ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 30/ मन्त्र 2
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
न ते॑ दू॒रे प॑र॒मा चि॒द्रजां॒स्या तु प्र या॑हि हरिवो॒ हरि॑भ्याम्। स्थि॒राय॒ वृष्णे॒ सव॑ना कृ॒तेमा यु॒क्ता ग्रावा॑णः समिधा॒ने अ॒ग्नौ॥
स्वर सहित पद पाठन । ते॒ । दू॒रे । प॒र॒मा । चि॒त् । रजां॑सि । आ । तु । प्र । या॒हि॒ । ह॒रि॒ऽवः॒ । हरि॑ऽभ्याम् । स्थि॒राय॑ । वृष्णे॑ । सव॑ना । कृ॒ता । इ॒मा । यु॒क्ताः । ग्रावा॑णः । स॒म्ऽइ॒धा॒ने । अ॒ग्नौ ॥
स्वर रहित मन्त्र
न ते दूरे परमा चिद्रजांस्या तु प्र याहि हरिवो हरिभ्याम्। स्थिराय वृष्णे सवना कृतेमा युक्ता ग्रावाणः समिधाने अग्नौ॥
स्वर रहित पद पाठन। ते। दूरे। परमा। चित्। रजांसि। आ। तु। प्र। याहि। हरिऽवः। हरिऽभ्याम्। स्थिराय। वृष्णे। सवना। कृता। इमा। युक्ताः। ग्रावाणः। सम्ऽइधाने। अग्नौ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 30; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे हरिवस्त्वं हरिभ्यां प्रयाह्येवं कृते परमा रजांसि ते दूरे न भविष्यन्ति यदि समिधानेऽग्नौ स्थिराय वृष्णे कृतेमा सवना कुर्य्यास्तदा तु युक्ता ग्रावाणश्चिद्बहवो भवेयुः ॥२॥
पदार्थः
(न) निषेधे (ते) तव (दूरे) (परमा) परमाण्युत्कृष्टानि (चित्) अपि (रजांसि) लोकस्थानानि (आ) (तु) (प्र) (याहि) (हरिवः) प्रशस्ताऽश्वयानयुक्त (हरिभ्याम्) अश्वाभ्याम् (स्थिराय) (वृष्णे) बलाय (सवना) ऐश्वर्यसाधकानि कर्माणि (कृता) कृतानि (इमा) इमानि (युक्ताः) उद्युक्ताः (ग्रावाणः) मेघाः। ग्रावाणः इति मेघना०। निघं० १। १०। (समिधाने) प्रदीप्यमाने (अग्नौ) वह्नौ ॥२॥
भावार्थः
यदि मनुष्याः शीघ्रगाम्यश्वैर्देशान्तरं जिगमिषेयुस्तर्हि सर्वं सनीडमेवास्ति। यदि नियमेन वह्निं प्रज्वाल्य तत्र हविर्जुहुयुस्तर्हि वर्षापि सुगमैवास्तीति ज्ञेयम् ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (हरिवः) उत्तम घोड़ों के वाहनों से युक्त ! आप (हरिभ्याम्) घोड़ों से (प्र) (आ, याहि) आइये ऐसा करने से (परमा) उत्तम (रजांसि) लोकों के स्थान (ते) आपके (दूरे) दूर (न) नहीं होंगे जो (समिधाने) हवन करने योग्य प्रदीप्त किये जाते हुए (अग्नौ) अग्नि में (स्थिराय) दृढ़ (वृष्णे) बलवान् के लिये (कृता) किये गये (इमा) इन (सवना) ऐश्वर्य वृद्धि के साधक कर्मों को करो तो (तु) तो (युक्ताः) उद्यत (ग्रावाणः) मेघ (चित्) भी बहुत से होवें ॥२॥
भावार्थ
मनुष्य यदि शीघ्र चलनेवाले घोड़ों से देशान्तर जाने की इच्छा करें, तो सब समीप ही है। यदि नियम से अग्नि को प्रज्वलित कर उसमें होम करें, तो वर्षा होना सुगम ही जानो ॥२॥
विषय
परमलोक की प्राप्ति
पदार्थ
[१] प्रभु इस भक्त से कहते हैं कि (परमाचित् रजांसि) = सर्वोत्कृष्ट लोक भी दूर से दूर 'मर्त्यलोक, पितृलोक, देवलोक व ब्रह्मलोक' इस क्रम में परतम स्थान में स्थित यह ब्रह्मलोक भी (ते दूरे न) = तेरे से दूर नहीं है । हे (हरिवः) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाले जीव! तू (तु) = तो (हरिभ्याम्) = इन ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्वों से (आ प्रयाहि) = इस ब्रह्मलोक में आनेवाला बन । [२] (स्थिराय वृष्णे) = दृढ़ चित्तवृत्तिवाले शक्तिशाली पुरुष के लिए (इमा) = ये (सवना:) = यज्ञ कृता किये गये हैं, अर्थात् वेद में उपदिष्ट इन यज्ञों को जो अपनाता है, वह चित्त में स्थिर व शरीर में वृषन् बनता है। [३] (ग्रावाणः) = स्तोता लोग (समिधाने अग्नौ) = प्रतिदिन दीप्त की जानेवाली अग्नि में (युक्ताः) = अप्रमत्त होते हैं, अर्थात् कभी भी अग्निहोत्रादि कर्मों में प्रमाद नहीं करते ।
भावार्थ
भावार्थ- परागति व मोक्ष को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि हम (क) जितेन्द्रिय बनें, (ख) यज्ञशील हों, (ग) प्रभुस्तवन करते हुए हम अग्निहोत्रादि कर्मों में प्रमाद न करें ।
विषय
वीर, विद्वान्
भावार्थ
हे (हरिवः) वेगवान् अश्वों के स्वामिन् ! (ते) तेरे लिये (परमा चित् रजांसि) दूर से दूर के लोक या प्रदेश भी (दूरे न) दूर नहीं है। तू (हरिभ्याम्) वेगवान् अश्वों से (आ प्रयाहि = आयाहि प्रयाहि) आ जा सकता है। (स्थिराय) स्थिर (वृष्णे) बलवान् मेघ के समान ऐश्वर्यादि के वृष्टि करने वाले तेरे लिये (इमा) ये नाना प्रकार के (सवना) ऐश्वर्य और अभेषेकादि कृत्य (कृता) किये जावें। और (अग्नौ समिधाने) अग्नि के समान तेजस्वी अग्रणी नायक के अच्छी प्रकार प्रदीप्त होने, एवं तेजस्वी होकर चमकते रहने पर (ग्रावाणः) शत्रुओं को शिलापाटों के समान कुचल देने वाले वीर गण भी (युक्ताः) अधीन रहकर सहयोग करते हैं। (२) हे विद्वन् ! तेरे लिये (परमा रजांसि) परम, सर्वोकृष्ट ज्ञान भी दूर, अज्ञेय नहीं है, तू (हरिभ्यां) मन और इन्द्रियों के प्रयोग से उनको प्राप्त कर। स्थिर मति और मनो बन्धन करने में समर्थ तेरे जानने के लिये ही ये (सवना) सब पदार्थ बने हैं तुझ ज्ञानी पुरुष के ज्ञान से प्रकाशित होने पर तेरे अधीन ही ये (ग्रावाणः) स्तुतिशील विद्याभ्यासी जन भी (युक्ताः) मनोयोग दें और विद्या में दत्तचित्त हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, २, ९—११, १४, १७, २० निचृतत्रिष्टुप्। ५, ६, ८,१३, १९, २१, २२ त्रिष्टुप्। १२, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ७, १६, १८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी जर लवकर चालणाऱ्या घोड्यांद्वारे देशान्तरी जाण्याची इच्छा केली तर सर्व समीप असते. जर नियमाने अग्नी प्रज्वलित करून त्यात होम केल्यास वृष्टी होणे सुगम आहे, हे जाणा. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The farthest of spaces are not too far for you, O lord commander of the waves of super energy. Come by the circuit of the vibrations of light, instant carriers of yours. These yajnas are enacted for the lord omnipotent and omnificent on the move without motion, (being omnipresent, immanent and pervasive in every particle of matter, energy and thought). Come, the fire is kindled and blazing, the crush is ready for soma, and the clouds are laden with showers.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of learned persons is dealt.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O master of the vehicles ! you possess indeed good horses (horse power. Ed.). Come with you indeed fast horses. By so doing even the remotest regions will not be at distance for you. If you performed these good acts for increasing your strength and prosperity, there will gather clouds of richness (or raining pure water), when the fire (knowledge) is kindled.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
If men desire to travel with speedy quick-going horses, every place appears to be close. Men should also know that if they kindle the fire and put oblations in it in proper manner, it will be easier to get rains in time.
Foot Notes
(रजांसि ) लोकस्थानानि। लोका रजांस्युच्यन्ते ( N. R. T. 4, 3, 19) = Places in the world. (ग्रावाण:) मेघाः । ग्रावाण इति मेघनाम (N.G. 1, 10) = The clouds.
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