ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 30/ मन्त्र 9
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
नि सा॑म॒नामि॑षि॒रामि॑न्द्र॒ भूमिं॑ म॒हीम॑पा॒रां सद॑ने ससत्थ। अस्त॑भ्ना॒द्द्यां वृ॑ष॒भो अ॒न्तरि॑क्ष॒मर्ष॒न्त्वाप॒स्त्वये॒ह प्रसू॑ताः॥
स्वर सहित पद पाठनि । सा॒म॒नाम् । इ॒षि॒राम् । इ॒न्द्र॒ । भूमि॑म् । म॒हीम् । अ॒पा॒राम् । सद॑ने । स॒स॒त्थ॒ । अस्त॑भ्नात् । द्याम् । वृ॒ष॒भः । अ॒न्तरि॑क्षम् । अर्ष॑न्तु । आपः॑ । त्वया॑ । इ॒ह । प्रऽसू॑ताः ॥
स्वर रहित मन्त्र
नि सामनामिषिरामिन्द्र भूमिं महीमपारां सदने ससत्थ। अस्तभ्नाद्द्यां वृषभो अन्तरिक्षमर्षन्त्वापस्त्वयेह प्रसूताः॥
स्वर रहित पद पाठनि। सामनाम्। इषिराम्। इन्द्र। भूमिम्। महीम्। अपाराम्। सदने। ससत्थ। अस्तभ्नात्। द्याम्। वृषभः। अन्तरिक्षम्। अर्षन्तु। आपः। त्वया। इह। प्रऽसूताः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 30; मन्त्र » 9
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे इन्द्र राजँस्त्वं यथा वृषभो द्यामस्तभ्नात्तथा सामनामिषिरां महीमपारां भूमिं प्राप्येह सदने निससत्थ त्वया प्रसूता आपोऽन्तरिक्षमर्षन्तु ॥९॥
पदार्थः
(नि) (सामनाम्) प्रशस्तानि सामानि विद्यन्ते यस्यां ताम् (इषिराम्) बहुपदार्थप्रापिकाम् (इन्द्र) सवितेव राजन् (भूमिम्) बहवः पदार्था भवन्ति यस्यां ताम् (महीम्) परिमाणेन महतीम् (अपाराम्) पाररहिताम् (सदने) स्थाने (ससत्थ) सीद (अस्तभ्नात्) स्तभ्नाति (द्याम्) (वृषभः) वर्षकः (अन्तरिक्षम्) आकाशं वा (अर्षन्तु) प्राप्नुवन्तु (आपः) जलानि (त्वया) (इह) (प्रसूताः) ॥९॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यो नियमेन प्रकाशं भूमिं च धरति तथैव न्यायेन राज्यं राजा धरेत्। सदैव प्रजासु बलानि वर्धयेत् ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (इन्द्र) सूर्य के तुल्य प्रकाश से युक्त राजन् ! आप जैसे (वृषभः) वृष्टिकर्त्ता सूर्य (द्याम्) अन्तरिक्ष को (अस्तभ्नात्) पुष्टता से धारणकर्त्ता है वैसे (सामनाम्) उत्तम उपमाओं से युक्त (इषिराम्) बहुत पदार्थों की प्राप्ति करानेवाली (महीम्) बड़े परिमाण से युक्त (अपाराम्) जिसका पार नहीं (भूमिम्) जिसमें बहुत पदार्थ होते हैं उस भूमि को प्राप्त होकर (इह) इस (सदने) स्थान में (नि, ससत्थ) बैठो (त्वया) आपसे (प्रसूताः) प्रेरित हुए (आपः) जल (अन्तरिक्षम्) आकाश को (अर्षन्तु) प्राप्त होवें ॥९॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य नियमपूर्वक प्रकाश और भूमि को धारण करता है, वैसे ही न्याय से राजा राज्य को धारण करे और सब काल में प्रजाओं में ही बल बढ़ाया करे ॥९॥
विषय
लोकत्रयी का धारण
पदार्थ
[१] हे (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशालिन्-सर्वशक्तिमन् प्रभो! आप इस (भूमिम्) = भूमि को सदने (नि ससत्थ) = अपने स्थान पर स्थापित करते हैं, जो भूमि (सामनाम्) = [सम अन्] सब के प्राणित करने का कारण बनती है। प्राणित करने के लिए ही (इषिराम्) = अन्नों को उत्पन्न करनेवाली है [अन्नं वै प्राणिनां प्राणाः]। इसीलिए यह भूमि महीम् महनीय-पूजनीय होती है, इसे मातृतुल्य समझा जाता है, जो भूमि (अपाराम्) = अत्यन्त विशाल है। इसका 'पृथिवी' नाम ही इसके पर्याप्त विस्तार का संकेत कर रहा है । [२] वह (वृषभ:) = शक्तिशाली प्रभु (द्याम्) = द्युलोक व (अन्तरिक्षम्) = अन्तरिक्षलोक को अस्तभ्नात् धारण करता है। इन सब लोकों को प्रभु ही धारण करते हैं। हे प्रभो ! इह यहाँ त्वया प्रसूताः = आप से प्रेरित किए गये आप:- जल अर्षन्तु गतिवाले हों। वृष्टि आदि की व्यवस्था से प्रभु ही नदियों के रूप में इन जलों को प्रवाहित करते हैं और इस प्रकार सब प्राणियों का प्राणन सम्भव होता है।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ही भूमि, अन्तरिक्ष व द्युलोक को धारण करते हैं। वे ही यहाँ वृष्टि द्वारा नदियों के रूप में जल प्रवाह की व्यवस्था करते हैं ।
विषय
सजल मेघवत् लोक का धारण। पक्षान्तर में गृहपति का वर्णन।
भावार्थ
(वृषभः) वृष्टि करने हारा सूर्य जिस प्रकार (द्याम् अस्तभ्रात्) तेज को या आकाशस्थ जलों को धारण करता है। और वही स्वयं (सदने) अपने स्थान पर (नि ससत्थ) नियम से स्थिर रहता है और (अपाराम् महीम्) पालकरहित बड़ी भारी (सामनाम्) सम स्थल वाली या एक समान गति से जाने वाली, (इषिराम) अन्न से पूर्ण या क्रान्ति मार्ग से चलने वाली (भूमिं) भूमि को और (अन्तरिक्षं) अन्तरिक्ष को भी (अस्तभ्नात्) धारण करता है। और जिस प्रकार उसी से (प्रसूता) प्रेरित (आपः) जल अन्तरिक्ष और भूमि को (अर्षन्ति) प्राप्त होते हैं उसी प्रकार (वृषभः) शस्त्रवर्षी, बलवान् वीरपुरुष (सदने) अपने आश्रय पर (नि ससत्थ) स्थिर होकर विराजे और पहले (सामनाम्) साम-वचनों से युक्त (इषिराम्) पति के प्रति स्त्री के समान अपने प्रति अनुराग इच्छा से युक्त (महीम्) बड़ी पूज्य (अपाराम्) असीम, अपार वा रक्षक पालक व पूरक पुरुष से रहित (भूमिम्) सब अन्नादि ऐश्वर्यों की उत्पादक भूमि को और (अन्तरिक्षम्) भीतर से स्थित जन समुदाय को और (द्याम्) ज्ञान प्रकाश से युक्त उच्च तेजस्वी जनता वा विद्वत्सभा को भी (अस्तभ्नात्) वश करे। हे (इन्द्र) शत्रुहन्तः ! राजन् (त्वया प्रसूताः) तेरे द्वारा शासित (आपः) प्राप्त प्रजाएं (अर्षन्तु) तुझे प्राप्त हों या सन्मार्ग में (नि अर्षन्तु) नियम से चलें। (२) गृहस्थ में स्त्री (सामना) समान मन वाली, सामयुक्त प्रीतिपूर्वक वचन कहने वाली और समान अधिकार, मानपद से युक्त हो। (इषिरा) अपार, असीम प्रेम वाली या जिसको पतिरूप पालक या उसके अर्धांश का पूरक पुरुष न प्राप्त हुआ हो (द्यौ) ज्ञान और कामना से युक्त हो। ऐसी स्त्री को पुरुष अपने घर में रखकर (अस्तभ्नात्) अपने अधीन रक्खे। पुरुष से उत्पादित (आपः) उत्तम पुत्र गण ही प्राप्त हों। (३) परमेश्वर पुरुष सर्व वशी होने से वृषभ है। समावस्था को प्राप्त, प्रकृति इसकी इच्छा शक्ति से गति करने वाली, महत् तत्व वाली असीम है उसको वह परमेश्वर वश करता है। वह प्रसुप्त अप्रतर्क्य अलक्षणा होने से ‘द्यौ’ है (आपः) हे प्रभो ! वे सब प्राकृत परमाणु नीहारिकामण्डल तेरे ही द्वारा प्रेरित होकर चल रहे हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, २, ९—११, १४, १७, २० निचृतत्रिष्टुप्। ५, ६, ८,१३, १९, २१, २२ त्रिष्टुप्। १२, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ७, १६, १८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य नियमपूर्वक प्रकाश व भूमीला धारण करतो तसेच राजाने न्यायाने राज्य धारण करावे व सदैव प्रजेचे बल वाढवावे. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Lord ruler of the world, seat yourself in the house of yajna on the dear green earth, abundant, peaceful, mighty and measureless. Indra, lord omnipotent and generous sustains the heavens of light and the middle regions of the skies. Let the waters created by you in heaven and skies reach here on the earth. O lord ruler, let the actions performed by you on the seat of yajna reach the skies and the heavens with the fragrance.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of learned persons, state officials is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (the king shining like the sun) ! as the sun upholds the heaven, in the same manner, having obtained the vast, un-bounded lands, which produce various articles and where the mantras of the Sama Veda are chanted, you be seated on the throne firmly. Let the waters engendered you (through the performance of the Yajnas) go up to the firmament.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the sun upholds light and the earth regularly, in the same manner, a king should uphold or preserve his State with justice. He should also increase the power of the people.
Foot Notes
(सामनाम् ) प्रशस्तानि सामानि विद्यन्ते यस्यां ताम्। = On which(land) the hymns of the sama Veda are chanted. (इपिराम्) बहुपदार्थप्रापिकाम् । = Conferrer of various articles.
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