ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 30/ मन्त्र 17
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
उद्वृ॑ह॒ रक्षः॑ स॒हमू॑लमिन्द्र वृ॒श्चा मध्यं॒ प्रत्यग्रं॑ शृणीहि। आ कीव॑तः सल॒लूकं॑ चकर्थ ब्रह्म॒द्विषे॒ तपु॑षिं हे॒तिम॑स्य॥
स्वर सहित पद पाठउत् । वृ॒ह॒ । रक्षः॑ । स॒हऽमू॑लम् । इ॒न्द्र॒ । वृ॒श्च । मध्य॑म् । प्रति॑ । अग्र॑म् । शृ॒णी॒हि॒ । आ । कीव॑तः । स॒ल॒लूक॑म् । च॒क॒र्थ॒ । ब्र॒ह्म॒ऽद्विषे॑ । तपु॑षिम् । हे॒तिम् । अ॒स्य॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उद्वृह रक्षः सहमूलमिन्द्र वृश्चा मध्यं प्रत्यग्रं शृणीहि। आ कीवतः सललूकं चकर्थ ब्रह्मद्विषे तपुषिं हेतिमस्य॥
स्वर रहित पद पाठउत्। वृह। रक्षः। सहऽमूलम्। इन्द्र। वृश्च। मध्यम्। प्रति। अग्रम्। शृणीहि। आ। कीवतः। सललूकम्। चकर्थ। ब्रह्मऽद्विषे। तपुषिम्। हेतिम्। अस्य॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 30; मन्त्र » 17
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे इन्द्र ! त्वमुद्वृह सहमूलं रक्षो वृश्चास्योपरि तपुषिं हेतिं प्रक्षिप्यास्य मध्यमग्रं च प्रतिशृणीहि ब्रह्मद्विषे वर्त्तमानं सललूकं कीवतश्चाऽऽचकर्थ ॥१७॥
पदार्थः
(उत्) उत्कृष्टे (वृह) वर्धस्व (रक्षः) दुष्टाचारम् (सहमूलम्) मूलेन सह वर्त्तमानम् (इन्द्र) दुष्टानां विदारक (वृश्च) छिन्धि। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (मध्यम्) मध्ये भवम् (प्रति) (अग्रम्) अग्रभागम् (शृणीहि) हिन्धि (आ) (कीवतः) कियतः। अत्र वर्णव्यत्ययेन यस्य स्थाने वः। (सललूकम्) सम्यक् लुब्धम् (चकर्थ) कृन्त (ब्रह्मद्विषे) यो ब्रह्म परमात्मानं वेदं वा द्वेष्टि तस्मै (तपुषिम्) प्रतापयुक्तम् (हेतिम्) वज्रम् (अस्य) एतस्योपरि ॥१७॥
भावार्थः
मनुष्यैः कदाचिदपि धार्मिकाणामुपरि शस्त्रप्रहारो नैव कार्यो न च शस्त्रैर्हननेन विना दुष्टास्त्यक्तव्याः। एवं कृते सति सर्वतो सुखस्य वृद्धिः स्यात् ॥१७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (इन्द्र) दुष्ट पुरुषों के नाशकर्त्ता ! आप (उत्) उत्तमता के साथ (वृह) सुखवृद्धि करो (सहमूलम्) जड़सहित (रक्षः) बुरे आचार को (वृश्च) तोड़ो (अस्य) इसके ऊपर (तपुषिम्) प्रतापयुक्त (हेतिम्) वज्र को फेंक के इसके (मध्यम्) मध्य में उत्पन्न हुए और (अग्रम्) अग्रभाग के (प्रति) प्रति (शृणीहि) नाश करो तथा (ब्रह्मद्विषे) ब्रह्म परमात्मा वा वेद के लिये वर्त्तमान (सललूकम्) अच्छी तरह लोभी (कीवतः) कितनों को (आ) (चकर्थ) सब प्रकार काटो ॥१७॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि कभी भी धार्मिक पुरुषों के ऊपर शस्त्रों का प्रहार न करें और दुष्ट पुरुषों को शस्त्रों से मारे विना न छोड़ें, ऐसा करने से सब प्रकार सुख की वृद्धि होवे ॥१७॥
विषय
राक्षसों का समूल विनाश
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन्-शत्रुविद्रावक प्रभो! (अह रक्षः) = राक्षसीवृत्तियों को (सहमूलम्) = मूलसहित (उदृह) = उखाड़ दीजिए, (मध्यं वृश्चा) = इनके मध्य को भी छिन्न कर दीजिए, (अग्रं प्रतिशृणीहि) = इनके अग्रभाग को भी हिंसित करनेवाले होइये। आपकी कृपा से हमारे पर आक्रमण करनेवाली राक्षसीवृत्तियों का 'आदि, मध्य, अन्त' सब विच्छिन्न हो जाए। इनका नामोनिशान भी न बचे। [२] (कीवतः) = [कियतोऽपि दूरदेशात्] कितने भी दूरदेश से (सललूकम्) = [सृ] गति करनेवाले इस लोभरूप राक्षस को (आचकर्थ) = नष्ट करिए । लोभवृत्ति के कारण ही मनुष्य दूर-दूर भागा फिरता है और उसे न किसी प्रकार की शान्ति है, न अध्यात्म उन्नति का अवसर। इस (ब्रह्मद्विषे) = ज्ञान से प्रीति न रखनेवाले लोभ के लिए तपुषिं हेतिम्-तापक अस्त्र को अस्य = फेंकिए (असु क्षेपणे) । इस सन्तापक अस्त्र से इसे नष्ट करिए। वस्तुतः तप व क्रियाशीलता ही इस लोभ-विनाश के लिए तापक अस्त्र है। यही लोभ का विनाश करता है। ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु-कृपा से राक्षसी-वृत्ति का समूल विनाश हो । भटकानेवाले लोभ को हम तप व क्रियाशीलता द्वारा विनष्ट करें।
विषय
शत्रु का महास्त्रों से नाश करने का उपदेश।
भावार्थ
हे (इन्द्र उद्वह) तू स्वयं उन्नत होकर बढ़ ! शत्रुहनन करने हारे ! सेनापते ! तू (रक्षः) विघ्नकारी दुष्ट पुरुष को (सह-मूलम्) मूलसहित (वृश्च) काट डाल और (मध्यं) उसके बीच के भाग के (प्रत्यग्रं) आगे बढ़े हुए अगले भाग को भी (प्रति शृणीहि) एक २ करके नष्ट कर। (आकीवतः) कितने भी दूर पर विद्यमान (सललूकं) भागते हुए अति लोभी, वा पापी पुरुष को (चकर्थ) मार और (ब्रह्मद्विषे) धन के कारण हमसे द्वेष करने वाले वा वेद वा वेदज्ञ के द्वेषी पुरुष के विनाश के लिये (तपुषिम् हेतिम्) तापदायी, ज्वलनशील आग्नेय अस्त्र (अस्य) फेंक, चला।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, २, ९—११, १४, १७, २० निचृतत्रिष्टुप्। ५, ६, ८,१३, १९, २१, २२ त्रिष्टुप्। १२, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ७, १६, १८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी कधीही धार्मिक पुरुषांवर शस्त्रांचा प्रहार करू नये व दुष्ट शत्रूंना शस्त्रांनी मारल्याशिवाय राहू नये. असे केल्याने सर्व प्रकारच्या सुखाची वृद्धी होते. ॥ १७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of power and justice, sustainer of life and its progress, pluck off the evil from the root, break it at the middle, nip it in the bud and at every shoot, and, having cast the fiery thunderbolt upon the saboteurs of truth and justice, life and law of existence, destroy their hate and enmity to the farthest end of their reach.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of functions of the rulers is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra ! you are destroyer of the wicked, root up the wicked persons, cut asunder and crush them in the middle and send them away. Cast upon those who hate God and the Vedas (knowledge)-the powerful weapon. Punish severely and exceedingly the greedy wicked persons, whatever may be their number.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should never hurl weapons upon the righteous persons nor should they leave the wicked without hurling arms at them. By so doing, happiness would grow on all sides.
Foot Notes
( शृणीहि ) हिन्धि | (शृणीहि ) शू-हिसांयाम् (श्यादि ) = Slay. (हेतिम्) वज्रम् | (हेतिम्) हे तिरिति वज्रनाम । ( N. G. 2, 20 ) = Thunderbolt or powerful weapon. (सललूकम् ) सभ्यक् लुब्धम् । = Exceedingly greedy.
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