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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 30/ मन्त्र 12
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    दिशः॒ सूर्यो॒ न मि॑नाति॒ प्रदि॑ष्टा दि॒वेदि॑वे॒ हर्य॑श्वप्रसूताः। सं यदान॒ळध्व॑न॒ आदिदश्वै॑र्वि॒मोच॑नं कृणुते॒ तत्त्व॑स्य॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दिशः॑ । सूर्यः॑ । न । मि॒ना॒ति॒ । प्रऽदि॑ष्टाः । दि॒वेऽदि॑वे । हर्य॑श्वऽप्रसूताः । सम् । यत् । आन॑ट् । अध्व॑नः । आत् । इत् । अश्वैः॑ । वि॒ऽमोच॑नम् । कृ॒णु॒ते॒ । तत् । तु । अ॒स्य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिशः सूर्यो न मिनाति प्रदिष्टा दिवेदिवे हर्यश्वप्रसूताः। सं यदानळध्वन आदिदश्वैर्विमोचनं कृणुते तत्त्वस्य॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिशः। सूर्यः। न। मिनाति। प्रऽदिष्टाः। दिवेऽदिवे। हर्यश्वऽप्रसूताः। सम्। यत्। आनट्। अध्वनः। आत्। इत्। अश्वैः। विऽमोचनम्। कृणुते। तत्। तु। अस्य॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 30; मन्त्र » 12
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    यः सूर्य्यो न दिवेदिवे हर्यश्वप्रसूता प्रदिष्टा दिशो मिनाति। आद्यद्योऽश्वैरध्वनः समानट् विमोचनं कृणुते तदित्त्वस्य भूषणमिति वेद्यम् ॥१२॥

    पदार्थः

    (दिशः) पूर्वाद्याः (सूर्य्यः) सविता (न) इव (मिनाति) (प्रदिष्टाः) याः प्रदिश्यन्ते ताः (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (हर्यश्वप्रसूताः) हरयो हरणशीलाः अश्वाः किरणा यस्य तेन प्रसूता जनिताः (सम्) (यत्) (आनट्) व्याप्नोति (अध्वनः) मार्गान् (आत्) आनन्तर्य्ये (इत्) एव (अश्वैः) तुरङ्गैः (विमोचनम्) (कृणुते) करोति (तत्) (तु) (अस्य) ॥१२॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यन्मनुष्या विद्याकुसंस्कारदुःखानि विमोच्य सूर्य्योऽन्धकारमिवाऽन्यायं निवर्त्य सर्वासु दिक्षु कीर्त्तिं प्रसारयन्ति तदेवैषां कर्त्तव्यं कर्माऽस्ति ॥१२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    जो (सूर्य्यः) सूर्य्य के (न) तुल्य (दिवेदिवे) प्रतिदिन (हर्यश्वप्रसूताः) हरणशील किरणोंवाले से उत्पन्न (प्रदिष्टाः) सूचना से दिखाई गई (दिशः) दिशाओं को (मिनाति) अलग-अलग करता है (आत्) अनन्तर (यत्) जो (अश्वैः) घोड़ों से (अध्वनः) मार्गों को (सम्) (आनट्) व्याप्त होता तथा (विमोचनम्) त्याग (कृणुते) करता है (तत्, इत्) वही (तु) तो (अस्य) इसका भूषण है, ऐसा जानना चाहिये ॥१२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो पुरुष अविद्या दुष्ट संस्कार और दुःखों को त्याग के जैसे सूर्य्य अन्धकार को दूर करता है वैसे अन्याय को दूर करके सम्पूर्ण दिशाओं में यश को फैलाते हैं, यही इनका कर्त्तव्य कर्म है ॥१२॥

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    विषय

    सूर्योदय व सूर्यास्त

    पदार्थ

    [१] (सूर्यः) = यह सूर्य (दिवे दिवे) = प्रतिदिन (हर्यश्वप्रसूता:) = [हरयः अश्वाः यस्य] हर्यश्व, अर्थात् उस प्रभु से प्रेरित (प्रदिष्टाः दिश:) = संकेतित दिशाओं को (न मिनाति) = हिंसित नहीं करता। प्रभु ने जिस-जिस दिशा में सूर्य की गति का निश्चय किया है, उस उस दिशा में सूर्य ठीक गति कर रहा है। प्रभु 'हर्यश्व' हैं, उस प्रभु से जीवों के लिए दिये गये इन्द्रियरूप अश्व जीवों के दुःखों का हरण करनेवाले हैं। सूर्य के अन्दर स्थापित ये किरणरूप अश्व भी सर्वत्र प्राणशक्ति का संचार करके दुःखों का हरण करनेवाले हैं। प्रभु से निर्दिष्ट दिशा में सूर्य गति कर रहा है । [२] (यदा) = जब यह सूर्य (अध्वनः) = मार्गों को (अश्वैः) = अपने किरणरूप अश्वों से (आनट्) = व्याप्त कर चुकता है, (आत् इत्) = तब उसके बाद (विमोचनं कृणुते) = मानो वह अश्वों को खोल डालता है। अब रात्रि आती है और सर्वत्र अन्धकार का राज्य हो जाता है। (तत् तु अस्य) = वह सब तो वस्तुतः उस प्रभु का कार्य है। यह सूर्योदय व सूर्यास्त की व्यवस्था भी प्रभु के अधीन है। प्रभु के नियमों के अनुसार पृथ्वी की गति के कारण सूर्य उदय व अस्त होता हुआ प्रतीत होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु की व्यवस्था के अनुसार सूर्य निश्चित दिशा में गति करता है- उदय व अस्त होता हुआ प्रतीत होता है।

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    विषय

    मेघ सूर्यवत् प्रजा को अन्न देने का कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (यत् = यः) जो (सूर्यः न) सूर्य के समान तेजस्वी होकर (दिवे दिवे) प्रति दिन (हर्यश्वप्रसूताः) वेगवान् सैन्यों के नाम का प्रशंसित (प्रदिष्टाः) उत्तम रीति से आज्ञावशवर्त्ती (दिशः) दिशाओं में रहने वाली अन्य प्रजाओं को या शत्रु सेनाओं को (मिनाति) अपने आज्ञा के वश करता या उखाड़ फेंकता है। वह (अध्वनः) सब मार्गों और प्रदेशों को (अश्वैः) वेगवान् अश्वों और आशु मगन करने वाले साधनों के समान अच्छी प्रकार वश करे। और (तत् आत् इत्) तब उसके अनन्तर ही वह (अस्य) उस राष्ट्र अर्थात् उत्तम अध्यक्षों से, सैन्यों दूर २ के राष्ट्रों को पहले तेजस्वी होकर वश करे। फिर सब स्थानों पर अपने तीव्र वेगवान् यानों या गाड़ियों का प्रबन्ध करे और तब राष्ट्र के संकटों को दूर करे। अथवा—(सः सूयः दिशः मिनाति) वह सूर्यवत् तेजस्वी होकर दिशावासिनी प्रजाओं को नाश न करे। प्रत्युत सब मार्गों और स्थानों को वेगवान् अश्वादि साधनों से वश करके राष्ट्र को विशेष कड़े प्रबन्ध से युक्त प्रजा को स्वच्छन्द विहरने दे। अर्थात् सदा ही कोई ‘मार्शल् लो’ न लगा रहे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, २, ९—११, १४, १७, २० निचृतत्रिष्टुप्। ५, ६, ८,१३, १९, २१, २२ त्रिष्टुप्। १२, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ७, १६, १८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे पुरुष अविद्या, दुष्ट संस्कार व दुःखाचा त्याग करून सूर्य जसा अंधकार दूर करतो तसा अन्याय दूर करून दशदिशांमध्ये यश पसरवितात, तेच त्यांचे कर्तव्य कर्म असते. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The sun traverses and illuminates the directions of space day by day indicated and roused to activity by the rays of light but does not transgress them, and when it reaches a particular stage of the journey, it withdraws the light and releases the region to rest for the night. This too is a reflection of the power and glory of Indra, Lord Almighty.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The functions and duties of the State officials are described.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The man who is full of splendor like the sun, does not go against the directions created by the sun whose rays are his horses and punishes only the unjust and the wicked. Such a man transgresses the paths by his horses, which he lets loose when his journey is over and acts properly. It is his ornament (to discharge his duties).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of men to remove ignorance, bad impressions and miseries and to set aside all injustice, like the sun dispels all darkness and thus spreads the good reputation of honest State officials in all directions.

    Foot Notes

    (हर्यश्वप्रसूताः) हरयो हरणशीला: अश्वाः किरणा यस्य तेन प्रसूताः जनिताः । असौ वा आदित्योऽश्वः (Stph. 7, 3, 2, 10 ) ( T.T.R. 3, 9, 23, 2) = Created or generated by the sun whose rays are like his horses. When the sun is called अश्वः: it is clear that the rays of the sun are called अश्वा: (मिनाति) मिन्-हिंसायाम् (क्या० )।

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