ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 30/ मन्त्र 18
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
स्व॒स्तये॑ वा॒जिभि॑श्च प्रणेतः॒ सं यन्म॒हीरिष॑ आ॒सत्सि॑ पू॒र्वीः। रा॒यो व॒न्तारो॑ बृह॒तः स्या॑मा॒स्मे अ॑स्तु॒ भग॑ इन्द्र प्र॒जावा॑न्॥
स्वर सहित पद पाठस्व॒स्तये॑ । वा॒जिऽभिः॑ । च॒ । प्र॒ने॒त॒रिति॑ प्रऽनेतः । सम् । यत् । म॒हीः । इषः॑ । आ॒ऽसत्सि॑ । पू॒र्वीः । रा॒यः । व॒न्तारः॑ । बृ॒ह॒तः । स्या॒म॒ । अ॒स्मे इति॑ । अ॒स्तु॒ । भगः॑ । इ॒न्द्र॒ । प्र॒जाऽवा॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वस्तये वाजिभिश्च प्रणेतः सं यन्महीरिष आसत्सि पूर्वीः। रायो वन्तारो बृहतः स्यामास्मे अस्तु भग इन्द्र प्रजावान्॥
स्वर रहित पद पाठस्वस्तये। वाजिऽभिः। च। प्रनेतरिति प्रऽनेतः। सम्। यत्। महीः। इषः। आऽसत्सि। पूर्वीः। रायः। वन्तारः। बृहतः। स्याम। अस्मे इति। अस्तु। भगः। इन्द्र। प्रजाऽवान्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 30; मन्त्र » 18
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे प्रणेतरिन्द्र ! यद्यस्त्वं वाजिभिरन्यैः साधनैश्च पूर्वीर्महीरिष समासत्सि ये बृहतो वन्तारो रायः सन्ति तेऽस्मे स्वस्तये सन्तु। प्रजावान् भगश्च तानि प्राप्य वयं सुखिनः स्याम ॥१८॥
पदार्थः
(स्वस्तये) सुखाय (वाजिभिः) तुरङ्गैरिव वेगवद्भिरग्न्यादिभिः (च) (प्रणेतः) यः सत्याऽसत्ये प्रणयति तत्सम्बुद्धौ (सम्) (यत्) यः (महीः) महतीः (इषः) इच्छाः (आसत्सि) समन्तात्सीदसि। अत्र बहुलं छन्दसीति शपो लुक्। (पूर्वीः) पूर्वैः प्राप्ताः (रायः) धनानि (वन्तारः) विभाजकाः (बृहतः) महतः (स्याम) भवेम (अस्मे) अस्माकम् (अस्तु) भवतु (भगः) ऐश्वर्य्यम् (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त (प्रजावान्) बह्व्यः प्रजा विद्यन्ते यस्मिन् सः ॥१८॥
भावार्थः
ये मनुष्याः सुखाय बहूनि साधनानि समादधति ते ऐश्वर्यं प्राप्य मोदन्ते ॥१८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (प्रणेतः) सत्य और असत्य के निश्चयकारक (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य से युक्त ! (यत्) जो आप (वाजिभिः) घोड़ों के सदृश वेगयुक्त अग्नि आदि पदार्थों तथा और साधनों से (पूर्वीः) पूर्व जनों से प्राप्त (महीः) बड़ी (इषः) इच्छाओं से (सम्) (आसत्सि) सब प्रकार वर्त्तमान हैं (जो) (बृहतः) बड़े (वन्तारः) विभाग करनेवाले (रायः) धन हैं वे (अस्मै) हम लोगों के (स्वस्तये) सुख के लिये (अस्तु) होवें (प्रजावान्) बहुत प्रजाओं से युक्त (भगः) ऐश्वर्य और उनको प्राप्त होकर हम लोग सुखी (स्याम) होवें ॥१८॥
भावार्थ
जो मनुष्य लोग सुख के लिये बहुत से साधनों को एकत्र करते, वे ऐश्वर्य को प्राप्त होके आनन्द को प्राप्त होते हैं ॥१८॥
विषय
राय: वन्तार: [धन का संविभाग करनेवाले]
पदार्थ
[१] हे (प्रणेतः) = संसार-चक्र के संचालक प्रभो! आप (वाजिभिः) = शक्तिशाली इन्द्रियों द्वारा (स्वस्तये) = हमारे कल्याण के लिए होते हैं । (यत्) = जब आप (सं आसत्सि) = हमारे हृदयों में आसीन होते हैं, तो हम (मही:) = महनीय (पूर्वी:) = पालन व पूरण करनेवाले (इषः) = अन्नों को तथा (बृहतः रायः) = बढ़ते हुए धनों को (वन्तारः) = सम्भक्त करनेवाले स्याम हों । प्रभु को हृदय में आसीन हुआहुआ जानकर हम पुरुषार्थवाले होते हैं, तो हमें उत्तम अन्न व धन प्राप्त होते हैं, उन अन्नों व धनों का हम संविभागपूर्वक सेवन करते हैं। [२] (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (अस्मे) = हमारे लिए (प्रजावान्) = उत्तम सन्तानोंवाला (भगः) = ऐश्वर्य (अस्तु) = हो, अर्थात् हमें ऐश्वर्य प्राप्त हो और वह ऐश्वर्य हमारी सन्तानों की शक्तियों के विकास का कारण बने। धन का संविभागपूर्वक सेवन ही हमें वस्तुतः उत्तम सन्तानों को प्राप्त कराता है 'श्रदस्मै वचसे नरो दधातन, यदाशीर्दा दम्पती वाममश्नुतः' दानपूर्वक धन का उपभोग ही यज्ञशेष का सेवन है, यही अमृत का पान है।
भावार्थ
भावार्थ- हमारी इन्द्रियाँ उत्तम हों। उत्तम अन्न व धन हमें प्राप्त हों, हम उन्हें बाँटकर सेवन करनेवाले हों। हमारा धन इस प्रकार विनियुक्त हो कि हमारी प्रजाएँ उत्तम बनें।
विषय
शत्रु का महास्त्रों से नाश करने का उपदेश।
भावार्थ
हे (प्रणेतः) उत्तम नेता सेनापते ! तू (वाजिभिः) संग्राम करने में कुशल वीर पुरुषों, अश्वों और उत्तम ज्ञानवान् पुरुषों सहित (यत्) जब (पूर्वीः) पूर्व, वंशपरम्परा से प्राप्त या पूर्व से शिक्षित (महीः) बड़ी २, पूज्य (इषः) सेनाओं पर (स्वस्तये) हम प्रजाजन वा राष्ट्र के कल्याण के लिये (आ सत्सि) अध्यक्ष रूप से विराजे हम (बृहतः) बड़े २ (रायः) ऐश्वर्यों के (वन्तारः) विभाग करवाने वाले (स्याम) हों। (अस्मे) हमें हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! सेनापते ! (प्रजावान् भगः) उत्तम सन्तान और उत्तम प्रजा से युक्त ऐश्वर्य (अस्तु) प्राप्त हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, २, ९—११, १४, १७, २० निचृतत्रिष्टुप्। ५, ६, ८,१३, १९, २१, २२ त्रिष्टुप्। १२, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ७, १६, १८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे सुखासाठी पुष्कळ साधने एकत्र करतात ती ऐश्वर्य प्राप्त करून आनंद भोगतात. ॥ १८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, discriminative leader and pioneer in the pursuit of truth and excellence, as for the good and well being of life, with your warlike heroes and powers of science and technology, you sit on the seat of the earth’s yajna, preside over the wealth of the nations and guide the ambitions of humanity revealed and pursued of old. May we, we pray, be sharers in the vast wealth and prosperity of the world and may the blessings of generations of man power and honour, prosperity and excellence shower upon us all under your leadership.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of administrators and rulers is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O discriminator between truth and falsehood ! O leader blessed with much wealth (of wisdom etc. ) ! you fulfil your great noble desires with the help of the speedy and powerful horse (conveyors) like fire, electricity and other things. Let it may be for our welfare. May we become mighty and may there be to us wealth accompanied by good progeny. May we be distributors of great wealth and always happy.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who gather many means for happiness, acquire wealth and get delight.
Foot Notes
(वाजिभिः) तुरङ्गैखरिव वेगवभिदरग्न्यादिभिः । (वाजिभिः) वाजी इत्यश्वनाम ( N. G. 1, 14 ) वज-गतौ (भ्वा०) वाज इति बलनाम (N.G. 2, 9) = With the aid of the speedy and powerful fire, electricity etc. which are like quick going horses. (वन्तार:) विभाजकाः। = Distributers.
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