ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 112/ मन्त्र 25
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ, द्वितीयस्य अग्निः, शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
द्युभि॑र॒क्तुभि॒: परि॑ पातम॒स्मानरि॑ष्टेभिरश्विना॒ सौभ॑गेभिः। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥
स्वर सहित पद पाठद्युऽभिः॑ । अ॒क्तुऽभिः॑ । परि॑ । पा॒त॒म् । अ॒स्मान् । अरि॑ष्टेभिः । अ॒श्वि॒ना॒ । सौभ॑गेभिः । तत् । नः॒ । मि॒त्रः । वरु॑णः । म॒म॒ह॒न्ता॒म् । अदि॑तिः । सिन्धुः॑ । पृ॒थि॒वी । उ॒त । द्यौः ॥
स्वर रहित मन्त्र
द्युभिरक्तुभि: परि पातमस्मानरिष्टेभिरश्विना सौभगेभिः। तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदिति: सिन्धु: पृथिवी उत द्यौः ॥
स्वर रहित पद पाठद्युऽभिः। अक्तुऽभिः। परि। पातम्। अस्मान्। अरिष्टेभिः। अश्विना। सौभगेभिः। तत्। नः। मित्रः। वरुणः। ममहन्ताम्। अदितिः। सिन्धुः। पृथिवी। उत। द्यौः ॥ १.११२.२५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 112; मन्त्र » 25
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 37; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 37; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे अश्विना पूर्वोक्तौ युवां द्युभिरक्तुभिररिष्टेभिः सौभगेभिः सह वर्त्तमानानस्मान् सदा परिपातं तत् युष्मत्कृत्यं मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौर्नोऽस्मभ्यं मामहन्ताम् ॥ २५ ॥
पदार्थः
(द्युभिः) दिवसैः (अक्तुभिः) रात्रिभिः सह वर्त्तमानान् (परि) सर्वतः (पातम्) रक्षतम् (अस्मान्) भवदाश्रितान् (अरिष्टेभिः) हिंसितुमनर्हैः (अश्विना) (सौभगेभिः) शोभनैश्वर्यैः (तत्) (नः) (मित्रः) (वरुणः) (मामहन्ताम्) (अदितिः) (सिन्धुः) (पृथिवी) (उत) (द्यौः) एषां पूर्ववदर्थः ॥ २५ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा मातापितरौ सन्तानान्मित्रः सखायं प्राणश्च शरीरं प्रीणाति समुद्रो गाम्भीर्यादिकं पृथिवी वृक्षादीन् सूर्यः प्रकाशं च धृत्वा सर्वान् प्राणिनः सुखिनः कृत्वोपकारं जनयन्ति तथाऽध्यापकोपदेष्टारस्सर्वाः सत्यविद्याः सुशिक्षाश्च प्रापय्येष्टं सुखं प्रापयेयुः ॥ २५ ॥अत्र द्यावापृथिवीगुणवर्णनं सभासेनाध्यक्षकृत्यं तत्कृतपरोपकारवर्णनं च कृतमत एतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥ इति सप्तत्रिंशत्तमो वर्गो द्वादशोत्तरशततमं सूक्तं च समाप्तम् ॥अस्मिन्नध्यायेऽहोरात्राग्निविद्वदादिगुणवर्णनादेतदध्यायोक्तार्थानां षष्ठाध्यायोक्तार्थैः सह सङ्गतिर्वेदितव्या ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (अश्विना) पूर्वोक्त अध्यापक और उपदेशक लोगो ! तुम दोनों (द्युभिः) दिन और (अक्तुभिः) रात्रि (अरिष्टेभिः) हिंसा के न योग्य (सौभगेभिः) सुन्दर ऐश्वर्यों के साथ वर्त्तमान (अस्मान्) हम लोगों को सर्वदा (परि, पातम्) सब प्रकार रक्षा कीजिये (तत्) तुम्हारे उस काम को (मित्रः) सबका सुहृद् (वरुणः) धर्मादि कार्यों में उत्तम (अदितिः) माता (सिन्धुः) समुद्र वा नदी (पृथिवी) भूमि वा आकाशस्थ वायु (उत) और (द्यौः) विद्युत् वा सूर्य का प्रकाश (नः) हमारे लिये (मामहन्ताम्) बार-बार बढ़ावें ॥ २५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे माता और पिता अपने-अपने सन्तानों, सखा मित्रों और प्राण शरीर को प्रसन्न करते हैं और समुद्र गम्भीरतादि, पृथिवी वृक्षादि और सूर्य प्रकाश को धारण कर और सब प्राणियों को सुखी करके उपकार को उत्पन्न करते हैं, वैसे पढ़ाने और उपदेश करनेहारे सब सत्य विद्या और अच्छी शिक्षा को प्राप्त कराके सबको इष्ट सुख से युक्त किया करें ॥ २५ ॥इस सूक्त में सूर्य पृथिवी आदि के गुणों और सभा सेना के अध्यक्षों के कर्त्तव्यों तथा उनके किये परोपकारादि कर्मों का वर्णन किया है, इससे इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह सैंतीसवाँ वर्ग और एकसौ बारहवाँ सूक्त पूरा हुआ ॥ ।इस अध्याय में दिन, रात्रि, अग्नि और विद्वान् आदि के गुणों के वर्णन से इस सप्तमाध्याय में कहे अर्थों की षष्ठाध्याय में कहे अर्थों के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥
विषय
अरिष्ट - सौभग
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! आप (अस्मान्) = हमें (द्युभिः अक्तुभिः) = दिन और रात , अर्थात् सदा (परिपातम्) = चारों ओर से रक्षित कीजिए । दिन के प्रारम्भ में , अर्थात् प्रातः काल भी यह प्राणसाधना अभीष्ट है और रात्रि के प्रारम्भ में , अर्थात् सायंकाल भी यह प्राणसाधना करनी होती है । प्राणसाधना करने से हमें सब सौभग प्राप्त होते हैं । (अरिष्टेभिः) = जिनसे हिंसा नहीं होती उन (सौभगेभिः) = सौभगों के द्वारा हमारा रक्षण कीजिए । ये सौभग ही जीवन के प्रातः काल में समग्र ऐश्वर्य और धर्म हैं , जीवन के मध्याह्न में ये यश और श्री के रूप में हैं तथा जीवन के सायंकाल में इनका स्वरूप ज्ञान व वैराग्य - अनासक्ति होता है । ये सब सौभग हमारी हिंसा नहीं होने देते ।
२. (तत्) = हमारे इस (सौभग) = प्राप्ति के संकल्प को (मित्रः) = मित्र , (वरुणः) = वरुण मित्रता तथा निर्द्वेषता , (अदितिः) = स्वास्थ्य , (सिन्धुः) = रेतः कणों के रूप में शरीरस्थ जल , (पृथिवी) = दृढ़शरीर (उत) = और (द्यौः) = ज्ञानदीप्त मस्तिष्क (मामहन्ताम्) = आदृत करें । मैं सबके साथ स्नेह से चलूँ द्वेष से ऊपर उठूँ , स्वास्थ्य को ठीक रखते हुए शरीर में शक्ति की ऊर्ध्वगति करनेवाला बनूँ , दृढ़शरीर व दीप्त मस्तिष्क को सिद्ध करके सब सौभगों को प्राप्त करनेवाला होऊँ ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से हमें सब सौभग प्राप्त होते हैं । स्नेह व निर्द्वेषता आदि की भावनाएँ हमें सौभग - प्राप्ति के संकल्प को पूर्ण करने में सफल करती हैं ।
विशेष / सूचना
विशेष - सूक्त के आरम्भ में कहते हैं कि प्राणसाधना से हम प्रभु के छोटे रूप बनते हैं [१] , और समाप्ति पर कहा है कि यह साधना हमें सब सौभग प्राप्त कराती है [२५] । अब हमारे जीवन में शुभ उषाकाल का प्रादुर्भाव होता है -
विषय
missing
भावार्थ
हे ( अश्विना ) दो मुख्य पुरुषो ! आप दोनों ( द्युभिः अक्तुभिः ) दिनों और रातों ( अस्मान् ) हमें ( अरिष्टेभिः ) न नाश करने योग्य, कल्याणकारी, ( सौभगेभिः ) उत्तम २ ऐश्वर्यो से ( परिपातम् ) सब प्रकार से रक्षा करो । ( तन्नः० इत्यादि पूर्ववत् ) इति सप्तत्रिंशो वर्गः ॥ इति सप्तमोऽध्यायः।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ द्वितीयस्य अग्निः शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, २, ६, ७, १३, १५, १७, १८, २०, २१, २२ निचृज्जगती । ४, ८, ९, ११, १२, १४, १६, २३ जगती । १९ विराड् जगती । ३, ५, २४ विराट् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् त्रिष्टुप् । २५ त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे मातापिता आपापल्या संतानांना, सखा मित्रांना, प्राण शरीराला प्रसन्न करतात. समुद्र गंभीरता, पृथ्वी वृक्ष व सूर्यप्रकाश धारण करून सर्व प्राण्यांना सुखी करून उपकार करतात तसे अध्यापक व उपदेशक यांनी सर्व सत्य विद्या व चांगले शिक्षण प्राप्त करून सर्वांना इष्ट असे सुख द्यावे. ॥ २५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, protect and promote us, we pray, by days and by nights with steady and unobstructed progress, with wealth, grace and good fortune. And may Mitra and Varuna, the sun and shower, Aditi, mother nature, Sindhu, the sea and the rivers, Prithivi, mother earth and Dyau, the light of heaven and currents of spatial energies help, advance and bless this prayer and programme of ours.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Ashvins (Absolutely truthful teachers and preachers) protect us always, by night and day, with undiminished or indestructible prosperity and may a man friendly to all, a noble person acceptable to all, firmament, ocean, earth and sky be favorable to us and may your noble work make us respectable everywhere.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(द्युभिः) दिवसैः = By day. (अक्तुमिः) रत्रिभिः = By night. (अरिष्टेभिः) हिंसितुम् अनर्हैः = Indestructible or inviolable.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As parents gladden their children, a friend his friend and Prana (Vital breath) the body as ocean makes all happy and benefits others, by bearing solemnity and dept etc. as earth upholds or sustains trees and the sun gives the light, in the same manner, let teachers and preachers cause desired happiness to all, by giving them the knowledge of all sciences and good teaching.
Translator's Notes
द्युरित्यहर्नाम (निघ० 1.९) अक्तुरितिरात्रिनाम् (निघ० १.७) रिष्-हिंसायाम् This hymn is connected with the previous hymn as there is mention of heaven and earth, the duties of the President of the Assembly and commander of the Army and allied subjects as in that hymn. Here ends the commentary on 112th Hymn and 37th Verga of the first Mandala of the Rigveda Here ends the seventh Chapter. This seventh Chapter is connected with the sixth Chapter as there is the mention of the attributes of the earth and the sky, fire and learned persons etc. as in that Chapter.
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