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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 30/ मन्त्र 11
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    एको॒ द्वे वसु॑मती समी॒ची इन्द्र॒ आ प॑प्रौ पृथि॒वीमु॒त द्याम्। उ॒तान्तरि॑क्षाद॒भि नः॑ समी॒क इ॒षो र॒थीः स॒युजः॑ शूर॒ वाजा॑न्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एकः॑ । द्वे इति॑ । वसु॑मती॒ इति॒ वसु॑ऽमती । स॒मी॒ची इति॑ स॒म्ऽई॒ची । इन्द्रः॑ । आ । प॒प्रौ॒ । पृ॒थि॒वीम् । उ॒त । द्याम् । उ॒त । अ॒न्तरि॑क्षात् । अ॒भि । नः॒ । स॒म्ऽई॒के । इ॒षः । र॒थीः । स॒ऽयुजः॑ । शू॒र॒ । वाजा॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एको द्वे वसुमती समीची इन्द्र आ पप्रौ पृथिवीमुत द्याम्। उतान्तरिक्षादभि नः समीक इषो रथीः सयुजः शूर वाजान्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एकः। द्वे इति। वसुमती इति वसुऽमती। समीची इति सम्ऽईची। इन्द्रः। आ। पप्रौ। पृथिवीम्। उत। द्याम्। उत। अन्तरिक्षात्। अभि। नः। सम्ऽईके। इषः। रथीः। सऽयुजः। शूर। वाजान्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 30; मन्त्र » 11
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे शूर यथैको रथीरिन्द्रो द्वे समीची वसुमती पृथिवीमुत द्यां चापप्रौ समीकेऽन्तरिक्षात्सयुजो नोऽस्मभ्यमिष उत वाजानभि पप्रुः ते सर्वैः सत्कर्त्तव्याः ॥११॥

    पदार्थः

    (एकः) असहायः (द्वे) (वसुमती) बहवो वसवो विद्यन्ते ययोस्ते (समीची) ये सम्यगञ्चतः समानं प्राप्नुतस्ते (इन्द्रः) विद्युत् (आ) (पप्रौ) प्राति (पृथिवीम्) अन्तरिक्षं भूमिं वा (उत) अपि (द्याम्) प्रकाशम् (उत) अपि (अन्तरिक्षात्) मध्यस्थादवकाशात् (अभि) आभिमुख्ये (नः) अस्मभ्यम् (समीके) समीपे (इषः) इच्छाः (रथीः) प्रशस्तरथयुक्तः (सयुजः) ये समानं युञ्जते ते (शूर) दुष्टानां हिंसक (वाजान्) अन्नादीन् ॥११॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये भुमिवत्प्रजाधारका विद्युद्वत्परमैश्वर्यप्रदाः प्रजाजनाः स्युस्ते सर्वं राज्यं रक्षितुं शक्नुयुः ॥११॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (शूर) दुष्टजनों के नाशकारक ! जैसे (एकः) सहायरहित अकिल्ली (रथीः) प्रशंसनीय रथरूप वाहन के सहित (इन्द्रः) बिजुली (द्वे) दो (समीची) समानता को प्राप्त (वसुमती) बहुत धनों से युक्त (पृथिवीम्) अन्तरिक्ष वा भूमि को (उत) और भी (द्याम्) प्रकाश को (आ) (पप्रौ) पूर्ण करती (समीके) समीप में (अन्तरिक्षात्) मध्य में वर्त्तमान अवकाश से (सयुजः) तुल्यता के साथ परस्पर मिले हुए मित्र जन (नः) हम लोगों के लिये (इषः) इच्छाओं को (उत) और (वाजान्) अन्न आदि वस्तुओं को (अभि) सब ओर से पूर्ण करते वे संपूर्ण जनों से सत्कार करने योग्य हैं ॥११॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो भूमि के सदृश प्रजाओं के धारण करने और बिजुली के सदृश अतिउत्तम ऐश्वर्य्य के देनेवाले प्रजाजन हों, वे सम्पूर्ण राज्य की रक्षा कर सकें ॥११॥

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    विषय

    लोकत्रयी का, हमारे जीवन में, स्थान

    पदार्थ

    (१) (एकः) = वह अद्वितीय (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु द्वे (आपप्रौ) = दोनों को पूरण कर रहा है। (पृथिवीम्) = पृथिवी को (उत) = और (द्याम्) = द्युलोक को दोनों को ही वह व्याप्त कर रहा है। ये पृथिवी और द्युलोक (वसुमती) = सब वसुओंवाले हैं और (समीची) = परस्पर संगत हैं। पृथिवीस्थ जल सूर्य-किरणों से वाष्पीभूत होकर द्युलोक की ओर जाता है, उस द्युलोकस्थ सूर्य से प्रकाश की किरणें पृथिवी की ओर आती हैं। द्युलोक व पृथिवीलोक पिता व माता की तरह परस्पर मिलकर कार्य करते हुए प्राणियों का पालन करते हैं। (२) (उत) = और हे शूर- हमारे सब रोग आदि शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो! आप (अन्तरिक्षात्) = इस अन्तरिक्षलोक से (नः समीके) = हमारे समीप (इषः) = उत्तम अन्नों को (अभि) [आ पप्रौ ]= पूरित करते हैं और इस प्रकार (रथी:) = रथ को उत्तमता से ले चलनेवाले (सयुजः) = मिलकर इसमें जुतनेवाले (वाजान्) = इन्द्रियाश्वों को हमें प्राप्त कराते हैं। अन्तरिक्ष से वृष्टि होकर उत्तम अन्नों की प्राप्ति होती है। इन उत्तम अन्नों से इन्द्रियाँ परिपुष्ट होकर शरीररथ का अच्छी प्रकार [संचालन] करती हैं। यह शरीर रथ हमें उद्दिष्ट स्थान पर पहुँचानेवाला होता हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - परस्पर संगत द्युलोक व पृथिवीलोक हमारे लिए सब वसुओं को प्राप्त कराते हैं। अन्तरिक्ष से वृष्टि होकर उत्तम अन्नों की प्राप्ति से शरीर व इन्द्रियाँ सशक्त बनती हैं और हमें लक्ष्य पर पहुँचने में समर्थ करती हैं।

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    विषय

    सूर्यवत् महारथी राजा का कर्त्तव्य वर्णन।

    भावार्थ

    (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् शत्रुओं को नाश करने हारा बलवान् पुरुष (पृथिवीम् उत द्याम्) आकाश और पृथिवी को सूर्य के समान (द्याम् उत पृथिवीम्) ज्ञानवान् प्रजाओं और सामान्य भूमि वासी प्रजाओं (द्वे) दोनों को (एकः) अकेला ही (समीची) परस्पर एक दूसरे से संगत और (वसुमती) ऐश्वर्यों तथा वसने वाले प्रजा और अध्यक्षगणों से युक्त करके (आ पप्रौ) सब प्रकार से पालता और पूर्ण, समृद्ध करता है वह ही (उत अन्तरिक्षात्) अन्तरिक्षवत् राष्ट्र के बीच में से भी प्रजा को पुष्ट करता है। उसी प्रकार हे (शूर) शूरवीर पुरुष ! तू (नः समीके) हमारे समीप रहता हुआ (रथीः) रथारूढ़ महारथी होकर (नः) हमारी (इषः) इच्छाओं और सेनाओं को और (सयुजः) सहोद्योगी कार्यकर्त्ताओं को और (वाजान्) वेगवान् अश्वों, ऐश्वर्यों को (अभि आ पूरय) सब प्रकार पूर्ण कर। (२) विद्वान् पुरुष या सुसंगत ऐश्वर्ययुक्त नर नारियों को ज्ञान से पूर्ण करे, वह अन्तःकरण से भी हमारे समीप रहकर हमारी उत्तम इच्छाओं, सत्संगकारी मित्रों और प्राप्त ज्ञानयोग्य शरणागत शिष्यों को ज्ञान से पूर्ण करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, २, ९—११, १४, १७, २० निचृतत्रिष्टुप्। ५, ६, ८,१३, १९, २१, २२ त्रिष्टुप्। १२, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ७, १६, १८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे भूमीप्रमाणे प्रजेला धारण करणारे व विद्युतप्रमाणे अत्यंत उत्तम ऐश्वर्य देणारे प्रजाजन असतील ते संपूर्ण राज्याचे रक्षण करू शकतात. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of light, riding the chariot of glory, all by himself fulfils with his lustre both heaven and earth together full of wealth. May you, O lord of valour and lustre, and our friends bring us from the skies food and energy and wealth of knowledge all in one.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of State official's duties is treated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O hero ! you destroy your enemies. The electricity, which has been used in a good vehicle fills the earth, and firmament, and they are mutually combined and abounding with wealth. Those companions who come near us and fulfil our noble desires and provide us with food grains are to be respected. Electricity should be properly utilized in order to accomplish many similar works.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons who uphold of the people and give great wealth like electricity can preserve and safeguard the State.

    Foot Notes

    (इन्द्र:) विद्युत् | स्तनयित्नुरेवेन्द्रः । ( Stph 11, 6, 3, 9) = Electricity. (पृथिवीम् ) अन्तरिक्षं भूमि वा । पृथिवीत्यन्तरिक्षनाम । (N.G. 1, 3 ) = The earth or firmament.

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