ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 112/ मन्त्र 11
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ, द्वितीयस्य अग्निः, शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
याभि॑: सुदानू औशि॒जाय॑ व॒णिजे॑ दी॒र्घश्र॑वसे॒ मधु॒ कोशो॒ अक्ष॑रत्। क॒क्षीव॑न्तं स्तो॒तारं॒ याभि॒राव॑तं॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम् ॥
स्वर सहित पद पाठयाभिः॑ । सु॒दा॒नू॒ इति॑ सुऽदानू । औ॒शि॒जाय॑ । व॒णिजे॑ । दी॒र्घऽश्र॑वसे । मधु॑ । कोशः॑ । अक्ष॑रत् । क॒क्षीऽव॑न्तम् । स्तो॒तार॑म् । याभिः॑ । आव॑तम् । ताभिः॑ । ऊँ॒ इति॑ । सु । ऊ॒तिऽभिः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । आ । ग॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
याभि: सुदानू औशिजाय वणिजे दीर्घश्रवसे मधु कोशो अक्षरत्। कक्षीवन्तं स्तोतारं याभिरावतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥
स्वर रहित पद पाठयाभिः। सुदानू इति सुऽदानू। औशिजाय। वणिजे। दीर्घऽश्रवसे। मधु। कोशः। अक्षरत्। कक्षीऽवन्तम्। स्तोतारम्। याभिः। आवतम्। ताभिः। ऊँ इति। सु। ऊतिऽभिः। अश्विना। आ। गतम् ॥ १.११२.११
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 112; मन्त्र » 11
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 35; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 35; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तौ कस्मै किं कुर्य्यातामित्याह ।
अन्वयः
हे सुदानू अश्विना याभिरूतिभिर्दीर्घश्रवसे वणिज औशिजाय कोशो मध्वक्षरद् याभिर्वा युवां कक्षीवन्तं स्तोतारमावतं ताभिरु ऊतिभिरस्मान् रक्षितुं स्वागतम् ॥ ११ ॥
पदार्थः
(याभिः) (सुदानू) सुष्ठुदानकर्त्तारौ (औशिजाय) मेधाविपुत्राय। उशिज इति मेधाविना०। निघं० ३। १५। (वणिजे) व्यवहर्त्तुं शीलाय (दीर्घश्रवसे) दीर्घाणि महान्ति श्रवांसि विद्यादीन्यन्नानि धनानि वा यस्य तस्मै। श्रव इत्यन्नना०। निघं० २। ७। धननामसु च। २। १०। (मधु) मधुरं जलम् (कोशः) मेघः। कोश इति मेघना०। निघं० १। १०। (अक्षरत्) क्षरति (कक्षीवन्तम्) प्रशस्ताः कक्षाः सहाया विद्यन्ते यस्य तम् (स्तोतारम्) विद्यागुणस्तावकम् (याभिः) अन्यत्पूर्ववत् ॥ ११ ॥
भावार्थः
राजपुरुषाणां योग्यमस्ति ये द्वीपद्वीपान्तरे वा देशदेशान्तरे व्यापारकरणाय गच्छेयुरागच्छेयुश्च तेषां रक्षा प्रयत्नेन विधेया ॥ ११ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे दोनों किसके लिये क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (सुदानू) अच्छे प्रकार दान करनेवाले (अश्विना) अध्यापक और उपदेशक विद्वानो ! (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षाओं से (दीर्घश्रवसे) जिसके बड़े-बड़े विद्यादि पदार्थ, अन्न और धन विद्यमान उस (वणिजे) व्यवहार करनेवाले (औशिजाय) उत्तम बुद्धिमान् के पुत्र के लिये (कोशः) मेघ (मधु) मधुर गुणयुक्त जल को (अक्षरत्) वर्षता वा तुम (याभिः) जिन रक्षाओं से (कक्षीवन्तम्) उत्तम सहाय से युक्त (स्तोतारम्) विद्या के गुणों की प्रशंसा करनेवाले जन की (आवतम्) रक्षा करो (ताभिरु) उन्हीं रक्षाओं से सहित हमारी रक्षा करने को (स्वागतम्) अच्छे प्रकार शीघ्र आया कीजिये ॥ ११ ॥
भावार्थ
राजपुरुषों को योग्य है कि जो द्वीप-द्वीपान्तर और देश-देशान्तर में व्यापार करने के लिये जावें-आवें, उनकी रक्षा प्रयत्न से किया करें ॥ ११ ॥
विषय
मधुकोश - क्षरण
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! आप (ताभिः ऊतिभिः) = उन रक्षणों से (उ) = निश्चयपूर्वक (सु) = उत्तमता से हमें (आगतम्) = प्राप्त होओ (याभिः) = जिनसे आप (औशिजाय) = धन कामनावाले और धनप्राप्ति के लिए पूर्ण प्रयत्न करनेवाले [Desiring , striving earnestly] (वणिजे) = व्यापारी के लिए (सुदानू) = उत्तम धनों को देनेवाले हो । प्राणसाधना से मनुष्य की चित्तवृत्ति उत्तम बनती है और वह न्यायमार्ग से ही धन कमाता है ।
२. हमें उन रक्षणों को प्राप्त कराओ जिनसे (दीर्घश्रवसे) = अत्यन्त प्रवृद्ध ज्ञानवाले के लिए (मधुकोशः) = मधु - विद्या [ब्रह्मविद्या] का कोश (अक्षरत्) = टपकता है । प्राणसाधना से बुद्धि तीव्र होकर उस परा - विद्या को ग्रहण करती है जिससे कि अक्षर ब्रह्म का ज्ञान होता है ।
३. हे प्राणापानो ! हमें उन रक्षणों के साथ प्राप्त होओ (याभिः) = जिन रक्षणों से आप (कक्षीवन्तम्) = बद्धकक्ष्य - कटिबद्ध , दृढनिश्चयी (स्तोतारम्) = स्तोता को (आवतम्) = रक्षित करते हो । दृढनिश्चयी स्तोता प्रभुदर्शन के बिना रुकता नहीं । वह दीर्घकाल तक , निरन्तर , आदरपूर्वक प्रभु का स्तवन करता है । प्राणसाधना के अभाव में मनुष्य निर्विण्ण होकर उपासना को बीच में ही छोड़ देता है । प्राणसाधना ही इसे (कक्षीवान्) = दृढनिश्चयी बनाती है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से हम [क] उत्तम मार्ग से धन कमानेवाले बनते हैं , [ख] परा विद्या को प्राप्त करते हैं और [ग] दृढनिश्चयी स्तोता बनते हैं ।
विषय
मधुकोश का रहस्य ।
भावार्थ
हे ( सुदानू ) उत्तम रीति से देने हारे विद्वान् शिल्पियो ! ( याभिः ) जिन उपायों और साधनों से ( औशिजाय ) विद्वान् पुरुष के सन्तानों के लिये, ( वणिजे ) व्यवहारशील वैश्य प्रजावर्ग के लिये और ( दीर्घ-श्रवसे ) दीर्घ काल तक गुरुओं से उपदेश श्रवण करने वाले अथवा बहुत अधिक ज्ञान, धनादि के स्वामी के हित के लिये ( कोशः ) मेघ के समान राजा और विद्वान् गुरु का धन और ज्ञान का अक्षय कोश ( मधु ) मधुर जल के समान ज्ञान और सुख का ( क्षरति ) वर्षण करता है । और ( याभिः ) जिन साधनों सहित आप दोनों ( कक्षीवन्तं स्तोतारं ) सर्व सहायकों से युक्त विद्वान् पुरुष को प्राप्त हैं उनही सहित हमें भी प्राप्त होइये ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ द्वितीयस्य अग्निः शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, २, ६, ७, १३, १५, १७, १८, २०, २१, २२ निचृज्जगती । ४, ८, ९, ११, १२, १४, १६, २३ जगती । १९ विराड् जगती । ३, ५, २४ विराट् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् त्रिष्टुप् । २५ त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे द्वीपद्वीपांतरी व देशदेशांतरी व्यापार करण्यासाठी जातात-येतात. त्यांचे रक्षण राजपुरुषांनी प्रयत्नपूर्वक करावे. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, generous and highly creative scholars and leaders of humanity, come with all those acts and policies by which you open the treasure secrets of the wealth of nature and humanity and let flow the streams of water and honey for the children of the learned, the man of commerce and industry, and the masters of knowledge and wide wealth, and by which you protect and promote the devotees of the nation and national prestige who command the loyalty of their supporters. Come soon and come with grace.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should they ( Ashvinau ) do is taught in the 11th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O President of the Assembly and commander of the Army of charitable disposition, please come to us willingly with those protective powers by which the cloud pours out sweet water for a very learned trader, the son of a highly intelligent person and by which you protect an admirer of wisdom who has noble companions.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(औशिजाय) मेधाविपुत्राय उशिज इति मेधाविनाम (नि० ३.१५ ) = The son of a highly intelligent person. (दीर्घश्रवसे) दीर्घारिण महान्ति श्रवांसि विद्यादीन्यन्नानि धनानि वा यस्य तस्मै श्रव इत्यन्त्रनाम (निघ० २.७) धननाम (निघ० २.१० ) = A man possessing great wealth or food of knowledge etc. (कोश:) मेघ: कोश इति मेघनाम (निघ० १.१०) = Cloud. (कक्षीवन्तम) प्रशस्ताः कक्षाः सहाया विद्यन्ते यस्य तम् = Having noble companions.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of the officers of the State to provide special protection for those traders who go to distant countries for carrying on business.
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