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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 30/ मन्त्र 20
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इ॒मं कामं॑ मन्दया॒ गोभि॒रश्वै॑श्च॒न्द्रव॑ता॒ राध॑सा प॒प्रथ॑श्च। स्व॒र्यवो॑ म॒तिभि॒स्तुभ्यं॒ विप्रा॒ इन्द्रा॑य॒ वाहः॑ कुशि॒कासो॑ अक्रन्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम् । काम॑म् । म॒न्द॒य॒ । गोऽभिः॑ । अश्वैः॑ । च॒न्द्रऽव॑ता । राध॑सा । प॒प्रथः॑ । च॒ । स्वः॒ऽयवः । म॒तिऽभिः॑ । तुभ्य॑म् । विप्राः॑ । इन्द्रा॑य । वाहः॑ । कु॒शि॒कासः॑ । अ॒क्र॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमं कामं मन्दया गोभिरश्वैश्चन्द्रवता राधसा पप्रथश्च। स्वर्यवो मतिभिस्तुभ्यं विप्रा इन्द्राय वाहः कुशिकासो अक्रन्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमम्। कामम्। मन्दय। गोऽभिः। अश्वैः। चन्द्रऽवता। राधसा। पप्रथः। च। स्वःऽयवः। मतिऽभिः। तुभ्यम्। विप्राः। इन्द्राय। वाहः। कुशिकासः। अक्रन्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 30; मन्त्र » 20
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे विद्वंस्त्वं गोभिरश्वैश्चन्द्रवता राधसा च पप्रथः। इमं कामं पूरय यथा स्वर्यवो वाहः कुशिकासो विप्रा मतिभिः सह तुभ्यमिन्द्रायेनं काममक्रंस्तांस्त्वं मन्दय ॥२०॥

    पदार्थः

    (इमम्) प्रत्यक्षतया वर्त्तमानम् (कामम्) अभिलाषाम् (मन्दय) हर्षय। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (गोभिः) धेनुभिः (अश्वैः) तुरङ्गैः (चन्द्रवता) बहूनि चन्द्राणि सुवर्णादीनि धनानि विद्यन्ते यस्मिंस्तेन (राधसा) धनेन (पप्रथः) प्रख्यापय (च) (स्वर्य्यवः) य आत्मनः स्वः सुखं कामयन्ते ते (मतिभिः) मननशीलैर्मनुष्यैः सह (तुभ्यम्) (विप्राः) मेधाविनः (इन्द्राय) ऐश्वर्य्याय (वाहः) ये वहन्ति ते (कुशिकासः) शब्दायमानाः (अक्रन्) कुर्युः ॥२०॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ये युष्मानभिलाषापूरकत्वेनानन्दयेयुस्तान् भवन्तोऽप्यानन्दयन्तु ॥२०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे विद्वान् पुरुष ! आप (गोभिः) गौओं (अश्वः) घोड़ों (च) और (चन्द्रवता) बहुत सुवर्ण आदि धन जिसमें हैं ऐसे (राधसा) धन से (पप्रथः) प्रसिद्ध करो (इमम्) प्रत्यक्ष भाव से वर्त्तमान इस (कामम्) अभिलाषा को पूर्ण करो जैसे (स्वर्य्यवः) अपने सुख की कामना करनेवाले (वाहः) स्तुतियों के धारणकर्त्ता (कुशिकासः) शब्द करते हुए (विप्राः) बुद्धिमान् लोग (मतिभिः) विचारशील मनुष्यों के साथ (तुभ्यम्) आपके तथा (इन्द्राय) ऐश्वर्य्य के लिये उक्त अभिलाषा को (अक्रन्) करें उनको आप (मन्दय) आनन्दित कीजिये ॥२०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्या जो लोग आप लोगों को अभिलाषा पूर्ण करने से आनन्द देवें, उनको आप लोग भी आनन्द देवें ॥२०॥

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    विषय

    गौवें, घोड़े तथा आह्लादक धन

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो! आप (इमं कामम्) = हमारी इस कामना को (गोभिः )= उत्तम गौवों से, (अश्वैः) = उत्तम घोड़ों से (चन्द्रवता) = आह्लाद प्राप्त करानेवाले (राधसा) = धन से मन्दया आनन्दित करिए (च) = और (पप्रथः) = विस्तारवाला करिए। हम सदा उत्तम गौवों, घोड़ों व आह्लादक धन की ही कामना करें [२] (स्वर्यवः) = प्रकाश को अपने साथ जोड़नेवाले (विप्राः) = ज्ञानी (कुशिकासः) = स्तुति - मन्त्रों का उच्चारण करनेवाले हम (इन्द्राय तुभ्यम्) = आपके लिए (मतिभिः) = मनन के साथ (वाह: अक्रन्) = स्तोत्रों को करनेवाले हों। मननपूर्वक इन स्तोत्रों को करते हुए हम आपके प्रिय हों और आपकी कृपा से उत्तम गौवों, घोड़ों व धनों को प्राप्त करें। इन धनों का उपयोग हम, गतमन्त्र के अनुसार, ज्ञानवृद्धि के लिए करें ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमें गौवें, घोड़े और प्रसन्नता का कारणभूत धन प्राप्त हो ।

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    विषय

    सर्वश्रेष्ठ, वीर स्तुत्य पुरुष इन्द्र कहाने योग्य है।

    भावार्थ

    हे ऐश्वर्यवन् ! तू (गोभिः) गौओं और (अश्वैः) अश्वों और (चन्द्रवता) सुवर्ण से युक्त (राधसा) कार्यसाधक धन से हमारे (इमं कामं) इस अभिलाषा को या अभिलाषा युक्त आत्मा को (मन्दय) तृप्त कर और हर्षित कर और (पप्रथः च) उसको और बढ़ा। (स्वर्यवः) सुख की कामना करने वाले (विप्राः) विद्वान् बुद्धिमान् (वाहः) कार्यों को अपने ऊपर लेने हारे (कुशिकासः) उत्तम वचन स्तुति बोलनेहारे कुशल पुरुष (इन्द्राय) ऐश्वर्यवान् पुरुष के लिये (कामं अक्रन्) सदा अभिलाषा करते हैं, उसी को चाहते हैं। (२) हे प्रभो ! तू हमारे इस ‘काम’ अर्थात् तृष्णा या आत्मा को ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रियों और आह्लादयुक्त आराधना से मन्द कर या तृप्त कर, तुझ ईश्वर की ही वे सब विद्वान् स्तोता चाह करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, २, ९—११, १४, १७, २० निचृतत्रिष्टुप्। ५, ६, ८,१३, १९, २१, २२ त्रिष्टुप्। १२, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ७, १६, १८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जे लोक तुमची अभिलाषा पूर्ण करण्यात आनंद मानतात त्यांना तुम्हीही आनंद द्या. ॥ २० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Let this prayer and aspiration be fulfilled in joy with the attainment of cows, lands and the light of words divine at the speed of light, and let it expand with the golden beauty of the moon and accomplishment of life’s end and aim, a prayer and aspiration such as lovers of joy, intelligent celebrants, with the best of their wit and imagination, construct and compose in poetry and express in loud voice for you, lord Indra. They are carriers of the divine message as we are, waiting for fulfilment.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The tips for the rulers / state officials are imparted.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned king ! fulfil this our longing for the cows, for horses, for shining treasures like gold and make us renowned. The wise devotees of God who glorify Him, bestow happiness upon others along with other thoughtful persons and they have expressed to you this desire to attain abiding happiness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! you should also gladden those men who make you happy, by fulfilling your desirers.

    Foot Notes

    (मन्दय ) हर्षय | अत्र संहिताया मिति दीर्घः । (मन्दय ) मदी -हर्षलेपनयो: (भ्वा० ) = Satisfy, gladden (वाह:) ये वहन्ति (सुखं ) ते। = Those who bestow happiness. (वाह:) It is from वह प्रापणे (भ्वा० ) conveying or bestowing happiness upon others or glorifying God. (कुशिकासः) शब्दायमानाः | कुशिक: क्रोशते: शब्दकर्मण: क्रशतेर्वा स्यात् प्रकाशयतिकर्मणः साधु विक्रोशयितार्थो वा मिति वा । ( N.R.T. 2, 7, 25 ). The word कुशिकास: as the Proper Noun for the descendants of the King Kushika is wrong, as Prof. Wilson, Griffith and others have overlooked the fundamental principle contained in the Vedic terminology-Nighantu.

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