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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 112 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 112/ मन्त्र 6
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ, द्वितीयस्य अग्निः, शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    याभि॒रन्त॑कं॒ जस॑मान॒मार॑णे भु॒ज्युं याभि॑रव्य॒थिभि॑र्जिजि॒न्वथु॑:। याभि॑: क॒र्कन्धुं॑ व॒य्यं॑ च॒ जिन्व॑थ॒स्ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याभिः॑ । अन्त॑कम् । जस॑मानम् । आ॒ऽअर॑णे । भु॒ज्युम् । याभिः॑ । अ॒व्य॒थिऽभिः॑ । जि॒जि॒न्वथुः॑ । याभिः॑ । क॒र्कन्धु॑म् । व॒य्य॑म् । च॒ । जिन्व॑थः । ताभिः॑ । ऊँ॒ इति॑ । सु । ऊ॒तिऽभिः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । आ । ग॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    याभिरन्तकं जसमानमारणे भुज्युं याभिरव्यथिभिर्जिजिन्वथु:। याभि: कर्कन्धुं वय्यं च जिन्वथस्ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याभिः। अन्तकम्। जसमानम्। आऽअरणे। भुज्युम्। याभिः। अव्यथिऽभिः। जिजिन्वथुः। याभिः। कर्कन्धुम्। वय्यम्। च। जिन्वथः। ताभिः। ऊँ इति। सु। ऊतिऽभिः। अश्विना। आ। गतम् ॥ १.११२.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 112; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 34; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे अश्विना युवां याभिरूतिभिरारणेऽन्तकं जसमानं याभिरव्यथिभिर्भुज्युं च जिजिन्वथुर्याभिः कर्कन्धुं वय्यं च जिन्वथस्ताभिरूतिभिरुस्वागतम् ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (याभिः) (अन्तकम्) दुःखनाशकर्त्तारम् (जसमानम्) शत्रून् हिंसन्तम् (आरणे) सर्वतो युद्धभावे (भुज्युम्) पालकम् (याभिः) (अव्यथिभिः) व्यथारहिताभिः (जिजिन्वथुः) प्रीणीथः। अत्र सायणाचार्य्येण भ्रमाल्लिटि मध्यमपुरुषद्विवचनान्तप्रयोगे सिद्धेऽत्यन्ताशुद्धं प्रथमपुरुषबहुवचनान्तं साधितमिति वेद्यम् (याभिः) (कर्कन्धुम्) कर्कान् कारुकानन्तति व्यवहारे बध्नाति तम् (वय्यम्) ज्ञातारम्। अत्र बाहुलकाद्गत्यर्थाद्वयधातोर्यन्प्रत्ययः। (च) (जिन्वथः) तर्प्पयथः (ताभिः) इत्यादि पूर्ववत् ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    रक्षकैरधिष्ठातृभिश्च विना न खलु योद्धारः शत्रुभिस्सह संग्रामैर्योद्धुं प्रजां पालयितुं च शक्नुन्ति, ये प्रबन्धेन विदुषां रक्षणं न कुर्वन्ति ते पराजयं प्राप्य राज्यं कर्त्तुं न शक्नुवन्ति ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे दोनों कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अश्विना) सभा सेना के स्वामी विद्वान् लोगो ! आप (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षाओं से (आरणे) सब ओर से युद्ध होने में (अन्तकम्) दुःखों के नाशक और (जसमानम्) शत्रुओं को मारते हुए पुरुष को (याभिः) जिन (अव्यथिभिः) पीड़ारहित आनन्दकारक रक्षाओं से (भुज्युम्) पालनेहारे पुरुष को (जिजिन्वथुः) प्रसन्न करते (च) और (याभिः) जिन रक्षाओं से (कर्कन्धुम्) कारीगरी करनेहारे (वय्यम्) ज्ञाता पुरुष की (जिन्वथः) प्रसन्नता करते हो (ताभिः, उ) उन्हीं रक्षाओं के साथ हम लोगों के प्रति (सु, आ, गतम्) अच्छे प्रकार आइये ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    रक्षा करनेवाले और अधिष्ठाताओं के बिना योद्धा लोग शत्रुओं के साथ संग्राम में युद्ध करने और प्रजाओं के पालने को समर्थ नहीं हो सकते। जो प्रबन्ध से विद्वानों की रक्षा नहीं करते वे पराजय को प्राप्त होकर राज्य करने को समर्थ नहीं होते ॥ ६ ॥

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    विषय

    ‘अन्तक , जसमान , भुज्यु , कर्कन्धु व वय्य’

    पदार्थ

    १. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (ताभिः ऊतिभिः) = उन रक्षणों से (उ) = निश्चय से (स) = उत्तमतापूर्वक (आगतम्) = हमें प्राप्त होओ (याभिः) = जिन रक्षणों से (अन्तकम्) = काम - क्रोध व लोभ का अन्त करनेवाले को , (जसमानम्) = [शत्रून् हिंसन्तम्] अशुभवृत्तियों को अपने से दूर फेंकनेवाले को (रणे) = संग्राम में (आजिजिन्वथुः) = शक्ति से सर्वथा प्रीणित करते हो । प्राणसाधना से हम काम - क्रोध आदि का अन्त करनेवाले होकर अन्तक होते हैं तथा अशुभ वृत्तियों को दूर फेंकनेवाले होने के कारण हम जसमान बनते हैं । 

    २. हे प्राणापानो ! हमें उन रक्षणों से प्राप्त होओ (याभिः) = जिनसे (अव्यथिभिः) = व्यथाशून्य अथवा अनथक रक्षणों से आप (भुज्युम्) = शरीर - पालन के लिए ही भोजन करनेवाले को प्रीणित करते हो । प्राणसाधना से मनुष्य में ऐसी वृत्ति उत्पन्न होती है कि वह स्वाद से ऊपर उठकर केवल शरीर - रक्षण के लिए ही भोजन ग्रहण करता है । 

    ३. हे प्राणापानो ! आप हमें वे रक्षण प्राप्त कराओ (याभिः) = जिनसे आप (कर्कन्धुम्) = सफेद घोड़ों को धारण करनेवाले को (वय्यम्) = [वेञ् - तन्तुसन्ताने] ज्ञान व कर्म - तन्तु का सन्तान करनेवाले को - सदा ज्ञानपूर्वक कर्म करनेवाले को (जिन्वथः) = प्रीणित करते हो । इन्द्रियाँ ही अश्व हैं । यदि इन्द्रियों विषयों में लिप्त न हों तो वे शुद्ध व श्वेत घोड़ों से उपमित होती हैं । इन श्वेत इन्द्रियों को धारण करनेवाला कर्कन्धु है । प्राणसाधना ही हमें कर्कन्धु व वय्य बनाएगी । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से हम ‘अन्तक , जसमान , भुज्यु , कर्कन्धु व वय्य’ बनें । 
     

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    विषय

    रेभ और वन्दन का रहस्य ।

    भावार्थ

    ( आरणे ) प्रत्यक्ष आमने सामने शत्रु सेना के आजाने पर होने वाले युद्ध में ( जसमानं ) शत्रुओं पर आघात करने वाले ( अन्त कम् ) प्रजा के दुःखों और शत्रुओं का अन्त कर देने वाले पुरुष को (याभिः) जिन उपायों से और (भुज्युम्) प्रजा के पालक, बड़े ऐश्वर्य के भोक्ता सम्पन्न पुरुष को ( याभिः अव्यथिभिः ) जिन पीड़ा या कष्ट से बचाने वाले उपायों से ( जिजिन्वथुः ) प्रसन्न और पुष्ट, सन्तुष्ट करते हो और ( याभिः ) जिन उपायों से ( कर्कन्धुम् ) कर्म कर शिल्पियों को भृति आदि द्वारा बांधने वाले, बड़े एंजिनीयर और (वय्यं च) बस्त्रादि बनाने वाले, शिल्पज्ञ, उत्तम कारीगरों को ( जिन्वथः ) सन्तुष्ट करते हो ( ताभिः ऊतिभिः अश्विना आगतम् ) हे पूर्वोक्त राजप्रजावर्गो ! आप दोनों उन उपायों से एक दूसरे के उपकारक होवो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ द्वितीयस्य अग्निः शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, २, ६, ७, १३, १५, १७, १८, २०, २१, २२ निचृज्जगती । ४, ८, ९, ११, १२, १४, १६, २३ जगती । १९ विराड् जगती । ३, ५, २४ विराट् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् त्रिष्टुप् । २५ त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    रक्षक व अधिष्ठाते यांच्याशिवाय योद्धे शत्रूंबरोबर युद्ध करण्यास व प्रजेचे पालन करण्यास समर्थ बनू शकत नाहीत. जे प्रबंधन करून विद्वानांचे रक्षण करीत नाहीत ते पराजित होऊन राज्य करण्यास समर्थ होऊ शकत नाहीत. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, scholars of science and medicine, come with all that knowledge, protection and promotions and safety measures by which you develop pain killers, antibiotics, tonics and anesthetics in the battle of life and by which you save, sustain and develop the fetus after conception. Come with all these with grace.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are they (Ashvinau) is taught further in the sixth Mantra

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O President of the Assembly and commander of the Army who possess self-control! Please come to us willingly with those protective powers by which you protect a destroyer of miseries and a killer of enemies in a battle, by which inflicting no distress, you preserve a sustainer or nourisher of people, by which you satisfy a man who gives work to many persons by employing them and to a scholar who knows many sciences.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अन्तकम्) दुःखनाशकर्तारम् = Destroyer of miseries. (जसमानम् ) शत्रून हिंसन्तम् = Slaying the foes. (भुज्युम्) पालकम् = Protector or sustainer. (कर्कन्धुम्) कारुकान अन्तति-व्यवहारे बध्नाति तम् । = One who employs many artisans in a business. (वय्यम् ) ज्ञातारम् = Knower or many sciences. अत्र बाहुलकाद् गत्यर्थाद वयधातोर्यत् प्रत्ययः

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Without guardians and protectors, the warriors cannot fight in the battle with their enemies and they cannot preserve the people. Those who do not protect learned persons by making proper arrangements, are defeated and cannot rule over a State properly.

    Translator's Notes

    जसमान is from जसु हिंसायाम् चु: भुज्युम् is from भुज-पालनाभ्यवहारयोः अन्तक is from अति-बन्धने वय्यम् is from वय-गतौ गतेस्खयोऽर्था: ज्ञानंगमनं प्राप्शिव अत्र ज्ञानाथं ग्रहणाद्वय्यं ज्ञातारमिति व्याख्या It is therefore wrong on the part of Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others to take Antaka, Jasamana, Bhujyu and Vayya as the names of certain persons instead of taking them as common nouns denoting certain attributes as the Vedic Terminology requires.

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