ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 112/ मन्त्र 16
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ, द्वितीयस्य अग्निः, शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
याभि॑र्नरा श॒यवे॒ याभि॒रत्र॑ये॒ याभि॑: पु॒रा मन॑वे गा॒तुमी॒षथु॑:। याभि॒: शारी॒राज॑तं॒ स्यूम॑रश्मये॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम् ॥
स्वर सहित पद पाठयाभिः॑ । न॒रा॒ । श॒यवे॑ । याभिः॑ । अत्र॑ये । याभिः॑ । पु॒रा । मन॑वे । गा॒तुम् । ई॒षथुः॑ । याभिः॑ । शारीः॑ । आज॑तम् । स्यूम॑ऽरश्मये । ताभिः॑ । ऊँ॒ इति॑ । सु । ऊ॒तिऽभिः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । आ । ग॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
याभिर्नरा शयवे याभिरत्रये याभि: पुरा मनवे गातुमीषथु:। याभि: शारीराजतं स्यूमरश्मये ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥
स्वर रहित पद पाठयाभिः। नरा। शयवे। याभिः। अत्रये। याभिः। पुरा। मनवे। गातुम्। ईषथुः। याभिः। शारीः। आजतम्। स्यूमऽरश्मये। ताभिः। ऊँ इति। सु। ऊतिऽभिः। अश्विना। आ। गतम् ॥ १.११२.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 112; मन्त्र » 16
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 36; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 36; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथाध्यापकोपदेशकाभ्यां किं कर्त्तव्यमित्याह।
अन्वयः
हे नराऽश्विनाध्यापकोपदेशकौ विद्वांसौ युवां पुरा याभिरूतिभिः शयवे शान्तिर्याभिरत्रये सर्वाणि सुखानि याभिर्मनवे गातुं चेषथुः। याभिः स्यूमरश्मये न्यायकारिणे चेषथुर्याभिः शत्रुभ्यः शारीराजतं ताभिरु स्वसेनारक्षायै स्वागतम् ॥ १६ ॥
पदार्थः
(याभिः) (नरा) नयनकर्त्तारो (शयवे) सुखेन शयनशीलाय (याभिः) (अत्रये) अविद्यमाना आत्मिकवाचिकशारीरिकदोषा यस्मिंस्तस्मै (याभिः) (पुरा) पूर्वम् (मनवे) धार्मिकप्रजापतये राज्ञे। प्रजापतिर्वै मनुः। श० ६। ४। ३। १९। (गातुम्) पृथिवीम्। गातुरिति पृथिवीना०। निघं० १। १। गातुमिति वाङ्ना०। निघं० १। ११। (ईषथुः) प्रापयितुमिच्छतम् (याभिः) (शारीः) शराणामिमागतीः (आजतम्) जानीतम् (स्यूमरश्मये) स्यूमाः संयुक्तरश्मयो न्यायदीप्तयो यस्य तस्मै (ताभिः०) इत्यादि पूर्ववत् ॥ १६ ॥
भावार्थः
अध्यापकोपदेशकयोरिदं योग्यमस्ति विद्याधर्मोपदेशेन सर्वान् जनान् विदुषो धार्मिकान् संपाद्य पुरुषार्थिनः सततं कुर्य्याताम् ॥ १६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब अध्यापक और उपदेशकों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (नरा) उत्तम कार्य्य में प्रवृत्ति करानेवाले (अश्विना) सब विद्याओं के पढ़ाने और उपदेश करनेवाले विद्वान् लोगो ! तुम दोनों (पुरा) प्रथम (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षाओं से (शयवे) सुख से शयन करनेवाले को शान्ति वा (याभिः) जिन रक्षाओं से (अत्रये) शरीर, मन, वाणी के दोषों से रहित पुरुष के लिये सब सुख और (याभिः) जिन रक्षाओं से (मनवे) मननशील पुरुष के लिये (गातुम्) पृथिवी वा उत्तम वाणी को (ईषथुः) प्राप्त कराने की इच्छा करो वा (याभिः) जिन रक्षाओं से (स्यूमरश्मये) सूर्यवत् संयुक्त न्याय प्रकाश करनेवाले पुरुष के लिये सुख की इच्छा करो वा जिनसे शत्रुओं को (शारीः) वाणी की गतियों को (आजतम्) प्राप्त कराओ (ताभिरु) उन्हीं रक्षाओं से अपनी सेनाओं की रक्षा के लिये (सु, आ, गतम्) अच्छे प्रकार उत्साह को प्राप्त हूजिये ॥ १६ ॥
भावार्थ
अध्यापक और उपदेष्टाओं को यह योग्य है कि विद्या और धर्म के उपदेश से सब जनों को विद्वान् धार्मिक करके पुरुषार्थयुक्त निरन्तर किया करें ॥ १६ ॥
विषय
शयु - अत्रि - मनु व स्यूमरश्मि
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (ताभिः ऊतिभिः) = उन रक्षणों से (उ) = निश्चयपूर्वक (सु) = उत्तमता से (आगतम्) = हमें प्राप्त होओ , (याभिः) = जिनसे (नरा) = उन्नति - पथ पर ले - चलनेवाले आप (शयवे) = [शी - Tranquility] शान्तस्वभाव पुरुष के लिए (गातुम्) = मार्ग को (ईषथुः) = प्राप्त कराते [ईष - to give] हो । (याभिः) = जिन रक्षणों से आप (अत्रये) = [अविद्यमानाः त्रयो यस्य] काम , क्रोध , लोभ से ऊपर उठनेवाले पुरुष के लिए मार्ग प्राप्त कराते हो तथा (याभिः) = जिन रक्षणों से आप (पुरा) = सबसे प्रथम (मनवे) = विचारशील पुरुष के लिए मार्ग प्राप्त कराते हो । भावना यह है कि प्राणसाधना के द्वारा मनुष्य उस मार्ग पर चलता है जिससे वह शान्तस्वभाव [शयु] , काम , क्रोध , लोभ को जीतनेवाला [अत्रि] व विचारशील [मनु] बनता है ।
२. हमें उन रक्षणों से प्राप्त होओं (याभिः) = जिनसे (स्यूमरश्मये) = [स्यूम - Happiness] ज्ञानरश्मियों में आनन्द लेनेवाले पुरुष के लिए (शारीः) = [शारि - fraud] छल - छिद्र की भावनाओं को (आजतम्) = कम्पित करके सर्वथा दुर करते हो [अज गतिक्षेपणयोः] । प्राणसाधना के द्वारा मनुष्य को ज्ञान में रुचि उत्पन्न होती है । उसे ज्ञान - प्राप्ति में ही आनन्द आता है और इसे छल - छिद्र से घृणा होती है । यह छल - छिद्र की रुचिवाला नहीं होता । यह छल - छिद्र इसे मृत्युमार्ग प्रतीत होता है । सरलता को ही यह ब्रह्म प्राप्ति का मार्ग समझता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से हम शयु , अत्रि व मनु बनते हैं । स्यूमरश्मि बनकर छल छिद्र से हम ऊपर उठते हैं ।
विषय
missing
भावार्थ
( याभिः ) जिन ज्ञान-साधनों और रक्षा के उपायों सहित ( नरा ) नायक पुरुषो! आप दोनों ( शयवे ) सुख से सोते हुए प्रजाजन और ( शयवे ) सबको शान्तिदायक सुख से शयन कराने वाले राजवर्ग को ( अत्रये ) विविध दुःखों से रहित और इस राष्ट्र में शासक रूप से विद्यमान, ( मनवे ) मननशील पुरुष और प्रजापति राजा को ( गातुम् ) जाने के मार्ग, विज्ञान, भूमि आदि (ईषथुः) प्राप्त कराते हो । ( याभिः ) जिन उपायों सहित (शारीः) बाणों की पंक्तियों और शरधारी या शत्रुहन्ता सेनाओं को (स्यूमरश्मये) किरणों से ओत प्रोत, सूर्य के समान तेजस्वी और प्रजाओं के शासन मर्यादाओं को बांधने वाले शासक पुरुष की रक्षा और राष्ट्र-हित के लिये (आ अवतम् ) शत्रुओं की तरफ चलाते हो, उन साधनों सहित हमें भी प्राप्त होवो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ द्वितीयस्य अग्निः शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, २, ६, ७, १३, १५, १७, १८, २०, २१, २२ निचृज्जगती । ४, ८, ९, ११, १२, १४, १६, २३ जगती । १९ विराड् जगती । ३, ५, २४ विराट् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् त्रिष्टुप् । २५ त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
अध्यापक व उपदेशक यांनी विद्या व धर्माच्या उपदेशाने सर्वांना विद्वान धार्मिक करून सदैव पुरुषार्थयुक्त करावे. ॥ १६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, leaders of humanity, come and bring us those protections and preparations by which you provide peace and security for the common man sleeping in comfort, assure freedom from weakness of body, mind and soul for the man of virtue, elevate the rule of the benevolent ruler to the sunlight of love and justice over the vast earth and wide paths of movement, and shoot arrows of defence for the rule of light, love and justice.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O leaders of men, O teachers and preachers, please come with those protective powers to us willingly, by which you give peace to the person who has a sound sleep at night (owing to the exertion in day time) by which you cause all happiness to the person who is free from all spiritual, vocal and physical defects and by which you give land to a righteous King protector of his subjects; kindly come to us with those aids which you give to a dispenser of justice literally endowed with the rays of justice) and by which you shoot arrows upon the foes.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अत्रये ) अविद्यमाना आत्मिकवाचिकशारीरिकदोषा यस्मिन् तस्मै | = To him who is free from the spiritual, vocal and physical defects. (मनवे) धार्मिकप्रजापतये राज्ञे प्रजापतिर्वै मनुः (शतपथ० ६.४ ३. १९ ) = A righteous king who is protector of his subjects. (स्यूमरश्मये) स्यूमा: संयुक्तरइमयो न्यायदीप्तयो वा यस्य तस्मै । = To a just person. (गातुम् ) पृथिवीम् = Earth.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of the teachers and preachers to make all men learned, righteous and industrious by giving sermons about Vidya (knowledge) and Dharma (righteousness).
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