ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 112/ मन्त्र 8
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ, द्वितीयस्य अग्निः, शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
याभि॒: शची॑भिर्वृषणा परा॒वृजं॒ प्रान्धं श्रो॒णं चक्ष॑स॒ एत॑वे कृ॒थः। याभि॒र्वर्ति॑कां ग्रसि॒ताममु॑ञ्चतं॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम् ॥
स्वर सहित पद पाठयाभिः॑ । शची॑भिः । वृ॒ष॒णा॒ । प॒रा॒ऽवृज॑म् । प्र । अ॒न्धम् । श्रो॒णम् । चक्ष॑से । एत॑वे । कृ॒थः । याभिः॑ । वर्ति॑काम् । ग्र॒सि॒ताम् । अमु॑ञ्चतम् । ताभिः॑ । ऊँ॒ इति॑ । सु । ऊ॒तिऽभिः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । आ । ग॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
याभि: शचीभिर्वृषणा परावृजं प्रान्धं श्रोणं चक्षस एतवे कृथः। याभिर्वर्तिकां ग्रसिताममुञ्चतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥
स्वर रहित पद पाठयाभिः। शचीभिः। वृषणा। पराऽवृजम्। प्र। अन्धम्। श्रोणम्। चक्षसे। एतवे। कृथः। याभिः। वर्तिकाम्। ग्रसिताम्। अमुञ्चतम्। ताभिः। ऊँ इति। सु। ऊतिऽभिः। अश्विना। आ। गतम् ॥ १.११२.८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 112; मन्त्र » 8
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 34; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 34; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सभासेनाध्यक्षौ किं कुर्यातामित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे वृषणाश्विना सभासेनाध्यक्षौ युवां याभिः शचीभिः परावृजमन्धं श्रोणं च चक्षस एतवे विद्यां गन्तुं प्रकृथः। याभिर्ग्रसितां वर्त्तिकामिव प्रजाममुञ्चतं ताभिरू० इति पूर्ववत् ॥ ८ ॥
पदार्थः
(याभिः) वक्ष्यमाणाभिः (शचीभिः) रक्षाकर्मभिः प्रज्ञाभिर्वा। शचीति कर्मना०। निघं० २। १। प्रज्ञाना०। निघं० ३। ९। (वृषणा) वर्षयितारौ। अत्राकारादेशः। (परावृजम्) धर्मविरुद्धगामिनम् (प्र) (अन्धम्) अविद्यान्धकारयुक्तम् (श्रोणम्) वधिरवद्वर्त्तमानं पुरुषम् (चक्षसे) विद्यायुक्तवाण्याः प्रकाशाय (एतवे) एतुं गन्तुम् (कृथः) कुरुतम्। अत्र लोडर्थे लट् विकरणस्य लुक् च। (याभिः) (वर्त्तिकाम्) शकुनिस्त्रियम् (ग्रसिताम्) निगलिताम् (अमुञ्चतम्) मुञ्चतम्। अत्र लोडर्थे लङ्। (ताभिः) (उ) (सु) सुष्ठु गतौ (ऊतिभिः) रक्षणादिभिः (अश्विना) द्यावापृथिवीवच्छुभगुणकर्मस्वभावव्यापिनौ। अत्राऽऽकारादेशः। (आ) समन्तात् (गतम्) गच्छतम्। अत्र विकरणलोपश्च ॥ ८ ॥
भावार्थः
सभासेनापतिभ्यां स्वविद्याधर्माश्रयेण प्रजासु विद्याविनयौ प्रचार्याविद्याऽधर्मनिवारणेन सर्वेभ्योऽभयदानं सततं कार्यम् ॥ ८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब सभा और सेना के अध्यक्ष क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (वृषणा) सुख के वर्षानेहारे (अश्विना) सभा और सेना के अधीशो ! तुम (याभिः) जिन (शचीभिः) रक्षा सम्बन्धी कामों और प्रजाओं से (परावृजम्) विरोध करनेहारे (अन्धम्) अविद्यान्धकारयुक्त (श्रोणम्) बधिर के तुल्य वर्त्तमान पुरुष को (चक्षसे) विद्यायुक्त वाणी के प्रकाश के लिये (एतवे) शुभ विद्या प्राप्त होने को (प्र, कृथः) अच्छे प्रकार योग्य करो और (याभिः) जिन रक्षाओं से (ग्रसिताम्) निगली हुई (वर्त्तिकाम्) छोटी चिड़िया के समान प्रजा को दुःखों से (अमुञ्चतम्) छुड़ाओ (ताभिरु) उन्हीं (ऊतिभिः) रक्षाओं से हम लोगों को (सु, आ, गतम्) अच्छे प्रकार प्राप्त हूजिये ॥ ८ ॥
भावार्थ
सभा और सेना के पति को योग्य है कि अपनी विद्या और धर्म के आश्रय से प्रजाओं में विद्या और विनय का प्रचार करके अविद्या और अधर्म के निवारण से सब प्राणियों को अभयदान निरन्तर किया करें ॥ ८ ॥
विषय
अन्धे का देखना , लंगड़े का चलना
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! आप (ताभिः ऊतिभिः) = उन रक्षणों से (उ) = निश्चयपूर्वक (सु) = उत्तमता से (आगतम्) = हमें प्राप्त होओ , (याभिः) = जिनसे आप (शचीभिः) = प्रज्ञानों व कर्मों के द्वारा (वृषणा) = सुखों का वर्षण करनेवाले होते हो । प्राणसाधना से प्रज्ञा सूक्ष्म होती है और कर्मशक्ति बढ़ती है । प्रज्ञा की सूक्ष्मता और कर्मशक्ति की वृद्धि से जीवन अत्यन्त सुखी बनता है ।
२. हे प्राणापानो ! हमें वह रक्षण प्राप्त कराइए जिससे कि आप (परावृजम्) = बन्धु - बान्धवों से सुदूर परित्यक्त (प्रान्धम्) = दृष्टिशक्ति से एकदम हीन पुरुष को (चक्षसे कृथः) = फिर से देखने के लिए समर्थ करते हैं । प्राणसाधना के द्वारा उसकी दृष्टिशक्ति ठीक हो जाती है । इसी प्रकार (श्रोणम्) = पंगु को (एतवे कृथः) = आप चलने के लिए समर्थ करते हैं । दृष्टिशक्ति यहाँ सभी ज्ञानेन्द्रियों का प्रतिनिधित्व करती है और चलने की शक्ति सभी कर्मेन्द्रियों का । प्राणसाधना से सभी इन्द्रियों की शक्ति बढ़कर ‘सु-ख’ प्राप्त होता है । इसके अभाव में इन्द्रियों में दोष उत्पन्न होकर ‘दुः-ख’ हो जाता है । ‘ख’ का अर्थ है ‘इन्द्रिय’ , (सु) = उत्तमता - इन्द्रियों की उत्तमता ही सुख है । इसी प्रकार (दुर्) = खराब , इन्द्रियों की विकृति ही दुःख है ।
३. हमें उन रक्षणों से प्राप्त होओ (याभिः) = जिनसे (ग्रसिताम्) = [वृक द्वारा] ग्रसी गई (वर्तकाम्) = वर्तिका को (अमुञ्चतम्) = आपने मुक्त किया । वृक शब्द ‘वृक आदाने’ से बनकर लोभ का वाचक है । यह लोभ वर्तिका को धर्मकार्यों में प्रवृत्ति को निगल लेता है । प्राणसाधना से लोभ का नाश होकर मनुष्य पुनः धर्मकार्यों में प्रवृत्त होता है और इस प्रकार वृक से निगली हुई वर्तिका को ये प्राणापान मुक्त कर देते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से ज्ञानेन्द्रियों की शक्ति बढ़ती है । लोभ के नाश से धर्ममार्ग में प्रवृत्ति होती है ।
विषय
भेड़िये के मुख में पड़ी बटेरी का सत्यार्थ ।
भावार्थ
( याभिः ) जिन रक्षा आदि उपायों से, ( शचीभिः ) शक्ति शाली सेना और वेद-वाणियों और उत्तम कर्मों से हे ( वृषणा ) समस्त सुखों के वर्षा करने हारे सभा-सेनाध्यक्षो ! आप दोनों ( परावृजम् ) धर्म मार्ग से पराङ्मुख जाने वाले ( अन्धम् ) चक्षुर्हीन, अन्धे, अज्ञानी पुरुष को ( चक्षसे ) सम्यग् दर्शन करने के योग्य ( प्र कृथः ) अच्छी प्रकार बना देते हो और ( याभिः ) जिन ( शचीभिः ) उत्तम कर्मों से ( श्रोणं ) पङ्गु, लंगड़े को ( एतवे ) चलने में समर्थ ( प्र कृथः ) अच्छी प्रकार कर देते हो। और जिन शक्तियों से आप दोनों ( ग्रसिताम् ) ठगों की शिकार बनी ( वर्त्तिकाम् ) बटेरी के समान अति दीन प्रजा को छुड़ाते हो ( ताभिः ) उन २ उपायों से मुक्त आप दोनों ( आ गतम् ) हमें भी प्राप्त होइये ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ द्वितीयस्य अग्निः शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, २, ६, ७, १३, १५, १७, १८, २०, २१, २२ निचृज्जगती । ४, ८, ९, ११, १२, १४, १६, २३ जगती । १९ विराड् जगती । ३, ५, २४ विराट् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् त्रिष्टुप् । २५ त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
सभा व सेनापतीने आपली विद्या व धर्माचा आश्रय घेऊन प्रजेमध्ये विद्या व विनय यांचा प्रसार करावा. अविद्या व अधर्माचे निवारण करून सर्व प्राण्यांना सतत अभयदान द्यावे. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, powers of nature and humanity, generous and virile, come with grace with all those noble acts of protection and mercy by which you restore the rejected, the blind and the deaf back to their natural health and efficiency to see clearly and walk with confidence, and by which you release the poor bird caught in the falcon’s beak.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should the President of the Assembly and the Commander of the Army do is taught in the eighth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O showerers of happiness, President of the Assembly and Commander of the Army! (who pervade in noble virtues and habits like the earth and the heaven by your protective actions, you enable a man going against the path of Dharma (righteousness) surrounded by the darkness of ignorance and acting like a deaf man to the advice of learned persons, to manifest the speech endowed with wisdom. Please come to us willingly with those protective powers by which you set free the quail - like subjects (when seized by a wolf-like thief or tyrannical person).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(परावृजम्) धर्मविरुद्धगामिनम् = Going against the injunctions of Dharma. (अन्धम्) अविद्यान्धकारयुक्तम् = Surrounded or covered by the darkness of ignorance. = Spiritually blind. (श्रोणम् ) बधिरवद् वर्तमानं पुरुषम् = A person who is acting like a deaf (to the advice of good people) (अश्विना), द्यावापृथिवी वच्छु भगुणकर्मस्वभावव्यापिनौ सभासेनाध्यक्षौ । = President of the Assembly and Commander of the Army who pervade in noble virtues, actions and temperament like the heaven and earth.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The President of the Assembly and the Commander of the Army should make people fearless by preaching wisdom and humility among them by means of knowledge and Dharma (righteousness) and by the removal of ignorance and un-righteousness.
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