ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 112/ मन्त्र 20
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ, द्वितीयस्य अग्निः, शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
याभि॒: शंता॑ती॒ भव॑थो ददा॒शुषे॑ भु॒ज्युं याभि॒रव॑थो॒ याभि॒रध्रि॑गुम्। ओ॒म्याव॑तीं सु॒भरा॑मृत॒स्तुभं॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम् ॥
स्वर सहित पद पाठयाभिः॑ । शन्ता॑ती॒ इति॒ शम्ऽता॑ती । भव॑थः । द॒दा॒शुषे॑ । भु॒ज्युम् । याभिः॑ । अव॑थः । याभिः॑ । अध्रि॑ऽगुम् । ओ॒म्याऽव॑तीम् । सु॒ऽभरा॑म् । ऋ॒त॒ऽस्तुभ॑म् । ताभिः॑ । ऊँ॒ इति॑ । सु । ऊ॒तिऽभिः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । आ । ग॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
याभि: शंताती भवथो ददाशुषे भुज्युं याभिरवथो याभिरध्रिगुम्। ओम्यावतीं सुभरामृतस्तुभं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥
स्वर रहित पद पाठयाभिः। शन्ताती इति शम्ऽताती। भवथः। ददाशुषे। भुज्युम्। याभिः। अवथः। याभिः। अध्रिऽगुम्। ओम्याऽवतीम्। सुऽभराम्। ऋतऽस्तुभम्। ताभिः। ऊँ इति। सु। ऊतिऽभिः। अश्विना। आ। गतम् ॥ १.११२.२०
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 112; मन्त्र » 20
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 36; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 36; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सभाध्यक्षादिराजपुरुषैः कथं भवितव्यमित्याह ।
अन्वयः
हे अश्विना सभासेनेशौ युवां ददाशुषे याभिरूतिभिः शन्ताती भवथो भवतं याभिर्भुज्युमवथोऽवतं याभिरध्रिगुमोम्यावतीमृतस्तुभं सुभरां नीतिमवथोऽवतं ताभिरु ऊतिभिः सत्यं स्वागतम् ॥ २० ॥
पदार्थः
(याभिः) (शन्ताती) शं सुखस्य कर्त्तारौ। अत्र शिवशमरिष्टस्य करे। अ० ४। ४। १४३। इति तातिल् प्रत्ययः। (भवथः) भवतम् (ददाशुषे) विद्यासुखे दातुं शीलाय (भुज्युम्) सुखस्य भोक्तारं पालकं वा (याभिः) (अवथः) (याभिः) (अध्रिगुम्) इन्द्रं परमैश्वर्यवन्तम्। इन्द्रोऽप्यध्रिगुरुच्यते। निरु० ५। ११। (ओम्यावतीम्) अवन्ति त ओमास्तेषु भवा प्रशस्ता विद्या तद्वतीम् (सुभराम्) सुष्ठु बिभ्रति सुखानि यया ताम् (ऋतस्तुभम्) यया ऋतं स्तोभते स्तभ्नाति धरति (ताभिः०) (इति पूर्ववत्) ॥ २० ॥
भावार्थः
राजादिभिः राजपुरुषैः सर्वस्य सुखकारिभिर्भवितव्यम्। आप्तविद्यानीति धृत्वा मङ्गलमाप्तव्यम् ॥ २० ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब सभाध्यक्ष आदि राजपुरुषों को कैसा होना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (अश्विना) सभा और सेना के अधीशो ! तुम दोनों (ददाशुषे) विद्या और सुख देनेवाले के लिये (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षा आदि क्रियाओं से (शन्ताती) सुख के कर्त्ता (भवतः) होते वा (याभिः) जिन रक्षाओं से (भुज्युम्) सुख के भोक्ता वा पालन करनेहारे की (अवथः) रक्षा करते वा (याभिः) जिन रक्षाओं से (अध्रिगुम्) परमैश्वर्यवाले इन्द्र और (ओम्यावतीम्) रक्षा करनेहारे विद्वानों में उत्पन्न जो उत्तम विद्या उससे युक्त (सुभराम्) जिससे कि अच्छे प्रकार सुखों का (ऋतस्तुभम्) और सत्य का धारण होता है उस नीति की रक्षा करते हो, (ताभिरु) उन्हीं रक्षाओं से सत्य को (सु, आ, गतम्) अच्छे प्रकार प्राप्त होओ ॥ २० ॥
भावार्थ
राजादि राजपुरुषों को योग्य है कि सबको सुख देवें और आप्त पुरुषों की विद्या और नीति को धारण कर कल्याण को प्राप्त होवें ॥ २० ॥
विषय
भुज्यु - अध्रिगु
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (ताभिः ऊतिभिः) = उन रक्षणों से (उ) = निश्चयपूर्वक (सु) = उत्तमता से (आगतम्) = हमें प्राप्त होओ , (याभिः) = जिन रक्षणों से आप (ददाशुषे) = यज्ञशील पुरुष के लिए , प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाले के लिए (शन्ताती) = शान्ति का विस्तार करनेवाले (भवथः) = होते हो । प्राणसाधना से चित्त की निर्मलता होकर ईर्ष्या , द्वेष , क्रोध आदि का नाश होकर शान्ति प्राप्त होती है , मनुष्य यज्ञिय वृत्तिवाला बनता है और प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाला होता है ।
२. हमें उन रक्षणों से प्राप्त होओ , (याभिः) = जिनसे (भुज्युम्) = अपने शरीर के पालन के लिए भोजन करनेवाले को - प्राणयात्रिक मात्र भोजनवाले को कभी भी स्वादवश अधिक भोजन न करनेवाले को (अवथः) = आप रक्षित करते हो । प्राणसाधना से ही इन्द्रियों को हम जीतते हैं । स्वादेन्द्रिय का भी विजय करके हम भुज्यु बनते हैं ।
३. उन रक्षणों से हमें प्राप्त होओ , (याभिः) = जिनसे (अध्रिगुम्) = [अधृतगमनम् - (आप्टे) = Irresistible] जिसकी गति कहीं भी विघ्नों से रुक नहीं सकती , उस पुरुष को रक्षित करते हो । प्राणसाधना से मनुष्य को वह शक्ति प्राप्त होती है जोकि उसे विघ्नों से भयभीत नहीं होने देती ।
४. हमें उन रक्षणों से प्राप्त होओ जिनसे (ओम्यावतीम्) = अपना रक्षण करनेवाली को (सुभराम्) = उत्तमता से अपना भरण करनेवाली को तथा (ऋतस्तुभम्) = [ऋतं स्तोभते धरति] ऋत का धारण करनेवाली को आप रक्षित करते हो । ऋत का भाव यह है कि प्रत्येक कार्य को अपने समय पर करना । प्राणसाधना से हम अपना रक्षण करनेवाले होते हैं और हमारे कर्मों में बड़ी नियमितता आ जाती है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से जहाँ शान्ति प्राप्त होती है , वहाँ हम अपना उत्तमता से पालन करनेवाले व व्यवस्थित जीवनवाले बनते हैं । हमें इतनी शक्ति प्राप्त होती है कि हम ‘अधृतगमन’ होते हैं ।
विषय
missing
भावार्थ
हे ( अश्विना ) दो मुख्य अधिकारियो ! राजा, अमात्य आदि जनो ! तुम दोनो ! ( याभिः ) जिन रक्षासाधनों और उपायों से ( ददाशुषे ) नित्य ज्ञान और द्रव्य के देने वाले प्रजाजन और विद्वान् जनके हित के लिये ( शंताती भवथः ) शान्ति और सुखकारक होते हो, और ( याभिः भुज्युम् अवथः ) जिन उपायों और साधनों से सुख सामग्री, ऐश्वर्य के भोक्ता और पालक पुरुष की रक्षा करते हो, ( याभिः अध्रिगुम् ) जिन से पृथ्वी के स्वामी अध्यक्ष ऐश्वर्यवान् राजा की रक्षा करते हो और ( ऋत स्तुभम् ) सत्य ज्ञान के उपदेष्टा पुरुष और सत्यज्ञान और अन्न के धारण करने वाली ( ओम्यावतीम् ) रक्षणशील पुरुषों की उत्तम विद्या या नीति से युक्त ( सुभराम् ) उत्तम रीति से प्रजा के भरण पोषण करने वाली नीति की जिन उपायों से रक्षा करते हो ( ताभिः उ आ गतम् ) उन उपायों से आप हमें प्राप्त होवें । इति षट्त्रिंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ द्वितीयस्य अग्निः शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, २, ६, ७, १३, १५, १७, १८, २०, २१, २२ निचृज्जगती । ४, ८, ९, ११, १२, १४, १६, २३ जगती । १९ विराड् जगती । ३, ५, २४ विराट् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् त्रिष्टुप् । २५ त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
राजा इत्यादी राजपुरुषांनी सर्वांना सुख द्यावे व आप्त पुरुषांची विद्या व नीती धारण करून कल्याण करून घ्यावे. ॥ २० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, harbingers of comfort and joy, come with those gifts of support and protection by which you bless the generous man with peace and comfort, by which you protect the man of prosperity and the man of power and honour. Come with that knowledge which bears and brings the wealth of peace and joy and the wealth of truth and right.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should be the President of the Assembly and other officers of the State is taught in the 20th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O President of the Assembly & Commander of the Army ! Please come to unwillingly with those protective powers or aids, by which you are bestowers of peace and happiness to a man who is in the habit of giving knowledge and happiness to all, by which you protect a noble wealthy person and maintain a policy endowed with wisdom, well bringer of all delight and bearer of truth.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(ददाशुषे) विद्यासुखं दातुं शीलाय = To the person who is in the habit of giving knowledge and happiness to all. (भुज्युम्) सुखस्य भोक्तारं पालकं वा = Enjoyer or preserver of happiness. (अध्रिगुम) इन्द्रं परमैश्वर्यवन्तम् । इन्द्रोऽप्यध्रिगुरुच्यते (निरु० ५.११ ) = To a wealthy person. (ओम्यावतीम्) अवन्ति ते ओमाः तेषु भवा प्रशस्ता विद्या तद्वतीम् । = A policy which bears the wisdom of the protectors.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The King and other officers of the State should bestow happiness upon all. They should enjoy happiness by bearing the wisdom of absolutely truthful persons and their policy.
Translator's Notes
It it wrong on the part of Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others to take Bhujyu, Adhrigu, as the names of certain persons, instead of taking them adjectives as explained by Rishi Dayananda Sarasvati
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