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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 30/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒ताभ॑ये पुरुहूत॒ श्रवो॑भि॒रेको॑ दृ॒ळ्हम॑वदो वृत्र॒हा सन्। इ॒मे चि॑दिन्द्र॒ रोद॑सी अपा॒रे यत्सं॑गृ॒भ्णा म॑घवन्का॒शिरित्ते॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । अभ॑ये । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । श्रवः॑ऽभिः । एकः॑ । दृ॒ळ्हम् । अ॒व॒दः॒ । वृ॒त्र॒ऽहा । सन् । इ॒मे । चि॒त् । इ॒न्द्र॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । अ॒पा॒रे इति॑ । यत् । स॒म्ऽगृ॒भ्णाः । म॒घ॒व॒न् । का॒शिः । इत् । ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उताभये पुरुहूत श्रवोभिरेको दृळ्हमवदो वृत्रहा सन्। इमे चिदिन्द्र रोदसी अपारे यत्संगृभ्णा मघवन्काशिरित्ते॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत। अभये। पुरुऽहूत। श्रवःऽभिः। एकः। दृळ्हम्। अवदः। वृत्रऽहा। सन्। इमे। चित्। इन्द्र। रोदसी इति। अपारे इति। यत्। सम्ऽगृभ्णाः। मघवन्। काशिः। इत्। ते॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 30; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे पुरुहूत मघवन्निन्द्र त्वमेकस्सन्नभये श्रवोभिः सह दृढमवद उतापि यथा वृत्रहा सूर्य्यश्चिदिमे अपारे रोदसी सङ्गृह्णाति तथाभूतः सन् यद्या ते काशिरस्ति तामित्सङ्गृभ्णाः ॥५॥

    पदार्थः

    (उत) अपि (अभये) भयरहिते व्यवहारे (पुरुहूत) बहुभिः प्रशंसित (श्रवोभिः) अनेकविधैः श्रवणैः (एकः) असहायः (दृढम्) (अवदः) वदेः (वृत्रहा) सूर्यवत् (सन्) (इमे) (चित्) अपि (इन्द्र) सूर्य्यवद्वर्त्तमान (रोदसी) द्यावापृथिवी (अपारे) अविद्यमानाऽवधी (यत्) या (सङ्गृभ्णाः) सङ्गृह्णीयाः (मघवन्) बहुधनयुक्त (काशिः) न्यायविनयादिशुभगुणप्रदीप्तिः (इत्) एव (ते) तव ॥५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। राजपुरुषैरनेकोपायैः प्रजासु निर्भयता संपादनीया सूर्य्यवन्न्यायविद्या प्रकाशनीया ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (पुरुहूत) बहुत जनों से प्रशंसित (मघवन्) बहुत धन से युक्त (इन्द्र) सूर्य्य के तुल्य प्रकाशमान ! आप (एकः) विना सहाय स्वयं बलवान् (सन्) हुए (अभये) भय से रहित व्यवहार में (श्रवोभिः) अनेक प्रकार के सुनने योग्य वचनों के सहित (दृढम्) निश्चय (अवदः) बोलें (उत) और भी जैसे (वृत्रहा) सूर्य्य (चित्) भी (इमे) इन (अपारे) अवधिरहित (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी को प्राप्त होता है वैसे होकर (यत्) जो (ते) आपके (काशिः) न्याय विनय आदि उत्तम गुणों का प्रकाश है उसको (इत्) ही (सङ्गृभ्णाः) ग्रहण करें ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। राजा के पुरुषों को चाहिये कि अनेक प्रकार के उपायों से प्रजाओं में उपद्रवों से भय का नाश और सूर्य के तुल्य न्यायविद्या का प्रकाश करें ॥५॥

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    विषय

    अभय प्रापक 'ज्ञान'

    पदार्थ

    [१] (पुरुहूत) = बहुतों से पुकारे जानेवाले प्रभो! आप (एकः) = अकेले ही (वृत्रहा सन्) = वृत्र का, वासना का विनाश करनेवाले होते हुए (उत) = निश्चय से (अभये) = अभय प्राप्त कराने के निमित्त (श्रवोभिः) = ज्ञानों को देने के हेतु से (दृढं अवदः) = दृढ़ता से इस वेदवाणी का उच्चारण करते हैं। यह हमारा दौर्भाग्य है कि हम आपकी उस गर्जना को [हरिरेति कनिक्रदत्] भी सुनते नहीं और इस प्रकार बधिर बनकर कष्ट उठानेवाले होते हैं। [२] हे (इन्द्र) = परमात्मन् ! (इमे) = इन (अपारे) = अत्यन्त विशाल-जिनका पार दिखता ही नहीं, उन (रोदसी चित्) = द्यावापृथिवी को भी (यत्) = जो आप (संगृभ्णाः) = सम्यक् ग्रहण करनेवाले होते हैं, यह हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो ! (इत्) = निश्चय से (ते काशि:) = आपकी ही मुट्ठी है [काशिमुष्टि: नि०]। आपके अतिरिक्त इस सारे ब्रह्माण्ड को कौन अपने वश में कर सकता है? आपकी इस महिमा का स्मरण करता हुआ मैं आपका आराधक बनूँ। आपकी प्रेरणा को सुनता हुआ तदनुसार वर्तनेवाला बनूँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ज्ञान देकर हमें अभय प्राप्त कराते हैं। प्रभु ही ब्रह्माण्ड को वश में करते हैं ।

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे सेनापते ! राजन् ! मेघ या विद्युत् जिस प्रकार (वृत्रहासन् श्रवोभिः दृढम् अवदः) मेघों में व्यापता और उनको बलपूर्वक आघात करता हुआ सुनाई देने वाली गर्जनाओं से समस्त प्रजा को अकाल से निर्भय रहने के निमित्त स्थिर रूप से बतला देता है उसी प्रकार तू भी (वृत्रहा) नगर के घेरने, प्रतिद्वन्द्विता में बढ़ने वाले और विघ्नकारी शत्रुओं को विनाश करता हुआ हे (पुरुहूत) बहुत सी प्रजाओं से संकटों में पुकारे जाने योग्य राजन् ! वीर ! (श्रवोभिः) श्रवण करने योग्य घोषणावचनों से (अभये) प्रजा को अभय के निमित्त (दृढम्) दृढतापूर्वक (अवदः) कह दे, उनकी रक्षा का निश्चय करा दे। (इमे अपारे रोदसी) इन अनधिपति, असीम आकाश और पृथिवी दोनों को जिस प्रकार सूर्य अच्छी प्रकार वश करता है उसका ही (काशिः) यह सब प्रकाश सर्वत्र व्याप रहा है उसी प्रकार हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन्तः ! (इमे) ये (रोदसी) स्वपक्ष और परपक्ष की सेनाएं जो दुष्टों को रुलाने में समर्थ और एक दूसरे की बाढ़ को रोकने में समर्थ हैं वे दोनों (अपारे) पाररहित, अतिशय विस्तृत हैं। वा (अपारे) उत्तम पालक पुरुष से रहित हैं । उन दोनों को (यत्) जब तू (संगृभ्णाः) अच्छी प्रकार से वश कर लेता है तो हे (मघवन्) ऐश्वर्यवन् परम पूज्य पद के स्वामिन् ! (ते इत्) तेरा ही यह (काशिः) प्रबल, न्यायप्रकाश वा तेज पराक्रम वा प्रबल हाथ वा पुष्टि अर्थात् प्रहार साधन बल और प्रबन्ध साधन शासन है। (२) परमेश्वर और आचार्य अज्ञान नाशक होने से ‘वृत्रहा’ हैं। वह समस्त जीव संसार को अभय देने के लिये गुरु द्वारा श्रवण योग्य श्रुतियों, वेदवाक्यों से स्थिर सत्य ज्ञान का उपदेश करता है। (रोदसी) नर नारी दोनों ही पालक वा अज्ञानता से रहित हैं। उनको वह (संगृभ्णाति) अपने अधीन वश करे, उपनयन पूर्वक भली प्रकार शिष्यवत् स्वीकार करे, यह उसी का ज्ञान प्रकाश है जिससे सब ज्ञानवान् हों ! इति प्रथमो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, २, ९—११, १४, १७, २० निचृतत्रिष्टुप्। ५, ६, ८,१३, १९, २१, २२ त्रिष्टुप्। १२, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ७, १६, १८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. राजपुरुषांनी अनेक प्रकारच्या उपायाने प्रजेमध्ये निर्भयता उत्पन्न करून सूर्याप्रमाणे न्यायविद्येचा प्रकाश करावा. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Also, O lord ruler of humanity and the world, Indra, invoked, invited and celebrated by many, in your glory, being free from fear, destroyer of demonic darkness and breaker of mountainous clouds all by yourself, whatever you firmly speak with your awful voice of thunder, and the way you hold and sustain these measureless earths and heavens, O lord of power and grandeur, is but a reflection of your majesty.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The learned person's functions are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (Ruler)! shining like the sun you dissipate the clouds and blessed with opulence, you speak firmly with glory in a fearless dealing, (asking men not to fear). As the sun controls these boundless heaven and earth (under his command), SO you should also gather the luster of justice, humility and other fine virtues.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of the officers and workers of the State to create fearlessness and confidence among their subjects through various means, and they should illuminate the science of justice like the sun.

    Foot Notes

    (काशि:) न्यायविनयादिशुभगुणप्रदिप्तिः।= The luster of justice, humility and other virtues. ( इन्द्र) सूर्य्य वद्वर्त्तमान । इन्द्र इति ह येतमाचक्षते य एष (सूर्यः) तपति । (Stph 4, 6, 7, 11 ) = Shining like the sun. (रोदसी) द्यावापृथ्वी। रोदसिति द्यावापृथ्वी नाम। (N. G. 3, 30) = The heaven and earth.

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