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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 30/ मन्त्र 7
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    यस्मै॒ धायु॒रद॑धा॒ मर्त्या॒याभ॑क्तं चिद्भजते गे॒ह्यं१॒॑ सः। भ॒द्रा त॑ इन्द्र सुम॒तिर्घृ॒ताची॑ स॒हस्र॑दाना पुरुहूत रा॒तिः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्मै॑ । धायुः॑ । अद॑धाः । मर्त्या॑य । अभ॑क्तम् । चि॒त् । भ॒ज॒ते॒ । गे॒ह्य॑म् । सः । भ॒द्रा । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । सु॒ऽम॒तिः । घृ॒ताची॑ । स॒हस्र॑ऽदाना । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । रा॒तिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्मै धायुरदधा मर्त्यायाभक्तं चिद्भजते गेह्यं१ सः। भद्रा त इन्द्र सुमतिर्घृताची सहस्रदाना पुरुहूत रातिः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्मै। धायुः। अदधाः। मर्त्याय। अभक्तम्। चित्। भजते। गेह्यम्। सः। भद्रा। ते। इन्द्र। सुऽमतिः। घृताची। सहस्रऽदाना। पुरुऽहूत। रातिः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 30; मन्त्र » 7
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे पुरुहूतेन्द्र भवान् यस्मै मर्त्यायाऽभक्तं गेह्यं भजते यस्मै धायुश्चिदपि सुखमदधास्तस्य ये या घृताचीव भद्रा सुमतिः सहस्रदाना रातिरस्ति तां स कुर्य्यात् ॥७॥

    पदार्थः

    (यस्मै) (धायुः) यो दधाति सः (अदधाः) दध्याः (मर्त्याय) मनुष्याय (अभक्तम्) विभागरहितम् (चित्) अपि (भजते) सेवते (गेह्यम्) गृहेषु गृहेषु भवम् (सः) (भद्रा) कल्याणकरी (ते) तव (इन्द्र) सुखप्रदातः (सुमतिः) शोभना प्रज्ञा (घृताची) सुखप्रदा रात्रीव (सहस्रदाना) असंख्यप्रदाना (पुरुहूत) बहुभिः सेवितः (रातिः) दानक्रिया ॥७॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या पितृपैतामहं धनादिकमभक्तं सेवेरन् अन्योऽन्यस्य दोषाँस्त्यक्त्वा गुणान् गृह्णीयुस्ते कल्याणभाजो भवेयुः ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    (पुरुहूत) (इन्द्र) सुख के दाता आप (यस्मै) जिस (मर्त्याय) मनुष्य के लिये (अभक्तम्) विभाग से रहित (गेह्यम्) गृह गृह में उत्पन्न हुए धन की (भजते) सेवा करते हैं जिसके लिये (धायुः) उत्तम पदार्थों के धारणकर्त्ता (चित्) भी आप सुख को (अदधाः) धारण करें उन (ते) आपकी जो (घृताची) सुख देनेवाली रात्रि के सदृश (भद्रा) कल्याण करनेवाली (सुमतिः) उत्तम बुद्धि और (सहस्रदाना) अनगिनती दान जिसमें दिये जाते हों ऐसी (रातिः) दान सम्बन्धिनी क्रिया है उसको (सः) वह स्वीकार करें ॥७॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य पिता और पितामह का धन आदि जो कि नहीं बटा हुआ, उसकी रक्षा वा सेवा करें और परस्पर दोषों को त्याग के गुणों का ग्रहण करें, वे कल्याण के भागी होवें ॥७॥

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    विषय

    अभूतपूर्व धन आदि की प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] (यस्मै मर्त्याय) = जिस मनुष्य के लिए (धायुः) = वह धारण करनेवाला प्रभु (अदधा:) = धारण करता है, अर्थात् प्रभु जिसके पालक होते हैं, (सः) = वह (अभक्तम्) = आज तक किसी से न सेवन किये गये, अर्थात् अद्भुत (गेह्यम्) = घर की आवश्यक सामग्री को [गेहे भवं] (भजते) = प्राप्त करता है। इस उपासक को घर की उन्नति के लिए सब आवश्यक वस्तुएँ प्राप्त होती हैं। [२] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यवाले प्रभो ! (ते) = आपकी (सुमतिः) = कल्याणीमति भद्रा हमारे लिए सुखद होती है और (घृताची) = दीप्ति की ओर हमें ले जानेवाली होती है [घृत-दीप्ति, अञ्च् गतौ] । हे पुरुहूत बहुतों हैं | से पुकारे जानेवाले प्रभो! आपका (राति) = दान (सहस्त्रदाना) = अपरिमित धनदान से युक्त है ।

    भावार्थ

    भावार्थ – प्रभु पालक होते हैं, तो हमें अभूतपूर्व उन्नति के साधन प्राप्त होते हैं। प्रभु से दी गई सुमति हमारे जीवन को दीप्त बनाती है। प्रभु कृपा से किसी भी आवश्यक वस्तु की कमी नहीं रहती ।

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    विषय

    वीर सेनापति के कर्त्तव्य, शत्रुनाश, प्रजापालन

    भावार्थ

    (यस्यै) जिस पुरुष को हे ऐश्वर्यवन् ! तू (धायुः) सबको धारण पोषण करने हारा होकर (अदधाः) धारण पोषण, पालन व विद्या ज्ञान आदि प्रदान करता है (स) वह पुरुष (अभक्तं चित्) विभाग करने के अयोग्य विद्या आदि के समान या (अभक्तं) पूर्व कभी न सेवित अपूर्व धन के तुल्य श्रेष्ठ, (गेह्यं) गृहोपयोगी धन को (भजते) प्राप्त करता है। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! प्रभो ! हे (पुरुहूत) बहुतों से स्तुति योग्य (ते सुमतिः) तेरी शुभ मति, ज्ञान (भद्रा) सबका कल्याण करने वाली, (घृताची) प्रकाश और स्नेह से युक्त, एवं रात्रि के समान सुखदायिनी है। (ते रातिः) तेरा दान भी (सहस्रदाना) सहस्रों को देने वाला है। (२) अध्यात्म में—जिस पर प्रभु कृपा करते हैं (गेह्यं) वह ग्रहण करने योग्य, इसी शरीर में भोगने योग्य अपूर्व ऐश्वर्य पाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, २, ९—११, १४, १७, २० निचृतत्रिष्टुप्। ५, ६, ८,१३, १९, २१, २२ त्रिष्टुप्। १२, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ७, १६, १८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे पिता व पितामह यांच्या धनाचे रक्षण व सेवा करतात व परस्पर दोषांचा त्याग करून गुणांचे ग्रहण करतात ती कल्याणात सहभागी असतात. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of abundance, wealth and honour, the mortal man, for whom you hold and bring the gifts of life and grace he has never had so far, gets and enjoys all that as his homely blessings of everyday. O lord invoked, served and celebrated by all people of the world, blissful is your love and kindness, abundant and overflowing your generosity, thousandfold your charity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The statecraft is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O the giver of happiness ! the man to whom you give, provide or sustain it, and much invoke you, they enjoy undivided plenty at their homes. Your wisdom or auspicious favor gives thousand kinds of delight and is blissful, like the happiness bestowed in the night. Your gift to all is un-bounded.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons enjoy happiness who partake of the undivided ancestral property and give up the defects, shortcomings and faults of one another, and accept only their virtues and qualities.

    Foot Notes

    (धायु:) यो दधाति स:। (धायुः ) डुधाञ्-धारणपोषणयो: (जुहो० ) = Provider or sustainer, upholder. (राति:) दानक्रिया । रा दाने (अदा० ) = Gift, donation. (घृताची) सुखप्रदारात्रीव। घृताचीति रात्रिनाम (N.G. 1, 7) = Night.

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