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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 112 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 112/ मन्त्र 22
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ, द्वितीयस्य अग्निः, शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    याभि॒र्नरं॑ गोषु॒युधं॑ नृ॒षाह्ये॒ क्षेत्र॑स्य सा॒ता तन॑यस्य॒ जिन्व॑थः। याभी॒ रथाँ॒ अव॑थो॒ याभि॒रर्व॑त॒स्ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याभिः॑ । नर॑म् । गो॒षु॒ऽयुध॑म् । नृ॒ऽसह्ये॑ । क्षेत्र॑स्य । सा॒ता । तन॑यस्य । जिन्व॑थः । याभिः॑ । रथा॑न् । अव॑थः । याभिः॑ । अर्व॑तः । ताभिः॑ । ऊँ॒ इति॑ । सु । ऊ॒तिऽभिः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । आ । ग॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    याभिर्नरं गोषुयुधं नृषाह्ये क्षेत्रस्य साता तनयस्य जिन्वथः। याभी रथाँ अवथो याभिरर्वतस्ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याभिः। नरम्। गोषुऽयुधम्। नृऽसह्ये। क्षेत्रस्य। साता। तनयस्य। जिन्वथः। याभिः। रथान्। अवथः। याभिः। अर्वतः। ताभिः। ऊँ इति। सु। ऊतिऽभिः। अश्विना। आ। गतम् ॥ १.११२.२२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 112; मन्त्र » 22
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 37; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तैर्युद्धे कथमाचरणीयमित्याह ।

    अन्वयः

    हे अश्विना सभासेनाध्यक्षौ युवां नृषाह्ये साता संग्रामे याभिरूतिभिर्गोषु युधं नरं जिन्वथो याभिः क्षेत्रस्य तनयस्य जिन्वथ उ याभी रथानर्वतोऽवथस्ताभिः सर्वाः प्रजाश्च संरक्षितुं स्वागतम् ॥ २२ ॥

    पदार्थः

    (याभिः) (नरम्) नेतारम् (गोषुयुधम्) पृथिव्यादिषु योद्धारम् (नृषाह्ये) नृभिः षोढव्ये (क्षेत्रस्य) स्त्रियाः (साता) संभजनीये संग्रामे। अत्र सप्तम्येकवचनस्य डादेशः। (तनयस्य) (जिन्वथः) प्रीणीत (याभिः) (रथान्) विमानादियानानि (अवथः) वर्धयेतम् (याभिः) (अर्वतः) अश्वान् (ताभिः०) (इति पूर्ववत्) ॥ २२ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्युद्धे शत्रून् हत्वा स्वभृत्यादीन् संरक्ष्य सेनाङ्गानि वर्धनीयानि न जातु स्त्रीबालकौ हन्तव्यौ नायोद्धा संप्रेक्षका दूताश्चेति ॥ २२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उनका युद्ध में कैसा आचरण करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अश्विना) सभासेना के अध्यक्ष ! तुम दोनों (नृषाह्ये) वीरों को सहने और (साता) सेवन करने योग्य संग्राम में (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षाओं से (गोषुयुधम्) पृथिवी पर युद्ध करनेहारे (नरम्) नायक को (जिन्वथः) प्रसन्न करो (याभिः) वा जिन रक्षाओं से (क्षेत्रस्य) स्त्री और (तनयस्य) सन्तान को प्रसन्न रक्खो (उ) और (याभिः) जिन रक्षाओं से (रथान्) रथों (अर्वतः) और घोड़ों की (अवतः) रक्षा करो (ताभिः) उन रक्षाओं से सब प्रजाओं की रक्षा करने को (सु, आ, गतम्) अच्छे प्रकार प्रवृत्त हूजिये ॥ २२ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को योग्य है कि युद्ध में शत्रुओं को मार अपने भृत्य आदि की रक्षा करके सेना के अङ्गों को बढ़ावें और स्त्री, बालकों, युद्ध के देखनेवाले और दूतों को कभी न मारें ॥ २२ ॥

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    विषय

    रथ और घोड़े

    पदार्थ


    १. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (ताभिः ऊतिभिः) = उन रक्षणों से (उ) = निश्चयपूर्वक (सु) = उत्तमता से (आगतम्) = हमें प्राप्त होओ , (याभिः) = जिनसे (नृषाह्ये) = संग्राम में (नरम्) = अपने को उन्नति - पथ पर ले - चलनेवाले को (गोषुयुधम्) = इन्द्रियविषयक युद्ध करनेवाले को (जिन्वथः) = तुम प्रीणित करते हो । इन्द्रिय - विषयक युद्ध यही है कि विषय इन्हें अपनी ओर आकृष्ट करते हैं , हम मन - रूप लगाम के द्वारा इन इन्द्रियों को विषयों में जाने से रोकते हैं । इनको रोकनेवाला व्यक्ति ‘नर’ बनता है - आगे बढ़नेवाला होता है । 

    २. हे प्राणापानो ! आप ही (क्षेत्रस्य) = इस शरीररूप क्षेत्र की (साता) = प्राप्ति में तथा (तनयस्य) = शक्तियों के विस्तार की प्राप्ति अथवा [तनयं धनम् - सा०] धन की प्राप्ति में प्रीणित करते हो । प्राणसाधना के द्वारा ही मनुष्य शरीर को स्वाधीन करनेवाला होता है । यह स्वाधीनता ही इसे शक्तियों का विस्तार प्राप्त कराती है । इसी से यह धन का भी विजय करता है । 

    ३. हे प्राणापानो ! हमें उन रक्षणों से प्राप्त होओ (याभिः) = जिनसे आप (रथान्) = इन शरीर रथों का (अवथः) = रक्षण करते हो तथा (याभिः) = जिनसे (अर्वतः) = इन्द्रियरूप अश्वों का रक्षण करते हो । प्राणसाधना से शरीर स्वस्थ बनता है और इन्द्रियाँ सशक्त । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से मनुष्य इन्द्रियों को विषयों में जाने से रोक पाता है । शरीर को स्वस्थ बनाकर अपनी शक्तियों का विस्तार करता है । इस साधना से जहाँ शरीररूप रथ उत्तम बनता है , वहाँ इन्द्रियरूप घोड़े भी सशक्त व विषयों से अनासक्त बनते हैं । 
     

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    हे ( अश्विना ) मुख्य पुरुषो ! आप दोनों ( याभिः ) जिन उपायों से ( नृषाह्ये ) नायक वीर पुरुषों से विजय करने योग्य ( साता ) संग्राम में ( गोषुयुधम् ) भूमियों के विजय के लिये युद्ध करने वाले ( नरं ) नायक पुरुष को बढ़ाते हो और जिन साधनों से ( क्षेत्रस्य तनयस्य साता ) खेत के समान सन्तति उत्पन्न करने वाली स्त्री और पुत्र के लाभ करने के निमित्त ( नरं ) पुरुष को (जिन्दथः) प्रसन्न और शक्तिशाली करते हो ( याभिः स्थान्, अवथः ) जिन उपायों से रथों की रक्षा करते हो और ( याभिः अर्वतः ) जिन उपायों से अश्वों और रथारोही, अश्वारोही पुरुषों को (अवथः) रक्षा करते हो ( ताभिः आगतम् ) उन्हीं सब साधनों सहित हमें प्राप्त होवो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ द्वितीयस्य अग्निः शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, २, ६, ७, १३, १५, १७, १८, २०, २१, २२ निचृज्जगती । ४, ८, ९, ११, १२, १४, १६, २३ जगती । १९ विराड् जगती । ३, ५, २४ विराट् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् त्रिष्टुप् । २५ त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी युद्धात शत्रूंचे हनन करावे. आपले सेवक इत्यादींचे रक्षण करून सेनेच्या अंगांना वाढवावे. स्त्री, बालक, युद्ध पाहणारे व दूत यांचे कधी हनन करू नये. ॥ २२ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, rulers and commanders, come with those powers and protections by which in the battles of men you exhort the leader bravely fighting for the land and her cows, by which in the battle of the field you protect the children of the nation, and by which you defend the warriors of the chariot. Come with all these protections and bless us.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should they do in the battle is taught in the 22nd Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Ashvins (President of the Assembly and Commander of the Army), Please come to us willingly to protect the people with those aids by which you protect a brave person in the battle, by which you assist him in the acquisition of houses and wealth and particularly please women and children and by which you protect his air-craft and other vehicles and horses.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (क्षेत्रस्य) स्त्रिया: = Of a woman. (साता) संभजनीये संग्रामे |अत्र सप्तम्येकवचनस्य डादेशः । = In the battle in which soldiers should take active part.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should slay their enemies in the battle, should properly maintain their servants etc. and should never kill women and children, nor messengers and mere spectators who are not fighting.

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