ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 30/ मन्त्र 8
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स॒हदा॑नुं पुरुहूत क्षि॒यन्त॑मह॒स्तमि॑न्द्र॒ सं पि॑ण॒क्कुणा॑रुम्। अ॒भि वृ॒त्रं वर्ध॑मानं॒ पिया॑रुम॒पाद॑मिन्द्र त॒वसा॑ जघन्थ॥
स्वर सहित पद पाठस॒हऽदा॑नुम् । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । क्षि॒यन्त॑म् । अ॒ह॒स्तम् । इ॒न्द्र॒ । सम् । पि॒ण॒क् । कुणा॑रुम् । अ॒भि । वृ॒त्रम् । वर्ध॑मानम् । पिया॑रुम् । अ॒पाद॑म् । इ॒न्द्र॒ । त॒वसा॑ । ज॒घ॒न्थ॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सहदानुं पुरुहूत क्षियन्तमहस्तमिन्द्र सं पिणक्कुणारुम्। अभि वृत्रं वर्धमानं पियारुमपादमिन्द्र तवसा जघन्थ॥
स्वर रहित पद पाठसहऽदानुम्। पुरुऽहूत। क्षियन्तम्। अहस्तम्। इन्द्र। सम्। पिणक्। कुणारुम्। अभि। वृत्रम्। वर्धमानम्। पियारुम्। अपादम्। इन्द्र। तवसा। जघन्थ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 30; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे पुरुहूतेन्द्र ! यथा सूर्य्यः सह दानुं क्षियन्तमहस्तं कुणारुं वर्धमानं पियारुमपादं वृत्रं मेघमभिपिनष्टि तथा शत्रून् भवान् संपिणक्। हे इन्द्र त्वं तवसा दुष्टान् जघन्थ ॥८॥
पदार्थः
(सहदानुम्) दानेन सह वर्त्तमानम् (पुरुहूत) बहुभिः प्रशंसित (क्षियन्तम्) निवसन्तम् (अहस्तम्) अविद्यमानम् (इन्द्र) सूर्य्यवद्वर्त्तमान (सम्) सम्यक् (पिणक्) पिंष्याः (कुणारुम्) शब्दायमानम् (अभि) आभिमुख्ये (वृत्रम्) मेघम् (वर्धमानम्) (पियारुम्) पीयमानम् (अपादम्) पादरहितम् (इन्द्र) दुष्टानां विदारक (तवसा) बलेन (जलन्थ) जह्याः ॥८॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यो मेघाकर्षणवर्षणाभ्यां सर्वं जगत्पाति तथैव दुष्टानां घातेन श्रेष्ठानां धारणेन च सर्वा प्रजाः पालनीयाः ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (पुरुहूत) बहुत जनों से प्रशंसित अर्थात् यश को प्राप्त (इन्द्र) सूर्य्य के सदृश तेजस्वी ! जैसे (सहदानुम्) दान से युक्त (क्षियन्तम्) रहते हुए (अहस्तम्) अविद्यमान (कुणारुम्) शब्द करते और (वर्द्धमानम्) बढ़ते हुए (पियारुम्) पिये गये (अपादम्) पादों से हीन (वृत्रम्) मेघ को (अभि) सन्मुख पीसता है, वैसे शत्रुओं का आप (सम्, (पिणक्) नाश करो और (इन्द्र) हे दुष्टों को विदीर्ण करनेवाले आप (तवसा) बल से दुष्ट पुरुषों का (जघन्थ) नाश करें ॥८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य मेघों के आकर्षण और वर्षाने से सम्पूर्ण जगत् को पालता है, वैसे ही दुष्टों के नाश करने और श्रेष्ठ पुरुषों के धारण करने से राजा को सम्पूर्ण प्रजाओं की पालना करनी चाहिये ॥८॥
विषय
अपाद अहस्त करके वृत्र का विनाश
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले (पुरुहूत) = बहुतों से पुकारे जानेवाले परमात्मन् ! आप (सहदानुम्) = दानवी वृत्रमाता सहित, (क्षियन्तम्) = विनाश करनेवाले, (कुणारुम्) = क्वणनशील इस असुर को (अहस्तम्) = निहत्था करके (संपिणक्) = सम्यक् पीस दीजिए। आसुरी वृत्तियों को आप नष्ट करिए। इनकी कारणभूत दानु को, हमारा लवन [दाप् लवने] [विनाश] करनेवाली आसुरभावों की माता को विनष्ट करिए। ये आसुर भावनाएँ अन्ततः हमें रुलानेवाली होती हैं, अत: 'कुणारु' कहलाती हैं। हमारा विनाश करने के कारण 'क्षियन्' हैं। ये हमारे पर प्रबल न हों। हमारे साथ संग्राम में ये निहत्थे हो जाएँ। [२] हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (पियासम्) = हिंसित करनेवाले (वर्धमानम्) = दिन प्रतिदिन बढ़ते जाते हुए (वृत्रम्) = ज्ञान के आवरणभूत इस काम नामक वृत्र को (अपादम्) = पाँव से रहित-गतिशून्य करके (तवसा) = शक्ति द्वारा (अभिजघन्थ) = इसे नष्ट कर दीजिए।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभुकृपा से कामवासना रूप 'वृत्र' का समूल विनाश हो जाए।
विषय
वीर सेनापति के कर्त्तव्य, शत्रुनाश, प्रजापालन
भावार्थ
हे (पुरुहूत) बहुतों से स्तुतियोग्य ! (सहदानुम्) जल सहित (कुणारुम्) गर्जनशील मेघ को जिस प्रकार वायु, विद्युत् या सूर्य अपने तेज से और वेग से छिन्न भिन्न कर देता है उसी प्रकार तू भी (सहदानुं) सैन्य को मार गिराने वाली शस्त्र बल से सहित, (क्षियन्तम्) प्रजा या राष्ट्र में बसने वाले (कुणारुम्) अहंकार से गर्जते हुए, शत्रु या दुष्ट पुरुष को (अहस्तम्) हस्त या हनन साधन, शस्त्रों से रहित करके (संपिणक्) अच्छी प्रकार पीस या कुचल डाला। और जिस प्रकार सूर्य या विद्युत् (पियारुम् वर्धमानं वृत्रं अपादं तवसा जघन्थ) पान किये जाने योग्य, बढ़े हुए, बहुत अधिक जल को वेग से आघात करके नीचे गिरा देता है उसी प्रकार (अभिवर्धमानं) मुकाबले पर बढ़ने वाले (वृत्रं) अतएव वृद्धिशील (पियारुं) हिंसाशील शत्रु को (अपादम्) गमन करने के साधन चरण रथादि रहित, निराश्रय करके (तवसा) बलपूर्वक (जघन्थ) नाशकर, दण्डित कर। आचार्य—(सहदानुं) व्रत खण्डन करने वाले कुकर्मों से युक्त (क्षियन्तं) अधीन रहने वाले (कुणारुं) अध्ययनशील (अहस्तं) अप्रशस्त कर्मा विद्यार्थी को भी अच्छी प्रकार दण्डित करे। और (अपादं) ज्ञानरहित, बढ़ते हुए विघ्नकारी (पियारुम्) व्रत विलोपक विघ्न को शक्ति से नाश करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, २, ९—११, १४, १७, २० निचृतत्रिष्टुप्। ५, ६, ८,१३, १९, २१, २२ त्रिष्टुप्। १२, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ७, १६, १८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जसा सूर्य मेघांचे आकर्षण करून व वृष्टी करून संपूर्ण जगाचे पालन करतो तसेच दुष्टांचा नाश व श्रेष्ठ पुरुषांना धारण करून राजाने संपूर्ण प्रजेचे पालन केले पाहिजे. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of power, justice and majesty, universally invoked, served and celebrated, just as the sun, with its blaze, strikes the dark demon of the cloud, thundering, growing, flying with the winds, breaks it and crushes it into gladdening showers, so do you, with your power and justice, strike the dark hoarding demons of society coexisting camouflaged with the rich and liberal progressive people, vociferous, fattening, and scoffing at the poor, make them ineffective to grab with the hands and rush around robbing the innocent, break open the hoarded wealth and let it out in showers for the joy of general society.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of government officials and their duties are continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra ! you destroy the wicked. Invoked and admired by many, you are shining like the Sun. The sun crashes the cloud into pieces dwelling in firmament with its gift of water. It thunders and waxes in vigor, making it deprived of its hand and food (so to speak ), i.e. annihilating it completely. In the same manner, grind to dust your wicked enemies with own might.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the sun, protects the whole world by dissipating the cloud and raining down water, in the same manner the officers of the State should safeguard their all subjects by slaying the wicked and upholding (sustaining the righteous persons).
Foot Notes
(कुणारुम् ) शब्दायमानम् =' The cloud making loud noise. ( सहदानुम् ) दानेन सह वर्त्तमानम् | The cloud dwelling with the gift of water. In word सहदानु. the word Danu is derived from दा दाने (जुहो.) दा याभ्यां नु: (उणादिः 3, 32) इति नु प्रत्यय:। Sayanacharya has explained दानवी वृत्र माता तथा सह वर्त्तमानम् यद्वा सहदानुम् दानुभिर्दानवैः सह वर्तते इति सहदानु:। but Prof. Wilson, Griffith and others interpreted as welling with the mother of the Danavas (Wilson), a friend who dwelt with Danu (Griffith). But in the context of the principle of the eternity of the Vedas, Sayan in his commentary of the Rigveda, has himself given the correct interpretation. It corresponds to Rishi Dayananda Sarasvati as यद्वा सहदानुम् उदकदानोपेतम् i.e. Dwelling with the donation of water.
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