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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 30/ मन्त्र 19
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ नो॑ भर॒ भग॑मिन्द्र द्यु॒मन्तं॒ नि ते॑ दे॒ष्णस्य॑ धीमहि प्ररे॒के। ऊ॒र्वइ॑व पप्रथे॒ कामो॑ अ॒स्मे तमा पृ॑ण वसुपते॒ वसू॑नाम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । नः॒ । भ॒र॒ । भग॑म् । इ॒न्द्र॒ । द्यु॒ऽमन्त॑म् । नि । ते॒ । दे॒ष्णस्य॑ । धी॒म॒हि॒ । प्र॒ऽरे॒के । ऊ॒र्वःऽइ॑व । प॒प्र॒थे॒ । कामः॑ । अ॒स्मे इति॑ । तम् । आ । पृ॒ण॒ । व॒सु॒ऽप॒ते॒ । वसू॑नाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नो भर भगमिन्द्र द्युमन्तं नि ते देष्णस्य धीमहि प्ररेके। ऊर्वइव पप्रथे कामो अस्मे तमा पृण वसुपते वसूनाम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। नः। भर। भगम्। इन्द्र। द्युऽमन्तम्। नि। ते। देष्णस्य। धीमहि। प्रऽरेके। ऊर्वःऽइव। पप्रथे। कामः। अस्मे इति। तम्। आ। पृण। वसुऽपते। वसूनाम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 30; मन्त्र » 19
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे वसूनां वसुपत इन्द्र यस्य देष्णस्य ते प्ररेके वयं निधीमहि स त्वं नो द्युमन्तं भगमाभर। योऽस्मे काम ऊर्वइव पप्रथे तमापृण ॥१९॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (नः) अस्मभ्यम् (भर) धर (भगम्) सेवनीयमैश्वर्य्यम् (इन्द्र) सुखप्रदातः (द्युमन्तम्) प्रशस्ता द्यौः प्रकाशो विद्यते यस्मिँस्तम् (वि) (ते) तव (देष्णस्य) दातुः (धीमहि) धरेम (प्ररेके) प्रकृष्टा रेका शङ्का यस्मिँस्तस्मिन् व्यवहारे (ऊर्वइव) प्राप्तेन्धनोऽग्निरिव (पप्रथे) प्रथताम् (कामः) इच्छा (अस्मे) अस्मभ्यम् (तम्) (आ) (पृण) पूर्णं कुरु (वसुपते) धनानां पालक (वसूनाम्) धनानाम् ॥१९॥

    भावार्थः

    स एव मनुष्य आप्तोऽस्ति यस्य सर्वस्वं परोपकाराय भवति नात्र शङ्कास्ति ॥१९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (वसूनाम्) जनों के (वसुपते) धनपालक (इन्द्र) सुख के दाता ! जिस (देष्णस्य) देनेवाले (ते) आपके (प्ररेके) उत्तम शङ्कायुक्त व्यवहार में हम लोग (नि) (धीमहि) धारण करें वह आप (नः) हम लोगों के लिये (द्युमन्तम्) उत्तम प्रकाशयुक्त (भगम्) सेवन करने योग्य ऐश्वर्य्य को (आ) सब प्रकार (भर) धारण करो और जो (अस्मे) हम लोगों के लिये (कामः) इच्छा (ऊर्वइव) इन्धन युक्त अग्नि के सदृश (पप्रथे) वृद्धि को प्राप्त होवें (तम्) उसको (आ) (पृण) पूर्ण करो ॥१९॥

    भावार्थ

    वही मनुष्य यथार्थवक्ता है, जिसका सर्वस्व दूसरे पुरुषादि के उपकार के लिये होता है, इस विषय में कोई शङ्का नहीं है ॥१९॥

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    विषय

    द्युमान् भग

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = सब ऐश्वर्यों के स्वामिन् प्रभो ! (नः) = हमारे लिए (द्युमन्तम्) = ज्योतिर्मय (भगम्) = ऐश्वर्य को (आभर) = समन्तात् भरनेवाले होइये । (ते देष्णस्य) = आपके धन दानों के प्ररेके-प्ररेचन में [over flowing] (निधीमहि) = हम धारण किये जाएँ, अर्थात् हमें आपका अत्यन्त ही धन प्राप्त हो । उस धन का विनियोग हम ज्ञानवृद्धि के लिए करें। [२] यह ठीक है कि (ऊर्वः इव) = वडवानल [समुद्राग्नि] की तरह (अस्मे) = हमारी (काम:) = कामना (पप्रथे) = बढ़ती जाती है। हे (वसूनां वसुपते) = सर्वोत्तम धनों के अधिपति प्रभो ! (तम्) = उस कामना को (आपृण) = आप ही पूरा करें। वस्तुतः प्रभुप्राप्ति के होने पर ही धन आदि पदार्थों की कामना पूर्ण होती है। प्रभुप्राप्ति की तुलना में धनप्राप्ति अत्यन्त तुच्छ है । अतः जब प्रभु प्राप्त होते हैं, तो धन की कामना अपने आप ही समाप्त हो जाती है। प्रभुप्राप्ति से दूर रहने पर धनादि की कामना बढ़ती ही जाती है। वस्तुतः धन में तृप्ति है ही नहीं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हमें ज्योतिर्मय धन दें । प्रभु हमें अत्यन्त ही धन दें। प्रभुप्राप्ति में ही धन की कामना की पूर्ति है, अन्यथा यह धन की कामना बढ़ती ही जाती है।

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    विषय

    ऐश्वर्यवान् दानी सर्वप्रिय, सबके वंशों को बढ़ाने वाला हो।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू (नः) हमें (घुमन्तं) तेज से युक्त, प्रकाशयुक्त, चमकीला (भगम्) स्वर्ण मुक्ता आदि ऐश्वर्य (आभर) प्राप्त करा। (प्ररेके) बड़े भारी शंकास्थान, संशय-पूर्ण, संकटापन्न विपत्तिकाल में भी हम (ते) तुझ (देष्णस्य) दानशील पुरुष की ही (धीमहि) याद करें। तू अपनी दानशीलता से हमारे प्राणों के संकट संदेहादि के अवसर पर रक्षक हो। (अस्मे कामः) हमारी इच्छा, धनादि प्राप्त करने की अभिलाष भी (ऊर्वः) अग्नि के समान (प्रपथे) बढ़ा ही करती है। हे (वसूनां वसुपते) समस्त बसे हुए प्रजाजनों के बीच सब ऐश्वर्यों के और प्रजाओं के पालक ! तू हमारे (तत् आपृण) उस अभिलाष को पूर्ण कर। अध्यात्म में वा आचार्य पक्षमें—शंका, संदेह से युक्त शास्त्र में (देष्णस्य) ज्ञानदाता आदेष्टा के प्रकाश युक्त ज्ञान को हम धारण करें। हमारा (कामः) अभिलाषुक आत्मा समुद्र की तरह से बढ़े, वसु अर्थात् अन्तेवासी शिष्यों का पति कुलपति उसे आत्मा को ज्ञान से पूर्ण करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, २, ९—११, १४, १७, २० निचृतत्रिष्टुप्। ५, ६, ८,१३, १९, २१, २२ त्रिष्टुप्। १२, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ७, १६, १८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    तोच माणूस यथार्थवक्ता (विद्वान) असतो, ज्याचे सर्वस्व परोपकारासाठी असते, त्याविषयी कोणतीही शंका नसते. ॥ १९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of wealth, honour and majesty, bring us the honour and excellence of prosperity full of light and wisdom. Let us abide and persevere in the abundance of your grace and kindness. Let our aspirations rise high and higher like the flames of yajna fire. O lord ordainer of the wealth of existence, ruler and protector of our hearth and home, let our aspirations and ambitions for total fulfilment be realised.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of administrators is further dealt.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra ! you give happiness, bestow upon us wealth coupled with light of knowledge. Let us enjoy your overflow of bounty as you are a liberal donor. Let us have no doubt about it. O lord of the infinite wealth! our desire has spread out like the blazing fire. May you fulfil it !

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    An absolutely truthful noble person is he, who spends his all for the good of others. There is not the least shadow of doubt about it.

    Foot Notes

    (देष्णस्य ) दातु:। = Of the liberal doner. (ऊर्व इव) प्राप्तेन्धनोऽग्निरिव। = Like the blazing fire. (प्ररेके) प्रकृष्टा रेका शङ्का यस्मिंस्तस्मिन् व्यवहारे =In the dealing where there is some doubt.

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