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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 30/ मन्त्र 16
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    सं घोषः॑ शृण्वेऽव॒मैर॒मित्रै॑र्ज॒ही न्ये॑ष्व॒शनिं॒ तपि॑ष्ठाम्। वृ॒श्चेम॒धस्ता॒द्वि रु॑जा॒ सह॑स्व ज॒हि रक्षो॑ मघवन्र॒न्धय॑स्व॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । घोषः॑ । शृ॒ण्वे॒ । अ॒व॒मैः । अ॒मित्रैः॑ । ज॒हि । नि । ए॒षु॒ । अ॒शनि॑म् । तपि॑ष्ठाम् । वृ॒श्च । ई॒म् । अ॒धस्ता॑त् । वि । रु॒ज॒ । सह॑स्व । ज॒हि । रक्षः॑ । म॒घ॒ऽव॒न् । र॒न्धय॑स्व ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सं घोषः शृण्वेऽवमैरमित्रैर्जही न्येष्वशनिं तपिष्ठाम्। वृश्चेमधस्ताद्वि रुजा सहस्व जहि रक्षो मघवन्रन्धयस्व॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्। घोषः। शृण्वे। अवमैः। अमित्रैः। जहि। नि। एषु। अशनिम्। तपिष्ठाम्। वृश्च। ईम्। अधस्तात्। वि। रुज। सहस्व। जहि। रक्षः। मघऽवन्। रन्धयस्व॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 30; मन्त्र » 16
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे मघवन्नहमवमैरमित्रैः यः घोषस्तं संशृण्वे ताँस्त्वं जहि। एषु तपिष्ठामशनिं प्रक्षिप्यैतान् निवृश्च। एतानधस्तात्कृत्वें विरुज दुःखं सहस्व रक्षो जहि पापिनो रन्धयस्व ॥१६॥

    पदार्थः

    (सम्) सम्यक् (घोषः) वाणीः। घोष इति वाङ्ना०। निघं० १। ११। (शृण्वे) (अवमैः) अधमैः (अमित्रैः) शत्रुभिः (जहि)। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (नि) (एषु) (अशनिम्) वज्रम् (तपिष्ठाम्) अतिशयेन तप्ताम् (वृश्च) छिन्धि (ईम्) सततम् (अधस्तात्) अधो निपात्य (वि) (रुज) रुग्णान् कुरु। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (सहस्व) (जहि) (रक्षः) दुष्टस्वभावं प्राणिनम् (मघवन्) बहुधनयुक्त (रन्धयस्व) ताडयस्व ॥१६॥

    भावार्थः

    हे वीरा या वाणी शत्रुभिः क्रियेत तां श्रुत्वाऽभीत्यैतेषामुपरि शस्त्राणि प्रक्षिप्य विच्छिन्नान् कुरुत अनेनैश्वर्यवन्तो भवत ॥१६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (मघवन्) बहुत धनों से युक्त मैं (अवमैः) नीच (अमित्रैः) शत्रुओं जो (घोषः) घोर वाणी उसको (सम्) बहुत (शृण्वे) सुनता हूँ इससे उनको आप (जहि) मारिये और (एषु) इन शत्रुओं में (तपिष्ठाम्) अतिशय तपते हुए (अशनिम्) वज्र को फेंक के इनको (नि, वृश्च) उत्तम प्रकार विनाश कीजिये और इनको (अधस्तात्) नीचे गिराय के (ईम्) निरन्तर (वि) (रुज) रोगग्रस्त कीजिये और दुःख को (सहस्व) सहिये (रक्षः) दुष्ट स्वभाववाले प्राणी का (जहि) नाश कीजिये और पापी लोगों को (रन्धयस्व) ताड़िये ॥१६॥

    भावार्थ

    हे वीर पुरुषो ! जो वाणी शत्रुओं से उच्चारण की जाय, उसको सुन उनके सन्मुख जा और उनके ऊपर शस्त्रों का प्रहार करके उन्हें छिन्न-भिन्न करो, इससे ऐश्वर्यवाले होओ ॥१६॥

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    विषय

    यज्ञ व प्रभुस्तवन द्वारा शत्रुओं का समूल विनाश

    पदार्थ

    [१] गतमन्त्र के अनुसार यज्ञों व प्रभुप्राप्ति के मार्ग का उपदेश प्राप्त करके जब यह (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष यज्ञों में मन्त्रोच्चारण करे व प्रभु स्तवन करे, तो (घोषः) = यह शब्द (अवमैः) = इन निकृष्ट (अमित्रैः) = काम आदि शत्रुओं से (संशृण्वे) = सुना जाए। उस शब्द को सुनकर ही वे भयभीत होकर हमारे से दूर चले जाएँ। (एषु) = इन शत्रुओं पर (तपिष्ठाम् =) अत्यन्त संतप्त करनेवाले (अशनिम्) = [sacrificial role to kill an enemy] अनुयाज नामक यज्ञास्त्र को (वि जहि) = निश्चय से फेंक [हन् गतौ] इन कामादि शत्रुओं का संहार इस अनुयाज से ही होता है। हम यज्ञादि कर्मों में लगे रहें, काम आदि शत्रु स्वयं विनष्ट हो जाते हैं। [२] (ईम्) = निश्चय से इन शत्रुओं को (अधस्ताद् वृश्च) = नीचे से काट डाल, अर्थात् इनका मूल से उच्छेद कर दे। विरुजा इनको विशेषरूप से भंगकर । (सहस्व) = इनको कुचल दे। हे (मघवन्) = ज्ञानैश्वर्य सम्पन्न जीव ! तू जहि इनको मार डाल। (रक्षः) = इन राक्षसी वृत्तियों को (रन्धयस्व) = चीर-फाड़ दे। इन अशुभ वृत्तियों को समाप्त करके जीवनयात्रा में आगे बढ़ ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम काम-क्रोध आदि का विनाश करके जीवनयात्रा में आगे बढ़ें। इनका विनाश यज्ञों व प्रभु-स्तवन में लगे रहने से ही होता है।

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    विषय

    शत्रु का महास्त्रों से नाश करने का उपदेश।

    भावार्थ

    हे (मघवन्) पूज्य ! सेनापते ! (अवमैः) नीच, अधम, (अमित्रैः) स्नेह न करने वाले शत्रुजनों द्वारा तेरा (घोषः) गर्जन, अस्त्रों का गर्जन (शृण्वे) सुना जाय। और (एषु) उन पर तू (तपिष्ठाम्) अति सन्तापदायक अग्नि से खूब प्रज्वलित, (अशनिं) अशनि नामक विद्युत्वत् अस्त्र, तोप (विजहि) चलाकर शत्रु का नाश कर। (ईम्) इन शत्रुओं को सब तरफ़ से (वृश्च) शस्त्रों से काट (विरुज) विविध प्रकार से पीड़ित कर और उनको तोड़, (सहस्व) उनको पराजित कर। (रक्षः) आगे बढ़ने से या सत्कार्यों के करने से रोकने वाले बलवान् विघ्नकारियों को (जहि) मार (रन्धयस्व) विनष्ट कर। तपिष्ठ अशनि ‘तोप’ है जिसका परिणाम यह है शत्रु के शरीर कटें, विविध प्रकार सैन्य टूटे फूटें, पराजित हों। ‘तोप’, ‘तपिष्ठ’ दोनों शब्दों की तुलना करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, २, ९—११, १४, १७, २० निचृतत्रिष्टुप्। ५, ६, ८,१३, १९, २१, २२ त्रिष्टुप्। १२, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ७, १६, १८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे वीर पुरुषांनो! जी (दुष्ट) वाणी शत्रू उच्चारतात ती ऐकून त्यांच्यावर शस्त्रांचा प्रहार करून त्यांचा नाश करा व ऐश्वर्यवान व्हा. ॥ १६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of majesty, I hear the tumult of the covert enemies below. Strike on them the fieriest thunderbolt. Pluck them off from the root. Challenge and beat them down, destroy them, annihilate them, eliminate the demons.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The functions and duties of the State officials.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

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    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O heroes ! what sound is made by the foes, hear it and hurl weapons at of them and grind them to dust. Thus by conquering them be prosperous.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O heroes ! what sound is made by the foes, hear it and hurl weapons at of them and grind them to dust. Thus by conquering them be prosperous.

    Foot Notes

    (ईम् ) सततम् । = Constantly. (रक्ष:) दुष्टस्वभावं प्राणिनम् । = To wicked person. ( रन्धयस्व ) ताडयस्व 1 = Punish, beat.

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