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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 112 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 112/ मन्त्र 17
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ, द्वितीयस्य अग्निः, शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    याभि॒: पठ॑र्वा॒ जठ॑रस्य म॒ज्मना॒ग्निर्नादी॑देच्चि॒त इ॒द्धो अज्म॒न्ना। याभि॒: शर्या॑त॒मव॑थो महाध॒ने ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याभिः॑ । पठ॑र्वा । जठ॑रस्य । म॒ज्मना । अ॒ग्निः । न । अदी॑देत् । चि॒तः । इ॒द्धः । अज्म॑न् । आ । याभिः॑ । शर्या॑तम् । अव॑थः । म॒हा॒ऽध॒ने । ताभिः॑ । ऊँ॒ इति॑ । सु । ऊ॒तिऽभिः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । आ । ग॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    याभि: पठर्वा जठरस्य मज्मनाग्निर्नादीदेच्चित इद्धो अज्मन्ना। याभि: शर्यातमवथो महाधने ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याभिः। पठर्वा। जठरस्य। मज्मना। अग्निः। न। अदीदेत्। चितः। इद्धः। अज्मन्। आ। याभिः। शर्यातम्। अवथः। महाऽधने। ताभिः। ऊँ इति। सु। ऊतिऽभिः। अश्विना। आ। गतम् ॥ १.११२.१७

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 112; मन्त्र » 17
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 36; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सभासेनापतिभ्यां कथमनुष्ठेयमित्याह ।

    अन्वयः

    हे अश्विना युवां याभिरूतिभिः पठर्वा मज्मना जठरस्य मध्ये चित इद्धोऽग्निर्नेवाज्मन् महाधन आदीदेत्। याभिः शर्य्यातमवथस्ताभिरु प्रजासेनारक्षार्थं स्वागतम् ॥ १७ ॥

    पदार्थः

    (याभिः) (पठर्वा) ये पठन्ति तान् विद्यार्थिन ऋच्छति प्राप्नोति स सेनाध्यक्षः (जठरस्य) उदरस्य मध्ये। जठरमुदरं भवति जग्धमस्मिन् धीयते (वा)। निरु० ४। ७। (मज्मना) बलेन (अग्निः) पावकः (न) इव (अदीदेत्) प्रदीप्येत। दीदयतीति ज्वलतिकर्मसु पठितम्। निघं० १। १६। अत्र दीदिधातोर्लङि प्रथमैकवचने शपो लुक्। (चितः) इन्धनैः संयुक्तः (इद्धः) प्रदीप्तः (अज्मन्) अजन्ति प्रक्षिपन्ति शत्रून् यस्मिंस्तत्र (आ) (याभिः) (शर्य्यातम्) शरो हिंसकान् प्राप्तम् (अवथः) रक्षथः (महाधने) महान्ति धनानि यस्मात् तस्मिँस्ताभिरिति पूर्ववत् ॥ १७ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा कश्चित् शौर्य्यादिगुणैः शुम्भमानो राजा रक्ष्यान् रक्षेत् घात्यान् हन्यादग्निर्वनमिव शत्रुसेना दहेत् शत्रूणां महान्ति धनानि प्रापय्यानन्दयेत्। तथैव सभासेनापतिभ्यामनुष्ठेयम् ॥ १७ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब सभापति और सेनापति को कैसा अनुष्ठान करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अश्विना) सभा और सेना के अधीश ! तुम दोनों (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षाओं से (पठर्वा) पढ़नेवाले विद्यार्थियों को जो प्राप्त होता वा (मज्मना) बल से (जठरस्य) उदर के मध्य (चितः) सञ्चित किये (इद्धः) प्रदीप्त (अग्निः) अग्नि के (न) समान (अज्मन्) जिसमें शत्रुओं को गिराते हैं उस बड़े-बड़े धन की प्राप्ति करानेहारे युद्ध में (आ, अदीदेत्) अच्छे प्रदीप्त होवे, वा (याभिः) जिन रक्षाओं के (शर्य्यातम्) हिंसा करनेहारे को प्राप्त पुरुष की (अवथः) रक्षा करो, (ताभिरु) इन्हीं रक्षाओं से प्रजा सेना की रक्षा के लिये (सु, आ, गतम्) आया-जाया कीजिये ॥ १७ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे कोई शौर्य्यादि गुणों से शोभायमान राजा रक्षणीय की रक्षा करे और मारने योग्यों को मारे और जैसे अग्नि वन का दाह करे वैसे शत्रु की सेना को भस्म करे और शत्रुओं के बड़े-बड़े धनों को प्राप्त कराकर आनन्दित करावे, वैसे ही सभा और सेना के प्रति काम किया करें ॥ १७ ॥

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    विषय

    पठर्वा

    पदार्थ

    १. हे (अश्विना) = प्राणापानो  ! (ताभिः कतिभिः) = उन रक्षणों से (उ) = निश्चयपूर्वक (सु) = उत्तमता से (आगतम्) = हमें प्राप्त होओ (याभिः) = जिन रक्षणों से (पठर्वा) = [पठनं ऋच्छति] स्वाध्याय द्वारा ज्ञान प्राप्त करनेवाला व्यक्ति (जठरस्य) = उदर के (मज्मना) = शोधक बल से , जाठराग्नि के ठीक कार्य करने के कारण धातुओं की ठीक उत्पत्ति से प्राप्त शारीरिक बल के द्वारा (अज्मन्) = संग्राम में (आ) = चारों और (अदीर्दत्) = ऐसा चमकता है (न) = जैसे कि (चितः) = जिसके लिए काष्ठों का चयन किया गया है , वह (इद्धः) = दीप्त (अग्निः) = अग्नि चमकती है । ज्ञान और शक्ति का समन्वय उसे अग्निवत् दीप्त करनेवाला होता है । 

    २. हमें उन रक्षणों को प्राप्त कराओ (याभिः) = जिन रक्षणों से (शर्यातम्) = [शृणातीति शर् , तं प्रति यातं यस्य] हिंसक शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाले को (महाधने) = इस महान् संग्राम में (अवथः) = रक्षित करते हो । प्राणसाधना के द्वारा मनुष्य ‘शर्यात’ बनता है । हमारी हिंसा करनेवाले काम - क्रोध - लोभादि शत्रुओं को यह विनष्ट करता है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना के द्वारा हमारी बुद्धि तीव्र होती है , हम पठर्वा [स्वाध्यायशील] बनते हैं । इस साधना से जाठराग्नि दीप्त होकर बल को बढ़ाती है । प्राणसाधना हमें हिंसक शत्रुओं की हिंसा करने में समर्थ करती है । 
     

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    (याभिः) जिन साधनों और रक्षा के उपायों सहित (जठरस्य) भुक्त पदार्थों को अपने भीतर धारण कर लेने वाले पेट की (अग्निः) सब कुछ पचा लेने वाले आग के समान सब भुक्त अर्थात् अधीन देशों को (मज्मना) अपने महान् बल से ( आदीदेत् ) चमकाता है और जिन साधनों से युक्त होकर ( चितः इद्धः अग्निः न ) सञ्चित काष्ठों में लगे और भड़के हुए चिताग्नि के समान जलते हुए ( अज्मन् ) संग्राम में वीर भटों को अपने तेज से भस्म करने वाला, ( पठर्वा ) पठनशील विद्यार्थियों को प्राप्त करने वाले आचार्य और ( पठर्वा ) वेग से जाने वाले अश्वों का स्वामी सेनापति ( आ ) आगे बढ़ता है, और ( याभिः ) जिन साधनों से युक्त होकर ( महाधने ) संग्राम में ( शर्यातम् ) हिंसक पुरुषों पर चढ़ाई करने वाले शरों और शास्त्रास्त्रों सहित आक्रमण करने वाले सेनापति की ( अवथः ) रक्षा करते हो ( ताभिः ० ) उन सहित होकर तुम दोनों नायक पुरुष हमें भी प्राप्त होवो ।

    टिप्पणी

    पठर्वा–पतद् अर्वा । पृषोदरादित्वात् साधुः । थत्वंछान्दसम् । पठतो ऋच्छति वा ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ द्वितीयस्य अग्निः शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, २, ६, ७, १३, १५, १७, १८, २०, २१, २२ निचृज्जगती । ४, ८, ९, ११, १२, १४, १६, २३ जगती । १९ विराड् जगती । ३, ५, २४ विराट् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् त्रिष्टुप् । २५ त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा एखादा शूर राजा रक्षणीयांचे रक्षण करतो व हनन करण्यायोग्य माणसांचे हनन करतो. जसा अग्नी वनाचा दाह करतो तसे शत्रूच्या सेनेला भस्म करतो. शत्रूंपासून पुष्कळ धन प्राप्त करतो व आनंदी करवितो तसेच सभा व सेनापतीने काम करावे. ॥ १७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, leaders and protectors of the people, come with the support and protections by which the ruler protects and promotes the teachers and the disciples. Come with the passion and power by which the warrior, inspired like fire lit up and blazing with the holy fuel in the vedi, rages and blazes with valour and rectitude in battle. Come with the defences by which you protect the warrior facing a shower of arrows in the mighty battle for justice and development.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should the President of the Assembly and the Commander of the army do is taught further in the 17th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O President of the Assembly and Commander of the army, please come to us willingly with those protective powers by which an Acharya (Preceptor) protects his pupils with his spiritual force or a commander of the Army shines forth in battle with his strength like the digestive fire within the stomach and a hero in war who is attacked by his enemies.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (पठर्वा) ये पठन्ति तान विद्यार्थिनः ऋच्छति-प्राप्नोतीति पठर्वा (आचार्यः) अर्व-गतौ (पठर्वा) पतत् अर्वा-सेनापतिर्वा ) (शर्यातम् ) शरो हिंसकान् प्राप्तम् = Surrounded by violent people.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is Upamalankara or simile used in the Mantra. As a brave king shining with his strength and other noble virtues protects his subjects, kills the wicked and burns the fire burns a forest and having done so, army of his foes as he gains much wealth and gladdens all people, the President of the Assembly and Commander of the Army should also do likewise.

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