने = In a dealing free from deceit as in gambling. (वाजसातौ) युद्धादिव्यवहारे = In battle and other dealings.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
None can obtain speech endowed with full wisdom and intellect without the association of absolutely truthful scholars, nor can one achieve victory over his foes and development of all kind with out such association.
Translator's Notes
अप्न इत्यपत्यनाम (नि० २१.१) Rishi Dayananda has taken this meaning of progeny. Shri Kapali Shastri while quoting Sayanacharya's meaning of अद्यूत्ये द्योतनरहिते प्रकाशन रहिते रात्रे:पश्चिमेयामे does not agree with it and interprets it as दुयूतरहिते साधुवृशे कर्मणि = in a noble act free from gambling etc. which is akin to Rishi Dayananda Sarasvati's interpretation as quoted above.
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