ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 30/ मन्त्र 22
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
शु॒नं हु॑वेम म॒घवा॑न॒मिन्द्र॑म॒स्मिन्भरे॒ नृत॑मं॒ वाज॑सातौ। शृ॒ण्वन्त॑मु॒ग्रमू॒तये॑ स॒मत्सु॒ घ्नन्तं॑ वृ॒त्राणि॑ सं॒जितं॒ धना॑नाम्॥
स्वर सहित पद पाठशु॒नम् । हु॒वे॒म॒ । म॒घवा॑नम् । इन्द्र॑म् । अ॒स्मिन् । भरे॑ । नृऽत॑मम् । वाज॑ऽसातौ । शृ॒ण्वन्त॑म् । उ॒ग्रम् । ऊ॒तये॑ । स॒मत्ऽसु॑ । घ्नन्त॑म् । वृ॒त्राणि॑ । स॒म्ऽजित॑म् । धना॑नाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
शुनं हुवेम मघवानमिन्द्रमस्मिन्भरे नृतमं वाजसातौ। शृण्वन्तमुग्रमूतये समत्सु घ्नन्तं वृत्राणि संजितं धनानाम्॥
स्वर रहित पद पाठशुनम्। हुवेम। मघवानम्। इन्द्रम्। अस्मिन्। भरे। नृऽतमम्। वाजऽसातौ। शृण्वन्तम्। उग्रम्। ऊतये। समत्ऽसु। घ्नन्तम्। वृत्राणि। सम्ऽजितम्। धनानाम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 30; मन्त्र » 22
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 7
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या यमस्मिन् भरे वाजसातौ शुनं मघवानं नृतमं शृण्वन्तमुग्रं समत्सु वृत्राणि घ्नन्तं धनानां संजितमिन्द्रं वयं हुवेम तं यूयमूतय आह्वयत ॥२२॥
पदार्थः
(शुनम्) ज्ञानवृद्धम् (हुवेम) प्रशंसेम (मघवानम्) बहुधनवन्तम् (इन्द्रम्) दातारम् (अस्मिन्) (भरे) बिभ्रति धनानि यस्मिंस्तस्मिन् (नृतमम्) अतिशयेन नृषूत्तमम् (वाजसातौ) वाजान्धनाद्यान् पदार्थान् सनन्ति विभजन्ति यस्मिंस्तस्मिन् सङ्ग्रामे। वाजासाताविति सङ्ग्रामना०। निघं० २। १७। [(शृण्वन्तम्) न्यायप्रदानार्थमर्थिप्रत्यर्थिवचनश्रोतारम्] (उग्रम्) तेजस्विस्वभावम् (ऊतये) रक्षणाद्याय (समत्सु) सङ्ग्रामेषु (घ्नन्तम्) हिंसन्तम् (वृत्राणि) आवरका घना इव शत्रुसैन्यानि (संजितम्) सम्यग्जयशीलम् (धनानाम्) श्रियाम् ॥२२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यूयं शरीरात्मबलाभ्यां प्रवृद्धमसङ्ख्यधनप्रदं नरोत्तमं शत्रूणां विजेतारं धर्मिष्ठे साधुं दुष्टेष्वत्युग्रं पालकं स्वामिनं स्वोपरि मत्वा सततं सुखयतेति ॥२२॥ अत्रेन्द्रविद्वत्कृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति त्रिंशत्तमं सूक्तं चतुर्थो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जिसको (अस्मिन्) इस संग्राम में कि (भरे) जिसमें धनों को धारण करते और (वाजसातौ) धन आदि पदार्थों का विभाग करते हैं (शुनम्) ज्ञान से वृद्ध (मघवानम्) बहुत धन से युक्त (नृतमम्) अत्यन्त ही मनुष्यों में उत्तम (शृण्वन्तम्) सम्पूर्ण अर्थी अर्थात् मुद्दई और प्रत्यर्थी अर्थात् मुद्दाले के न्याय करने के लिये वचनों के श्रोता (उग्रम्) तेजःस्वभाववाले पुरुष को (समत्सु) संग्रामों में (वृत्राणि) घेरनेवाली मेघों के सदृश शत्रुओं की सेनाओं के (घ्नन्तम्) नाशकर्त्ता और (धनानाम्) लक्ष्मियों के (संजितम्) उत्तम प्रकार जीतने वा (इन्द्रम्) देनेवाले की हम लोग (हुवेम) प्रशंसा करें उसका आपलोग भी (ऊतये) रक्षा आदि के लिये आह्वान करें ॥२२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! आप लोग शरीर और आत्मबल से बढ़े असंख्य धन के देने और मनुष्यों में उत्तम शत्रुओं के जीतनेवाले धर्मिष्ठ पुरुष में नम्रस्वभाव और दुष्ट पुरुषों में तीव्रस्वभाव युक्त पालनकर्त्ता स्वामी को अपने ऊपर नियत करके निरन्तर सुख को प्राप्त हूजिये ॥२२॥ इस सूक्त में इन्द्र और विद्वान् के कृत्य का वर्णन होने से इस सूक्त में कहे अर्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह तीसवाँ सूक्त और चौथा वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
प्रभुस्मरण व विजय
पदार्थ
[१] (अस्मिन्) = इस भरे जीवन-संग्राम में (वाजसातौ) = शक्तिप्राप्ति के निमित्त (शुनम्) = [सुखकरं] सुख देनेवाले (मघवानम्) = ऐश्वर्यशाली (नृतमम्) = सर्वोत्तम नेता (इन्द्रम्) = सर्वशक्तिमान् प्रभु को (हुवेम) = पुकारते हैं। प्रभु ने ही तो इस संग्राम में विजयी बनाना है। प्रभुस्मरण से ही शक्ति का लाभ होता है। [२] उस प्रभु को हम (ऊतये) = रक्षा के लिए पुकारते हैं, जो कि (शृण्वन्तम्) = हमारी प्रार्थना को सुनते हैं, (उग्रम्) = तेजस्वी हैं | (समत्सु) = संग्रामों में (वृत्राणि) = हमारे ज्ञान पर परदा डाल देनेवाले कामरूप शत्रु को (घ्नन्तम्) = नष्ट करनेवाले हैं और (धनानां सञ्जितम्) = धनों का विजय करनेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु का आराधन करें। प्रभु हमें जीवन-संग्राम में अवश्य विजयी बनाएँगे। सम्पूर्ण सूक्त इसी भाव को पुष्ट कर रहा है कि हम प्रभु का उपासन करें। प्रभु हमें अवश्य विजय प्राप्त कराएँगे। अगले सूक्त का भी यही भाव है -
विषय
सर्वश्रेष्ठ, वीर स्तुत्य पुरुष इन्द्र कहाने योग्य है।
भावार्थ
हम लोग (शुनं) उत्साह में बढ़े हुए या ज्ञानवृद्ध या शीघ्र कार्य सम्पादन करने वाले (मघवानम्) बत्तम ऐश्वर्य के स्वामी,(इन्द्रम्) शत्रु के हन्ता (अस्मिन्) इस (वाजसातौ) ऐश्वर्य के देने वाले (भरे) संग्राम में (नृतमं) सर्वश्रेष्ठ नायक (उग्रम्) शत्रुओं के लिये भयप्रद (समत्सु) संग्रामों में (ऊतये) रक्षा करने के लिये (शृण्वन्तं) प्रजाओं की पुकार सुनने वाले और (वृत्राणि) बढ़े हुए शत्रुओं को (घ्नन्तं) विनष्ट करते हुए और (धनानाम् सञ्जितम्) धनों का विजय करने वाले पुरुष को (हुवेम) ‘इन्द्र’ इस आदरयोग्य पद से (हुवेम) बुलावें। उसी के ‘मघवा’ और ‘श्वा’ आदि भी नाम हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, २, ९—११, १४, १७, २० निचृतत्रिष्टुप्। ५, ६, ८,१३, १९, २१, २२ त्रिष्टुप्। १२, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ७, १६, १८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. शरीर व आत्मबलाने प्रबुद्ध, असंख्य धन देणारा नरोत्तम, शत्रूंवर विजय मिळविणारा, धार्मिक, नम्रस्वभावी व दुष्टांसाठी उग्र, पालक अशा स्वामीला स्वीकारून सुखी व्हा. ॥ २२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
We invoke, sing and celebrate Indra, lord giver of light and wisdom, commander of honour and prosperity, highest guide and leader of humanity, in this battle of life. Instantly does he listen to our prayers, bright and blazing is he in the battles and contests of life for protection, killer where he must be, breaker of the clouds of darkness, ignorance and poverty, and he is the winner, collector and consolidator of the wealths of life. We invoke him for protection, progress and victory in our battles of life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of duties of rulers is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! indeed we praise the army men for our protection in this battle, where much wealth is gained and distributed. The king or the Commander of the army who possesses advanced knowledge, is wealthy, liberal donor and is the best among the leading men. He is also full of splendor and fierce for the wicked, destroyer of the foes like clouds in the battles and conqueror of riches acceding to our requests. So you should also do.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should elect such a man who is fully blessed with physical and spiritual powers, giver of infinite wealth, and the best among all men. Indeed, he is the conqueror of the foes, very good or kind to the righteous but terrible for the wicked persons. He is your protector and enjoys happiness.
Foot Notes
(शुनम् ) ज्ञानवृद्धम् । = Advanced in knowledge. (वृत्नाणि) आवरका घना इव शत्रुसैन्यानि । = The armies of the enemies which are like clouds. (वाजसातौ) वाजान्धनाद्यान् पदार्थान् सनन्ति विभजन्ति यस्मिस्तस्मिन् सङ्ग्रामे | वाजसाताविति सङ्क्रामनाम ( N. G. 2, 17 ) = In the battle.
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