Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 30 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 30/ मन्त्र 15
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इन्द्र॒ दृह्य॑ यामको॒शा अ॑भूवन्य॒ज्ञाय॑ शिक्ष गृण॒ते सखि॑भ्यः। दु॒र्मा॒यवो॑ दु॒रेवा॒ मर्त्या॑सो निष॒ङ्गिणो॑ रि॒पवो॒ हन्त्वा॑सः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑ । दृह्य॑ । या॒म॒ऽको॒शाः । अ॒भू॒व॒न् । य॒ज्ञाय॑ । शि॒क्ष॒ । गृ॒ण॒ते । सखि॑ऽभ्यः । दुः॒ऽमा॒यवः॑ । दुः॒ऽएवाः॑ । मर्त्या॑सः । नि॒ष॒ङ्गिणः॑ । रि॒पवः॑ । हन्त्वा॑सः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र दृह्य यामकोशा अभूवन्यज्ञाय शिक्ष गृणते सखिभ्यः। दुर्मायवो दुरेवा मर्त्यासो निषङ्गिणो रिपवो हन्त्वासः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र। दृह्य। यामऽकोशाः। अभूवन्। यज्ञाय। शिक्ष। गृणते। सखिऽभ्यः। दुःऽमायवः। दुःऽएवाः। मर्त्यासः। निषङ्गिणः। रिपवः। हन्त्वासः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 30; मन्त्र » 15
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! ये यामकोशा अभूवन् तेभ्यः सखिभ्यो यज्ञाय गृणते च त्वं शिक्ष ये दुर्मायवो दुरेवा हन्त्वासो निषङ्गिणो रिपवो मर्त्यासः स्युस्तान् हत्वा दृह्य ॥१५॥

    पदार्थः

    (इन्द्र) विद्यैश्वर्यप्रद (दृह्य) वर्द्धस्व। अत्र विकरणव्यत्ययेन श्यन्। (यामकोशाः) यान्ति येषु ते यामा मार्गास्तेषां कोशा यामकोशाः (अभूवन्) भवन्ति (यज्ञाय) सङ्गतिविज्ञानाय (शिक्ष) विद्यां देहि (गृणते) स्तुवते (सखिभ्यः) मित्रेभ्यः (दुर्मायवः) दुष्टो मायुः प्रक्षेपो येषान्ते (दुरेवाः) ये दुष्टं यन्ति ते (मर्त्यासः) मनुष्याः (निषङ्गिणः) बहवो निषङ्गाः शस्त्रविशेषा विद्यन्ते येषान्ते (रिपवः) शत्रवः (हन्त्वासः) हन्तुं योग्याः ॥१५॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः सर्वदा सर्वथा श्रेष्ठानां रक्षणं विद्यासुशिक्षादानं दुष्टाचाराणां हननं च कृत्वा सदैव वर्धनीयम् ॥१५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) विद्या और ऐश्वर्य के दाता ! जो (यामकोशाः) मार्गों के रोकनेवाले (अभूवन्) होते हैं उन (सखिभ्यः) मित्रों तथा (यज्ञाय) सङ्गति जन्य विशेष ज्ञान और (गृणते) स्तुति करनेवाले के अर्थ आप (शिक्षा) विद्या दान कीजिये जो (दुर्मायवः) बुरे प्रकार फेंकने वा (दुरेवाः) दुष्ट कर्म को पहुँचानेवाले (हन्त्वासः) मारने के योग्य (निषङ्गिणः) बहुत विशेष शस्त्रोंवाले (रिपवः) शत्रु (मर्त्यासः) मनुष्य हों, उनका नाश करके (दृह्य) बढ़िये ॥१५॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि सर्वदा सब प्रकार श्रेष्ठ पुरुषों की रक्षा विद्या और शिक्षा का दान और दुष्ट आचरणवालों का नाश करके सदैव बढ़ें ॥१५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    दुष्ट शत्रुओं का संहार

    पदार्थ

    [१] (इन्द्र) = हे जितेन्द्रिय पुरुष ! (दृह्य) = दृढ़ हो। इस जीवनयात्रा में ढिल-मिल बने रहने से काम न चलेगा। जो तेरे साथी (यामकोशा:) = संयत कोशोंवाले-अन्नमयादि कोशों को वश में करनेवाले (अभूवन्) = हुए हैं, उन (सखिभ्य:) = मित्रों से (यज्ञाय) = यज्ञों के लिए तथा (गृणते) = [गृणाति उपदिशति] सृष्टि के प्रारम्भ में ज्ञानोपदेश देनेवाले उस प्रभुप्राप्ति के लिए (शिक्ष) = विद्या का उपादान कर। हमें उस ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए, जो कि हमें यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त करे तथा प्रभुप्राप्ति के मार्ग पर ले चले। ज्ञान देनेवाले गुरुओं की साधना ऐसी होनी चाहिए कि वे सब अन्नमयादि कोशों पर प्रभुत्ववाले हों, ताकि उनका 'शरीर मानस व बौद्धिक' स्वास्थ्य ठीक हो । [२] इस ज्ञान को प्राप्त करना इसलिए आवश्यक है कि इस संसार में मनुष्य के लिए (रिपवः) = कितने ही शत्रु हैं, जिन्हें कि (हनवास:) = उसने समाप्त करना है। ये शत्रु (दुर्मायवः) = [मायु-आयुध, मिनन्ति प्रक्षिपन्ति इति] बड़े बुरे अस्त्रोंवाले हैं, (दुरेवा:) = दुष्ट आचरणवाले हैं, (मर्त्यास:) = [मारयितारः सा०] मार डालनेवाले हैं, (निषङ्गिण:) = बड़े-बड़े निषङ्गों-तरकसोंवाले हैं। कामदेव का साहित्य में चित्रण ही 'कुसुमायुध' के रूप में tहै। वह फूलों से बने धनुष व बाणों को लेकर हमारे पर आक्रमण करता है और हमें मार डालता है। 'मार: ' उसका नाम ही है। इसके तरकस में पाँचों ज्ञानेन्द्रियों पर प्रहार करने के लिए पञ्चविध बाण हैं। उन्हें यह बुरी तरह हमारे पर फेंकता है और हमें मूर्छित करके समाप्त कर देता है। प्रभुप्राप्ति के मार्ग पर चलते हुए हमें इसे समाप्त करना है। इसे समाप्त करने के लिए आवश्यक है कि हम यज्ञादि उत्तम कर्मों में सदा तत्पर रहें ।

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्ञानियों से यज्ञों व प्रभुप्राप्ति का ज्ञान प्राप्त करते हुए हम कामादि दुष्ट शत्रुओं का संहार करनेवाले बनें। इस जीवनयात्रा में दृढ़ बनकर आगे बढ़नेवाले हों ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    राजा का प्रजा को युद्ध शिक्षा देने का कर्त्तव्य। दानशील के कोशों का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) शत्रुओं के हन्तः ! सेनापते ! (यज्ञाय) संग्राम करने के लिये वोर पुरुष (यामकोशः) लम्बे २ खड्ग वाले (अभूवन्) होवें। तू (सखिभ्यः) मित्रवर्ग और (गृणते) स्तुतिशील प्रजावर्ग को (शिक्ष) ज्ञान ऐश्वर्य प्रदान कर, उनको वेतन और युद्ध की शिक्षा दे। और (दृह्य) उनसे अपने को दृढ़ कर और बढ़। क्योंकि (दुर्मायवः) दुःखदायी शब्द करने वाले (मर्त्यासः) मरने वा मारने वाले (निषङ्गिणः) खड्ग वा तरकसों वाले (रिपवः) शत्रुगण (हन्त्वासः) मारने योग्य हैं, बड़े बलवान् हैं, जब बलवान् शत्रुओं को मारना हो तो राजा मित्रवर्गों को और प्रजा को युद्ध की शिक्षा करे और उनके शस्त्र भी बड़े २ हों। (२) दानशील ऐश्वर्यवान् के पक्ष में—कोश ख़ज़ाने बहुत बड़े २ हों। वह मित्रों और विद्वान् को दान करे और बढ़े। दुष्ट वचन, दुष्ट चाल और (नि-सङ्गिणः) निकृष्ट संग वाले पापी शत्रु पुरुष सदा (हन्त्वासः) मारने और दण्ड देने योग्य हों। विद्वान् पक्ष में—हे आचार्य तू बढ़े। तेरे ज्ञानकोश विस्तृत हों, तू मित्रों, प्रेमीजनों और स्तुतिशील को ज्ञान दे। दुष्टवचनी, दुराचारी, कुसंगी, पापकर्मा और दण्ड देने योग्य मनुष्य को दण्ड दे। इति तृतीयो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, २, ९—११, १४, १७, २० निचृतत्रिष्टुप्। ५, ६, ८,१३, १९, २१, २२ त्रिष्टुप्। १२, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ७, १६, १८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी सदैव सर्वप्रकारे श्रेष्ठांचे रक्षण, विद्या व शिक्षणाचे दान करावे, तसेच दुष्ट आचरण करणाऱ्यांचे हनन करून सदैव उन्नत व्हावे. ॥ १५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord giver of light, knowledge and the beauty and prosperity of life, be firm, advance and grow higher and stronger. There are treasures on the way, highways and byways, impediments and obstructions. Enlighten and warn friends and admirers about these for the sake of yajnic living and advancement. There are people crafty, malignant, armed robbers, enemies and killers in ambush. Warn of these and protect the disciple.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of duties of public servants goes on.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra! you give great wealth of knowledge and grow more and more. You impart knowledge to those friends who have travelled far and wide or know various paths (literally – who are mastuers of the small or high ways). They praise you in order to get the knowledge of good company and links. Malignant mortal enemies bearing arrows and armed with dangerous. weapons come with evil intent, and they must be destroyed by you.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should always grow and advance by protecting the persons and imparting good education and wisdom to others. and by destroying the wicked men.

    Foot Notes

    (दुह्य) वर्द्धस्व । अव विकरणव्यत्ययेन श्यन् | (दृह्य) दह-वृद्धौ (भ्वा० ) = Grow, expand. (दुर्मायव:) दुष्टो माय: प्रक्षेपो येषान्ते । = Those who deal badly.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top