ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 30/ मन्त्र 6
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
प्र सू त॑ इन्द्र प्र॒वता॒ हरि॑भ्यां॒ प्र ते॒ वज्रः॑ प्रमृ॒णन्ने॑तु॒ शत्रू॑न्। ज॒हि प्र॑ती॒चो अ॑नू॒चः परा॑चो॒ विश्वं॑ स॒त्यं कृ॑णुहि वि॒ष्टम॑स्तु॥
स्वर सहित पद पाठप्र । सु । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । प्र॒ऽवता॑ । हरि॑ऽभ्याम् । प्र । ते॒ । वज्रः॑ । प्र॒ऽमृ॒णन् । ए॒तु॒ । शत्रू॑न् । ज॒हि । प्र॒ती॒चः । अ॒नू॒चः । परा॑चः । विश्व॑म् । स॒त्यम् । कृ॒णु॒हि॒ । वि॒ष्टम् । अ॒स्तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सू त इन्द्र प्रवता हरिभ्यां प्र ते वज्रः प्रमृणन्नेतु शत्रून्। जहि प्रतीचो अनूचः पराचो विश्वं सत्यं कृणुहि विष्टमस्तु॥
स्वर रहित पद पाठप्र। सु। ते। इन्द्र। प्रऽवता। हरिऽभ्याम्। प्र। ते। वज्रः। प्रऽमृणन्। एतु। शत्रून्। जहि। प्रतीचः। अनूचः। पराचः। विश्वम्। सत्यम्। कृणुहि। विष्टम्। अस्तु॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 30; मन्त्र » 6
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे इन्द्र हरिभ्यां युक्ते रथे प्रवता मार्गेण भवान् वज्र इव शत्रून्प्रमृणन्प्रैतु। एवं ते विजयो भवति त्वं प्रतीचोऽनूचः पराचः शत्रून्प्रजहि विश्वं सत्यं सुकृणुहि यतो विष्टं चास्तु एवं ते सत्कीर्त्तिः प्रवर्त्तेत ॥६॥
पदार्थः
(प्र) (सु) (ते) तव (इन्द्र) सूर्य्यइव वर्त्तमान (प्रवता) अर्वाचीनेन मार्गेण (हरिभ्याम्) सुशिक्षिताभ्यामश्वाभ्याम् (प्र) (ते) तव (वज्रः) किरण इव शस्त्रसमूहः (प्रमृणन्) प्रकर्षेण हिंसन् (एतु) प्राप्नोतु (शत्रून्) दुष्टकर्मकर्तॄन् (जहि) हिन्धि (प्रतीचः) पश्चात् स्थितान् (अनूचः) कपटेनानुकूलान् (पराचः) पराग्भूतान् दूरस्थान् (विश्वम्) (सत्यम्) (कृणुहि) (विष्टम्) व्याप्तम् (अस्तु) ॥६॥
भावार्थः
ये मनुष्या दुष्टाचारिणो मनुष्यादिप्राणिनो निरुध्य सत्यं प्रवर्त्तयेयुस्ते सुखेनानन्दमाप्नुयुः ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (इन्द्र) सूर्य के सदृश प्रकाशमान ! (हरिभ्याम्) उत्तम प्रकार शिक्षायुक्त घोड़ों से युक्त रथ में (प्रवता) उत्तम मार्ग से आप जैसे (वज्रः) किरणों के सदृश शस्त्रों का समूह और (शत्रून्) दुष्ट कर्म करनेवालों को (प्रमृणन्) अत्यन्त नाश करते हुए (प्र, एतु) प्राप्त हूजिये इस प्रकार (ते) आपका विजय होता है आप (प्रतीचः) पीछे वर्त्तमान (अनूचः) और कपट से अनुकूल अर्थात् (पराचः) दूर स्थल में विराजमान शत्रुओं की (प्र) (जहि) हिंसा करो तथा (विश्वम्) संपूर्ण (सत्यम्) सत्य को (सुकृणुहि) अच्छे प्रकार बढ़ाओ जिससे वह (विष्टम्) व्याप्त (अस्तु) हो ॥६॥
भावार्थ
जो मनुष्य दुष्ट आचरण करनेवाले मनुष्य आदि प्राणियों का निवारण करके सत्य का प्रचार करें, वे सुख से आनन्द भोगते हैं ॥६॥
विषय
प्रभु में प्रवेश
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (हरिभ्याम्) = ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्वों से युक्त (ते) = तेरा यह शरीररूप रथ (प्रवता) = निम्न मार्ग से, अर्थात् विनीतता के मार्ग से (सु) = अच्छी प्रकार (प्र एतु) = आगे और आगे गतिवाला हो । (ते) = तेरा (वज्रः) = वज्र, अर्थात् क्रियाशीलता [वज गतौ] (शत्रून्) = वासनारूप शत्रुओं को (प्रमृणन्) = हिंसित करता हुआ (प्र एतु) = प्रकृष्ट गतिवाला हो । तू सदा उत्तम कर्मों में लगा रहकर इन वासनारूप शत्रुओं को कुचल डाल । [२] (प्रतीच:) = तेरे प्रति आनेवाले, (अनूचः) = पीछे से आनेवाले व (परा चः) = दूर से ही आक्रमण करनेवाले इन सब शत्रुओं को तू जहि नष्ट कर | इनको नष्ट करके तू (विश्वं सत्यं कृणुहि) = सब कर्मों को सत्य करले। तेरा कोई कर्म असत् न हो। इस प्रकार सत्य को अपनाने से (विष्टं अस्तु) = तेरा उस प्रभु में प्रवेश हो । प्रभु सत्यस्वरूप हैं । सत्य प्रभु को पाने का अधिकारी वही बनता है जो कि सत्य को अपना सकता है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम विनीततापूर्वक प्रभु की ओर गतिवाले हों। वासनाओं को विनष्ट करके सत्य को अपनाएँ । यही प्रभु में प्रवेश का प्रमुख साधन है।
विषय
वीर सेनापति के कर्त्तव्य, शत्रुनाश, प्रजापालन
भावार्थ
हे (इन्द्र) सूर्य के समान तेजस्विन् ! (ते वज्रः) तेरा वेगवान् रथ (हरिभ्यां) वेगवान् दो रथों से युक्त होकर (प्रवता) प्रबल वेग से और उत्तम मार्ग से (प्र सु एति) अति उत्तम रूप से आगे बढ़े। और (ते वज्रः) तेरा खड्ग, शस्त्र बल भी (शत्रून् प्रमृणन्) शत्रुओं को अच्छी प्रकार नाश करता हुआ (प्र एतु) आगे बढ़े। तू (प्रतीचः) प्रतिकूल दिशा से आने वा प्रतिपक्षी शत्रुओं को और (अनूचः) कपट वृत्ति से अनुकूल वा पीछे से आक्रमण करने वाले और (पराचः) दूर गये, दूर के शत्रुओं को भी (प्रजहि) आगे बढ़कर मार और तू (विश्वं) सब (सत्यं) यथार्थ बात को (प्र सु कृणु) अच्छी प्रकार प्रकाशित कर। और यह सत्य (विष्टम् अस्तु) सर्वत्र राष्ट्र में फैले। (२) हे परमेश्वर ! तेरा (वज्रः) गम्य, शरणयोग्य और अज्ञाननाशक ज्ञान हम शिष्यों को कर्म और ज्ञान द्वारा प्राप्त हो। तू बाधक प्रतिपक्षी क्रोधादि व्युत्थानों को अनुकूल सुख रूप से प्राप्त व्यसनों और दूरगत चिरकालिक संस्कारों को नष्ट कर समस्त सत्य को प्रकाशित करता वा विश्व जगत् को सत् रूप में प्रकट करता है वह सत्य ही सर्वत्र व्यापता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, २, ९—११, १४, १७, २० निचृतत्रिष्टुप्। ५, ६, ८,१३, १९, २१, २२ त्रिष्टुप्। १२, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ७, १६, १८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे दुष्ट आचरण करणाऱ्या माणसांचे निवारण करून सत्याचा प्रचार करतात ती आनंद भोगतात. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, may your chariot going forward by the speed of winds and sunrays move on majestically. May your thunderbolt, destroying the enemies, shoot forward victorious. Destroy the opposition at the back, close at hand in secret, and upfront in action. Let truth reign in the world and let it prevail everywhere.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the ruling persons are mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king shining like the sun, come in your chariot drawn by the well trained horses on the straight smooth and new path. Let your destroying the thunderbolt-like rays of the sun (weapons) fall upon the enemies. In this way, you would win. Slay those wicked and deceitful foes that assail on the front or rear positions or are camping far away. Make the whole world, the abode of truth and let that truth pervade the world.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons enjoy bliss with delight who overcome the wicked men and prompt them to do good deeds.
Foot Notes
(अनूच:) कपटेनानुकूलान् । = Deceitful persons, cheats. (पराच:) पराग्भूतान् दूरस्थान्। = Standing far away.
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