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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 112 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 112/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ, द्वितीयस्य अग्निः, शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    यु॒वोर्दा॒नाय॑ सु॒भरा॑ अस॒श्चतो॒ रथ॒मा त॑स्थुर्वच॒सं न मन्त॑वे। याभि॒र्धियोऽव॑थ॒: कर्म॑न्नि॒ष्टये॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वोः । दा॒नाय॑ । सु॒ऽभराः॑ । अ॒स॒श्चतः॑ । रथ॑म् । आ । त॒स्थुः॒ । व॒च॒सम् । न । मन्त॑वे । याभिः॑ । धियः॑ । अव॑थः । कर्म॑न् । इ॒ष्टये॑ । ताभिः॑ । ऊँ॒ इति॑ । सु । ऊ॒तिऽभिः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । आ । ग॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवोर्दानाय सुभरा असश्चतो रथमा तस्थुर्वचसं न मन्तवे। याभिर्धियोऽवथ: कर्मन्निष्टये ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवोः। दानाय। सुऽभराः। असश्चतः। रथम्। आ। तस्थुः। वचसम्। न। मन्तवे। याभिः। धियः। अवथः। कर्मन्। इष्टये। ताभिः। ऊँ इति। सु। ऊतिऽभिः। अश्विना। आ। गतम् ॥ १.११२.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 112; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 33; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाध्यापकोपदेशकविषयमाह ।

    अन्वयः

    हे अश्विना सुभरा असश्चतो जना मन्तवे वचसं न युवोर्यं रथमातस्थुस्ते नो याभिर्धियः कर्मन्निष्टयेऽवथस्ताभिरूतिभिश्च युवां दानाय स्वागतमस्मान् प्रतिश्रेष्ठतयाऽऽगच्छतम् ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (युवोः) युवयोः (दानाय) सुखवितरणाय (सुभराः) ये सुष्ठु भरन्ति पुष्णन्ति वा (असश्चतः) असमवेताः (रथम्) रमणसाधनं यानम् (आ) (तस्थुः) तिष्ठन्ति (वचसम्) सर्वैः स्तुत्या परिभाषितं मनुष्यम् (न) इव (मन्तवे) विज्ञातुम् (याभिः) (धियः) प्रज्ञाः (अवथः) रक्षथः (कर्मन्) कर्मणि (इष्टये) इष्टसुखाय (ताभिः) (उ) (सु) (ऊतिभिः) (अश्विना) विद्यादिदातारावध्यापकोपदेशकौ (आ) समन्तात् (गतम्) प्राप्नुतम् ॥ २ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ये युष्मान् प्रज्ञां प्रापयेयुस्तान् सर्वथा सुरक्षय। यथा भवन्तो तेषां सेवनं कुर्युस्तथैव तेऽपि युष्मान् शुभां विद्यां बोधयेयुः ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब पढ़ाने और उपदेश करनेवालों के विषय में अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अश्विना) पढ़ाने और उपदेश करानेहारे विद्वानो ! (सुभराः) जो अच्छे प्रकार धारण वा पोषण करते कि जो अति आनन्द के सिद्ध करानेहारे हैं, वा (असश्चतः) जो किसी बुरे कर्म और कुसङ्ग में नहीं मिलते वे सज्जन (मन्तवे) विशेष ज्ञानने के लिये जैसे (वचसं, न) सबने प्रशंसा के साथ विख्यात किये हुए अत्यन्त बुद्धिमान् विद्वान् जन को प्राप्त होवें वैसे (युवोः) आप लोगों के (रथम्) जिस विमान आदि यान को (आ, तस्थुः) अच्छे प्रकार प्राप्त होकर स्थिर होते हैं उसके साथ (उ) और (याभिः) जिनसे (धियः) उत्तम बुद्धियों को (कर्मन्) काम के बीच (इष्टये) हुए सुख के लिये (अवथः) राखते हैं (ताभिः) उन (ऊतिभिः) रक्षाओं के साथ तुम (दानाय) सुख देने के लिये हम लोगों के प्रति (सु, आ, गतम्) अच्छे प्रकार आओ ॥ २ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो तुमको उत्तम बुद्धि की प्राप्ति करावें उनकी सब प्रकार से रक्षा करो, जैसे आप लोग उनका सेवन करें वैसे ही वे लोग भी तुमको शुभ विद्या का बोध कराया करें ॥ २ ॥

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    विषय

    इष्ट स्थान पर पहुँचना

    पदार्थ

    १. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (युवोः) = आपके (दानाय) = नीरोगता , निर्मलता व बुद्धि की तीव्रता - रूप दानों की प्राप्ति के लिए (सुभराः) = उत्तमता से अपना पालन - पोषण करनेवाले लोग (असश्चतः) = संसार के विषयों में आसक्त न होते हुए (रथम् आतस्थुः) = इस शरीररूपी रथ पर आरूढ़ होते हैं , शरीर के अधिष्ठाता बनते हैं । इसको अपने वश में रखते हुए ये प्राणसाधना के द्वारा सब उत्तमताओं को प्राप्त करते हैं । ये शरीररूप रथ पर उसी प्रकार अधिष्ठित होते हैं (न) = जैसे कि (मन्तवे) = ज्ञान - प्राप्ति के लिए (वचसम्) = न्याय्य - ज्ञानवचनों से युक्त विद्वान् को प्राप्त होते हैं । वस्तुतः ये शरीर व मस्तिष्क दोनों का भरण करते हैं । प्राणसाधना यदि मुख्यरूप से इनके शरीर को नीरोग बनानेवाली होती है तो ज्ञानियों का सम्पर्क इनकी ज्ञानवृद्धि का कारण बनता है । 

    २. हे प्राणापानो ! (ताभिः ऊतिभिः) = उन रक्षणों से (उ) = निश्चयपूर्वक (सु - आगतम्) = हमें उत्तमता से प्राप्त होओ । (याभिः) = जिनसे (धियः) = ज्ञानी पुरुषों को (कर्मन्) = कर्मों में (इष्टये) = इष्ट - प्राप्ति के लिए (अवथः) = आप रक्षित करते हो । प्राणसाधना से ज्ञान का विकास तो होता ही है , ये ज्ञानी पुरुष सदा कर्मों में प्रवृत्त रहते हैं और इष्ट - प्राप्ति के लिए समर्थ होते हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना का पूरा लाभ तभी होता है जब हम शरीर आदि के उत्तम भरण का ध्यान करें और विषयों में आसक्त न हों । यह प्राणसाधना हमें ज्ञानी व कर्मनिष्ठ बनाएगी । यह ज्ञान और कर्मनिष्ठता हमें इष्ट स्थान पर पहुंचाते हैं । 
     

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    विषय

    असू धेनु का रहस्य।

    भावार्थ

    ( सुभराः ) उत्तम रीति से ज्ञान को धारण करने हारे ( अस श्वतः ) विषय भोगादि से आसक्त न होने वाले त्यागी पुरुष ( मन्तवे ) ज्ञान प्राप्त करने के लिये ( वचसं न ) जिस प्रकार ज्ञान के उत्तम प्रवक्ता के पास ( आतस्थुः ) उपस्थित होते हैं उसी प्रकार ( सुभराः ) उत्तम रीति से युद्ध करने वाले या उत्तम ऐश्वर्यों को धारण करने वाले ( असश्चतः ) कहीं भी आश्रय न पाते हुए प्रजाजन ( दानाय ) शत्रुओं के नाश करने और ऐश्वर्य के दान लेने के लिये ( युवोः ) तुम दोनों के ( रथम् ) विजय शील रथ-बल पर अथवा ( युवोः रथम् ) आप दोनों के स्थायी राज्य शासन पर ( आतस्थुः ) आश्रय करते, स्थिरता प्राप्त करते हैं। उस समय है ( अश्विना ) राष्ट्र के भोक्ता दो मुख्य अधिकारियो, राजा अमात्य, राजा रानी, राजा सेनापति आदि युगल पुरुषो ! आप दोनों ( याभिः ) जिन रक्षा आदि उपायों से ( इष्टये कर्मन् ) परस्पर की संगति के कार्य में ( धियः अवयः ) धारण करने योग्य प्रजाओं की रक्षा करते हो ( ताभिःअतिभिः ) उन ही उपायों से ( सु आ गतम् उ ) आप दोनों हमें सुख पूर्वक प्रसन्नता से आओ ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ द्वितीयस्य अग्निः शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, २, ६, ७, १३, १५, १७, १८, २०, २१, २२ निचृज्जगती । ४, ८, ९, ११, १२, १४, १६, २३ जगती । १९ विराड् जगती । ३, ५, २४ विराट् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् त्रिष्टुप् । २५ त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जे तुम्हाला उत्तम बुद्धीची प्राप्ती करवितात त्यांचे सर्व प्रकारे रक्षण करा. जसा तुम्ही त्यांचा अंगीकार करता तसे त्यांनीही तुम्हाला चांगल्या विद्येचा बोध करावा. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, teachers and scholars, complementary harbingers of natural wealth, just as creators and producers of food and energy, avoiding idlers and wastours, come to the man of knowledge for advice, so they come to your chariot to sit in for the gift of desired achievement in action. Come forth with those means of safety and success by which you protect and promote intellectuals and researchers for progress.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the teachers and the preachers are taught in the 2nd Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O teachers and preachers who are givers of knowledge, persons who uphold and sustain people well, who are free from evils and are earnest, sit with you in your Car and listen to you attentively, as disciples listen to the words of an admirable teacher for instruction. Please come to us gracefully for giving us delight with all your protections, with which you preserve intellect in every noble deed.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अश्विना) विद्यादातारौ अध्यापकोपदेशकौ = Teachers and preachers who are givers of knowledge. (असश्चतः) असमेता दुर्व्यसनेभ्यः = Free from all vices.

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