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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 30/ मन्त्र 10
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒ला॒तृ॒णो ब॒ल इ॑न्द्र ब्र॒जो गोः पु॒रा हन्तो॒र्भय॑मानो॒ व्या॑र। सु॒गान्प॒थो अ॑कृणोन्नि॒रजे॒ गाः प्राव॒न्वाणीः॑ पुरुहू॒तं धम॑न्तीः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ला॒तृ॒णः । व॒लः । इ॒न्द्र॒ । व्र॒जः । गोः । पु॒रा । हन्तोः॑ । भय॑मानः । वि । आ॒र॒ । सु॒ऽगान् । प॒थः । अ॒कृ॒णो॒त् । निः॒ऽअजे॑ । गाः । प्र । आ॒व॒न् । वाणीः॑ । पु॒रु॒ऽहू॒तम् । धम॑न्तीः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अलातृणो बल इन्द्र ब्रजो गोः पुरा हन्तोर्भयमानो व्यार। सुगान्पथो अकृणोन्निरजे गाः प्रावन्वाणीः पुरुहूतं धमन्तीः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अलातृणः। बलः। इन्द्र। ब्रजः। गोः। पुरा। हन्तोः। भयमानः। वि। आर। सुऽगान्। पथः। अकृणोत्। निःऽअजे। गाः। प्र। आवन्। वाणीः। पुरुऽहूतम्। धमन्तीः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 30; मन्त्र » 10
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! अलातृणो बलो ब्रजो भयमानो भवान् सुगान्पथो व्यार यः पुरा गोर्हन्तोरकृणोद्या पुरुहूतं धमन्तीर्वाणीर्गाः प्रावन्तं ताश्च निरजे व्यार ॥१०॥

    पदार्थः

    (अलातृणः) योऽलं तृणाति सः (बलः) बलवान् (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रापक (ब्रजः) यो ब्रजति गच्छेत् सः (गोः) पृथिव्याः (पुरा) (हन्तोः) हन्तुम् (भयमानः) भयं प्राप्तः। अत्र व्यत्ययेन शानच्। (वि, आर) विशेषेण गच्छति (सुगान्) सुखेन गच्छति येषु तान् (पथः) मार्गान् (अकृणोत्) कुर्य्यात् (निरजे) नितरां गमनाय (गाः) या गच्छन्ति ताः (प्र) (आवन्) प्रकर्षेण रक्षन्ति (वाणीः) सुशिक्षिता वाचः (पुरुहूतम्) बहुभिः प्रशंसितम् (धमन्तीः) शब्दयन्त्यः ॥१०॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः सदैवाऽधर्माचरणाद्भीत्वा धर्म्ये प्रवर्त्तितव्यं दुर्व्यसनानि हत्वा धर्म्यमार्गेण गन्तव्यम् ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) श्रेष्ठ ऐश्वर्य्य के दाता ! (अलातृणः) सम्पूर्ण संसार के प्रलयकर्त्ता (बलः) बलयुक्त (ब्रजः) चलनेवाले (भयमानः) भय को प्राप्त होते हुए आप (सुगान्) सुख से जिनमें मनुष्य आदि चलें ऐसे (पथः) मार्गों को (वि) (आर) विशेष करके प्राप्त होइये जो (पुरा) प्रथम (गोः) पृथिवी का (हन्तोः) नाश करने की (अकृणोत्) क्रिया करें वा जो (पुरुहूतम्) बहुतों से प्रशंसायुक्त (धमन्तीः) शब्द करती हुई (वाणीः) उत्तम प्रकार शिक्षायुक्त (गाः) चलनेवाली वाणी (प्र) (आवन्) अतिशय रक्षा करती हैं उसको और उनको (निरजे) अत्यन्त चलने के लिये विशेष करके प्राप्त होइये ॥१०॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि सदा ही अधर्म के आचरण से डर के धर्म में प्रवृत्त हों और बुरे व्यसनों को त्याग के धर्मयुक्त मार्ग से चलें ॥१०॥

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    विषय

    क्रियाशीलता व उपासना

    पदार्थ

    [१] हे इन्द्र शत्रुओं का विदारण करनेवाले, जितेन्द्रिय पुरुष ! (वलः) = [Veil] तेरे ज्ञान पर आवरण के रूप में आ जानेवाला यह कामरूप शत्रु [वृत्र], (पुराहन्तो:) = तेरे वज्र प्रहार से पूर्व ही (भयमानः) = भयभीत हुआ-हुआ (व्यार) = [विश्लिषो वभूव] छिन्न-भिन्न गतिवाला हो गया। जो वृत्र [= वल= काम] (अलातृण:) = अत्यन्त हिंसित करनेवाला है। जो (गोः व्रजः) -= इन्द्रियों रूप गौओं को अपने में घेर लेनेवाले बाड़े के समान बन जाता है [व्रज-cow-pen]। एक जितेन्द्रिय पुरुष अपने क्रियाशीलता रूप वज्र के प्रहार से इस (वल) = वृत्र व कामवासना के 'व्रज' [बाड़े] को नष्ट कर डालता है। इसमें अवरुद्ध इन्द्रियाँ स्वतन्त्र हो जाती हैं, फिर वे कामवासना का शिकार नहीं होतीं। मार्ग यही है कि मनुष्य क्रियाशील बने । क्रियाशीलता ही वासना को विनष्ट करती है। [२] इस प्रकार यह इन्द्र (गाः निरजे) = इन्द्रियों को विषयों के बाड़े से निर्गत करने के लिए (पथ: सुगान् अकृणोत्) = मार्गों को सुगम करता है। इसी उद्देश्य से उपासक लोग (पुरुहूतं धमन्तीः) = उस बहुतों से पुकारे जानेवाले प्रभु को स्तुत करती हुई (वाणी:) = वाणियों के (प्रावन्) = [प्रकर्षेण अभ्यागच्छन्] प्रति प्रकर्षेण आनेवाले होते हैं, अर्थात् प्रभु का प्रकर्षेण स्तवन करते हैं। प्रभुस्तवन से वासना विनष्ट होती है और इन्द्रियाँ विषयों के बाड़े से मुक्त हो पाती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ– क्रियाशीलता व प्रभु की उपासना द्वारा हम इन्द्रियों को वासना के आक्रमण से बचाएँ ।

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    विषय

    बलवान् राजा के कर्त्तव्य। पक्षान्तर में मेघ का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् (अलातृणः) बहुत अधिक शत्रुओं पर प्रहार करने योग्य, समर्थ (बलः) शत्रु नगरों को घेरने में समर्थ या (वलः = बलः) बलवान् पुरुष जो (गोः व्रजः) गौ के अश्रयभूत बाड़े के समान (गोः) पृथिवी का (व्रजः) एकमात्र आश्रय हो वह (पुरा) सब से प्रथम (हन्तोः) प्रतिपक्ष के आघात से (भयमानः) भय करता हुआ (विः आर) विविध प्रकार की चालें चले। और (निरजे) अपने शत्रु को सर्वथा उखाड़ देने और अपने आप बच निकलने के लिये मार्गों को (सुगाम्) उत्तम सुखपूर्वक गमन करने योग्य (अकृणोत्) बनावे और (पुरुहूतं) बहुतों से प्रशंसित वा विपत्तिकाल में पुकारने योग्य उत्तम नायक को (धमन्तीः) उत्तेजित करने वाली (वाणीः) वाणियों को (प्र अवन्) अच्छी प्रकार सुरक्षित रक्खे और उसको (धमन्तीः) पुकारने वाली (गाः) भूमि निवासिनी प्रजाओं की भी (प्रावन्) अच्छी प्रकार रक्षा करे । (२) मेघपक्ष में—(अलातृणः वलः) विद्युत् आघात करने वाला आकाश में व्यापक मेघ (गोः व्रजः) अति वेगवती विद्युत् का आश्रय है। वा (गोः व्रजः) गौ के आश्रय के समान ही पृथिवी निवासिनी प्रजा का जीवनाश्रय होता है। (भयमानः हन्तोः पुरा व्यार) भयभीत शत्रु जिस प्रकार बलवान् मार से भय करके पहले परे हट जाता है उसी प्रकार वह भी (भयमानः = उभयमानः) अन्तरिक्ष और पृथिवी दोनों में गर्जता हुआ (हन्तोः पुरः) पृथिवी पर जल विद्युतादि के आघात करने के लिये विविध प्रकार से फैल जाता है, विविध मार्गों से जाता है। (पुरुहूतं धमन्ती वाणीः) विद्युतों को प्रदीप्त करती हुई दीप्तियों को वा गर्जनाओं को बहुतों के इष्ट जल को ध्वनित करने वाली गर्जनाओं को सुरक्षित रखता है। (निरजे) सब जल फेंक देने या निकाल देने के लिये सुगम मार्ग बना लेता है (गाः अवन्) बहुतसी भूमि निवासी प्रजाओं की रक्षा करता है। (३) आचार्य—अज्ञान को नाश करने वाला होने से जलातृण है। विद्यार्थी संरक्षा संवरण करने से ‘बल’ है। वेद वाणी का आश्रय या प्राप्ति मार्ग होने से (गोः व्रजः) है। वह दण्ड देने के पहले उसके बुरे पापों से भय करके विविध उपाय करे। शिष्य के बुरे लक्षणों को सर्वथा लक्षणों को सर्वथा दूर करने के सुगम २ मार्ग बनावे। (पुरुहूतं) वहु उपदेश योग्य शिष्य को उपदेश करने वाली नाना वाणियों और (गाः) ज्ञानयुक्त शिष्यों को (प्रावन्) अच्छी प्रकार रक्षा करे। इति द्वितीयो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, २, ९—११, १४, १७, २० निचृतत्रिष्टुप्। ५, ६, ८,१३, १९, २१, २२ त्रिष्टुप्। १२, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ७, १६, १८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी सदैव अधर्माच्या आचरणाला भ्यावे व धर्मास प्रवृत्त व्हावे, तसेच वाईट व्यसनांचा त्याग करून धर्मयुक्त मार्गाने चालावे. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of the universe, omnipotent you are, destroyer of the enemies. You protect the cow stalls, the earth’s orbit and the flow of speech, and the enemy, stricken with fear, retreats even before the blow of the thunderbolt is struck. You create safe and straight highways for the cows to move, for the earths and stars to revolve and for the Divine Speech to flow in the vibrations of nature and the mind of humanity so that songs of celebration arise and resound in space in homage to the Lord invoked and worshipped by the universe.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the State officials are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O conferrer of much wealth ! you will annihilate your foes and are mighty to move everywhere (to discharge your duties). You frighten them, and they are apprehensive (that something untoward may happen). You make good paths for the people to travel and travel by them yourself. Slay him who tries to attack and destroy (spoil) the land. Obtain that well trained speech which takes you and others on the right path. In return, those people admire and protect you from many evils in order to make progress.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should always be engaged in doing good deeds fearing the evil consequences of bad actions. They should follow the path of righteousness by giving up all vices.

    Foot Notes

    (अलातृणः ) योऽलं तृणाति स:। = He who annihilates his foes. (निरजे) नितरां गमनाय। = For going forward or making progress.

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