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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 112 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 112/ मन्त्र 21
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ, द्वितीयस्य अग्निः, शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    याभि॑: कृ॒शानु॒मस॑ने दुव॒स्यथो॑ ज॒वे याभि॒र्यूनो॒ अर्व॑न्त॒माव॑तम्। मधु॑ प्रि॒यं भ॑रथो॒ यत्स॒रड्भ्य॒स्ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याभिः॑ । कृ॒शानु॑म् । अस॑ने । दु॒व॒स्यथः॑ । ज॒वे । याभिः॑ । यूनः॑ । अर्व॑न्तम् । आव॑तम् । मधु॑ । प्रि॒यम् । भ॒र॒थः॒ । यत् । स॒रट्ऽभ्यः॑ । ताभिः॑ । ऊँ॒ इति॑ । सु । ऊ॒तिऽभिः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । आ । ग॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    याभि: कृशानुमसने दुवस्यथो जवे याभिर्यूनो अर्वन्तमावतम्। मधु प्रियं भरथो यत्सरड्भ्यस्ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याभिः। कृशानुम्। असने। दुवस्यथः। जवे। याभिः। यूनः। अर्वन्तम्। आवतम्। मधु। प्रियम्। भरथः। यत्। सरट्ऽभ्यः। ताभिः। ऊँ इति। सु। ऊतिऽभिः। अश्विना। आ। गतम् ॥ १.११२.२१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 112; मन्त्र » 21
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 37; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तैः किं किं कार्य्यमित्याह ।

    अन्वयः

    हे अश्विना सभासेनेशौ युवां याभिरूतिभिरसने कृशानुं दुवस्यथः। याभिर्जवे यूनोऽर्वन्तं चावतमु सरड्भ्यो यत् प्रियं तन् मधु च भरथस्ताभी राष्ट्रपालनाय स्वागतम् ॥ २१ ॥

    पदार्थः

    (याभिः) (कृशानुम्) कृषम् (असने) क्षेपणे (दुवस्यथः) परिचरतम् (जवे) वेगे (याभिः) (यूनः) यौवनस्थान् वीरान् (अर्वन्तम्) वाजिनम् (आवतम्) पालयतम् (मधु) मिष्टमन्नादिकम् (प्रियम्) (भरथः) धरतम् (यत्) (सरड्भ्यः) युद्धे विजयकर्तृसेनाजनादिभ्यः (ताभिः) इति पूर्ववत् ॥ २१ ॥

    भावार्थः

    राजपुरुषाणां योग्यमस्ति दुःखैः कृशितान् प्राणिनो यौवनावस्थान् व्यभिचारात्पालयेयुः अश्वादिसेनाङ्गरक्षार्थं सर्वं प्रियं वस्तु संभरन्तु प्रतिक्षणं समीक्षया सर्वान् वर्धयेयुः ॥ २१ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उन लोगों को क्या-क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अश्विना) सभा और सेना के अधीशो ! तुम दोनों (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षादि क्रियाओं से (असने) फेंकने में (कृशानम्) दुर्बल की (दुवस्यथः) सेवा करो, वा (याभिः) जिन रक्षाओं से (जवे) वेग में (यूनः) युवावस्थायुक्त वीरों (अर्वन्तम्) और घोड़े की (आवतम्) रक्षा करो (उ) और (सरड्भ्यः) युद्ध में विजय करनेवाले सेनादि जनों से (यत्) जो (प्रियम्) कामना के योग्य है उस मधु मीठे अन्न आदि पदार्थ को (भरथः) धारण करो, (ताभिः) उन रक्षाओं से युक्त होकर राज्यपालन के लिये (सु, आ, गतम्) अच्छे प्रकार आया कीजिये ॥ २१ ॥

    भावार्थ

    राजपुरुषों को योग्य है कि दुःखों से पीड़ित प्राणियों और युवावस्थावाले स्त्री-पुरुषों की व्यभिचार से रक्षा करें और घोड़े आदि सेना के अङ्गों की रक्षा के लिये सब प्रिय वस्तु को धारण करें, प्रतिक्षण सम्हाल से सबको बढ़ाया करें ॥ २१ ॥

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    विषय

    शान्त यौवन

    पदार्थ

    १. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (ताभिः ऊतिभिः) = उन रक्षणों से (उ) = निश्चयपूर्वक (सु) = उत्तमता से (आगतम्) = हमें प्राप्त होओ , (याभिः) = जिनसे (असने) = शत्रुओं को दूर फेंकने में [अस् क्षेपणे] (कृशानुम्) = अग्नि की भाँति अवाञ्छनीय वस्तुओं को दग्ध करनवाले को (दुवस्यथः) = आप सेवित करते हो । प्राणसाधना से मनुष्य को शक्ति प्राप्त होती है । वह कृश से कृशानु बन जाता है दुर्बल से अग्नि की भाँति बलवान् । अग्नि बनकर यह अवाञ्छनीय वासनाओं का दहन कर देता है । 

    २. हमें उन रक्षणों से प्राप्त होओ , (याभिः) = जिनसे (जवे) = वेग में , इधर - उधर भटकने में , प्रबल वेग से विषयों की और जाने में (यूनः) = युवक के (अर्वन्तम्) = इन्द्रियाश्व को (आवतम्) = रक्षित करते हो । इन्द्रियाँ विषयों की ओर जाती हैं - बड़े प्रबल वेग से वे विषयों की ओर आकृष्ट होती हैं । विशेषतः युवक के जीवन में इन इन्द्रियों में सदा उबाल आया रहता है । प्राणसाधना इन इन्द्रियों का रक्षण करती है और उनकी विषयाभिरुचि को न्यून करती है । 

    ३. हमें उन रक्षणों से प्राप्त होओ जिनसे (सरड्भ्यः) = मधुमक्षिकाओं के लिए (यत् मधु) = जो शहद (प्रियम्) = अत्यन्त प्रीणित करनेवाला व कान्त है , उस मधु को (भरथः) = आप पोषित करते हो । प्राणापान की शक्ति से ही मक्षिकाएँ मधु का सम्पादन कर पाती हैं । मक्खियाँ ही क्या , सब पशु - पक्षी प्राणापान के द्वारा ही उस - उस वस्तु का निर्माण करते हैं । गौएँ भी दूध का निर्माण इस प्राणशक्ति के आधार पर ही कर पाती हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से अग्नि की भाँति तेजस्वी बनकर हम वासनाओं को दग्ध करते हैं । इसी से हम यौवन के अशान्त जीवन को शान्त बनाते हैं । इसी से हम उस - उस निर्माणात्मक कार्य को कर पाते हैं । 
     

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    विषय

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    भावार्थ

    ( याभिः ) जिन ( ऊतिभिः ) रक्षा साधनों, ज्ञानपूर्वक उपायों और नीतियों से आप दोनों ( कृशानुम् ) अग्नि के समान तेजस्वी तथा शत्रु पक्ष को कृश, दुर्बल करने वाले सेनापति पुरुष की ( असने ) शत्रुओं को उखाड़ फेंकने के संग्राम आदि कार्य में ( दुवस्यथः ) परिचर्या करते हो, उसके अधीन रह कर उसकी आज्ञा पालन करते हो और (जवे) वेग के संग्राम और शीघ्र गमन आदि कार्य में ( याभिः ) जिन उपायों से ( यूनः ) जवान पुरुषों और ( अर्वन्तम् ) वेगवान् अश्वों और अश्वारोही सेनादल की ( आवतम् ) रक्षा करते हो और ( यत् ) जिन उपायों से ( सरड्भ्यः) वेग से आगे बढ़ने वाले वीरों को ( सरड्भ्यः मधु ) मधु मक्षिकाओं को मधु के समान उनको स्थिर रूप से बांधे रखने वाले ( प्रियं मधु ) प्रिय अन्न ( भरथः ) प्रदान करते हो ( ताभिः ) उन उपायों सहित ( आगतम् ) हमें प्राप्त होवो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ द्वितीयस्य अग्निः शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, २, ६, ७, १३, १५, १७, १८, २०, २१, २२ निचृज्जगती । ४, ८, ९, ११, १२, १४, १६, २३ जगती । १९ विराड् जगती । ३, ५, २४ विराट् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् त्रिष्टुप् । २५ त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजपुरुषांनी दुःखाने त्रस्त झालेल्या प्राण्यांचे व युवावस्थेतील स्त्री पुरुषांचे व्यभिचारापासून रक्षण करावे व घोडे इत्यादी सेनेतील अंगांचे रक्षण करण्यासाठी सर्व प्रिय वस्तू अन्न वगैरे धारण करून प्रत्येक क्षणी सांभाळून सर्वांची वृद्धी करावी. ॥ २१ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, rulers and commanders, come with those protections by which you protect the archer in battle, by which you protect the young rider and the horse in the race, by which you bear and bring the favourite honey for the bees. Come with all these and bless us.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should they do is taught in the 21st Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O President of the Assembly and Commander of the Army, Please come to us willingly with those protective aids for the preservation of the State by which you serve a weak person in the act of throwing away diseases and distress, by which you protect in an act of speedy movement the youthful brave persons and their horses and by which you provide for the soldiers of the victorious armies delicious honey and other good food.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (कृशानुम् ) कृशम् = Weak. (सरङभ्यः ) युद्धे विजयकर्तृ सेनाजनादिभ्यः = For the persons of the victorious army.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of the State to protect the weak from the distress and young men from debauchery and other evil acts. They should provide all good articles for the horses and other ingredients of the army. They should inspect them well and make them to grow properly.

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