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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 30/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    त्वं हि ष्मा॑ च्या॒वय॒न्नच्यु॑ता॒न्येको॑ वृ॒त्रा चर॑सि॒ जिघ्न॑मानः। तव॒ द्यावा॑पृथि॒वी पर्व॑ता॒सोऽनु॑ व्र॒ताय॒ निमि॑तेव तस्थुः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । हि । स्म॒ । च्या॒वय॑न् । अच्यु॑तानि । एकः॑ । वृ॒त्रा । चर॑सि । जिघ्न॑मानः । तव॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । पर्व॑ता॒सः । अनु॑ । व्र॒ताय॑ । निमि॑ताऽइव । त॒स्थुः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं हि ष्मा च्यावयन्नच्युतान्येको वृत्रा चरसि जिघ्नमानः। तव द्यावापृथिवी पर्वतासोऽनु व्रताय निमितेव तस्थुः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। हि। स्म। च्यावयन्। अच्युतानि। एकः। वृत्रा। चरसि। जिघ्नमानः। तव। द्यावापृथिवी इति। पर्वतासः। अनु। व्रताय। निमिताऽइव। तस्थुः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 30; मन्त्र » 4
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे राजन् ! त्वमेको ह्यच्युतानि च्यावयन् स्म चरसि यथा सूर्य्यस्य सम्बन्धे द्यावापृथिवी पर्वतासो वृत्रा निमितेव तस्थुस्तथैवानुव्रताय शत्रून् जिघ्नमानो भवेत्तर्हि ते तव ध्रुवो विजयः स्यात् ॥४॥

    पदार्थः

    (त्वम्) राजन् (हि) (स्म) एव। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (च्यावयन्) प्रचालयन् निपातयन् (अच्युतानि) अक्षीणानि शत्रुसैन्यानि (एकः) असहायः (वृत्रा) मेघावयवरूपाणि घनानि (चरसि) (जिघ्नमानः) हनन् सन् (तव) (द्यावापृथिवी) प्रकाशभूमी (पर्वतासः) पर्वताकारा मेघाः (अनु) (व्रताय) सत्यभाषणादिकर्मणे तच्छीलाय वा (निमितेव) नितरां मितानीव (तस्थुः) तिष्ठन्ति ॥४॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यो नियमेन वर्त्तित्वा निवारणीयानि निवार्य्य रक्षणीयानि रक्षति तथैव भवान् प्रतिषेद्धव्यान् शत्रून्प्रतिषेध्य प्रजाः सततं रक्षेत् ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे राजन् ! (त्वम्) आप (एकः) सहाय के विना स्वयं बलवान् (हि) जिससे (अच्युतानि) प्रबल शत्रुओं की सेनाओं को (च्यावयन्) भय से गिराते हुए (स्म) ही वर्त्तमान हैं जैसे सूर्य के सम्बन्ध में (द्यावापृथिवी) प्रकाश और भूमि (पर्वतासः) पर्वत के सदृश बड़े-बड़े मेघ और (वृत्रा) मेघों के टुकड़े रूप बद्दल (निमितेव) जैसे निरन्तर प्रमाण किये हुए पदार्थ वैसे (तस्थुः) स्थिर होते हैं वैसे ही (अनु) (व्रताय) सत्यभाषण आदि कर्म वा उत्तम स्वभाव के लिये शत्रुओं का (जिघ्नमानः) नाशकर्त्ता होओ तो (ते) आपका निश्चय से विजय होवे ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सूर्य नियमपूर्वक वर्त्तमान हो के निवारण करने योग्य पदार्थों का निवारण करके रक्षा करने योग्य पदार्थों की रक्षा करता है, वैसे ही आप वर्जने योग्य शत्रुओं का वर्जन करके प्रजाओं की निरन्तर रक्षा कीजिये ॥४॥

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    विषय

    अच्युत च्यावक प्रभु

    पदार्थ

    [१] जीव प्रभुस्तवन करता हुआ कहता है कि (त्वम्) = आप (हि ष्मा) = निश्चय से (एकः) = अकेले ही (अच्युतानि) = अत्यन्त स्थिर दृढमूल भी पदार्थों को (च्यावयन्) = उन्मूलित करते हुए (चरसि) = गति करते हैं। दृढ़ से दृढ़ पर्वतों के समान स्थिर पदार्थों को भी आप कम्पित करनेवाले हैं। आप ही सब वृत्रा ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को (जिघ्नमान:) = हिंसित करते हुए गति करते हैं । [२] (द्यावापृथिवी) = यह सम्पूर्ण द्युलोक व पृथिवीलोक तथा (पर्वतासः) = पर्वत भी (तव) = आपके (व्रताय) = नियम के लिए निर्देश पालन के लिए, (निमिता: इव) = निरवात से अपने-अपने स्थान स्थिर से हुए हुए (अनुतस्थुः) = अनुकूलता से स्थित हैं। हे प्रभो! सारी शक्ति तो आपकी है। सारे ब्रह्माण्ड का शासन आप ही कर रहे हैं 'द्युलोक-पृथिवीलोक-पर्वत' सब आपके नियमन में हैं। हमारे काम-क्रोध आदि का नियमन भी आपने ही करना है। हमारी क्या शक्ति है कि हम इनका संहार कर सकें ?

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ही दृढ़ से दृढ़ शत्रुओं का विदारण करनेवाले हैं। मैं प्रभु का उपासक बनूँ । प्रभु की शक्ति मेरे शत्रुओं का विदारण करेगी।

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    विषय

    पक्षान्तर में परमेश्वर का जगत्सर्ग और सञ्चालन।

    भावार्थ

    जिस प्रकार विद्युत् (अच्युतानि च्यावयन् वृत्रा जिघ्नमानः चरति) न गिरने वाले जलों को नीचे गिराता और मेघस्थ जलों को ताड़न करता हुआ विचरता है उसी प्रकार हे इन्द्र ! ऐश्वर्यवन् शत्रुहन्तः ! सेनापते ! (त्वं हि) तू निश्चय से (एकः) अकेला, अद्वितीय (अच्युतानि) अच्युत, दृढ़, न क्षीण होने वाले, जमकर लड़ने वाले बलवान् शत्रु-सैन्यों को (च्यवयन्) स्थानच्युत करता हुआ, भगाता और गिराता हुआ (वृत्रा) मेघों को वायु विद्युत् या सूर्यवत् बढ़ते हुए शत्रुगण को (जिघ्नमानः) हनन करता हुआ (चरसि) विचरता है। (तव) तेरे (अनुव्रताय) अनुकूल, नियमपूर्वक रहने के लिये (द्यावापृथिवी) सूर्य और पृथिवी के समान ऊपर नीचे विराजमान ज्ञानी, अज्ञानी, पुरुष स्त्री और शास्य शासक, प्रजावर्ग और अध्यक्ष गण, सेनावर्ग और नायकवर्ग और (पर्वतासः) पर्वतों के समान अचल और मेघों के समान शस्त्रवर्षी वीर और पोरु २ और टुकड़ी टुकड़ी से बने सैन्य-व्यूह सभी (निमिता इव) नियम में व्यवस्थित के सदृश (अनु तस्थुः) रहकर तेरे अधीन होकर काम करें। (२) परमेश्वर (एकः अच्युतानि च्यवयन्) एक अद्वितीय होकर गतिरहित, जड़ पांचों भूतों या प्रकृति के परमाणुओं को चला रहा है। वह (वृत्रा) वृद्धिशील महान् ब्रह्माण्डों या चक्रगति से विवर्त्तन करने वाले सूर्यादि लोक और नीहार-मण्डलों (Nelulae) को (जिघ्नमानः) घनीभूत स्थूल सूर्य, पृथिवी ग्रह नक्षत्रादि में पिण्डित करता हुआ (चरसि) सर्वत्र व्यापता और सब को चला रहा है। (द्यावापृथिवी पर्वतासः) सूर्य, पृथिवी और पर्वत वा मेघ आदि पदार्थ भी (तव व्रताय) तेरे व्यवस्था पालन करने के लिये ही मानो (निमिता इव) बहुत नियमपूर्वक रचे जाकर (अनु प्तसस्थुः) तेरी आज्ञानुसार सब काम करते हैं। अथवा (वृत्रा जिघ्नमानः चरसि) तू विघ्न वा बाधाओं को नाश करता हुआ व्याप रहा है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, २, ९—११, १४, १७, २० निचृतत्रिष्टुप्। ५, ६, ८,१३, १९, २१, २२ त्रिष्टुप्। १२, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ७, १६, १८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा सूर्य नियमपूर्वक पदार्थांचे निवारण करून रक्षणीय पदार्थांचे रक्षण करतो, तसेच तू (हे राजा) वर्ज्य करण्यायोग्य शत्रूचे वर्जन करून प्रजेचे निरंतर रक्षण कर. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, ruling lord of humanity, you roam around with dignity shaking and breaking firm and otherwise unshakable clouds, hoarders, strongholds of darkness and ignorance and other enemies of humanity all by yourself. The earth and heaven, clouds and mountains, all in measured movement devoutly committed to your law and discipline abide and act in obedience to your will.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The learned person's ideals are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O kind person ! you alone move felling down (defeating) the unshakable (strong ) armies of our enemies. As before the sun, the heaven and earth and mountainlike giant clouds and their limbs all stand inferior and obedient, in the same manner, for the observance of your vows of truthfulness,. the learned persons slay your foes, and you are surely to achieve victory.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the sun dispels darkness and protects with great regularity, whatever is it to be safeguarded, in the same manner, a king should destroy his enemies and protect his subjects well.

    Foot Notes

    (पर्वतास:) पर्वताकारा मेघाः । पर्वत इति मेघनाम। (N. G. 1, 18)= Mountain-like giant clouds. (वृतत्रा) मेघावयवरूपाणि घनानि । वृत्र इति मेघनाम,। ( N. G. 1, 10 ) = Small clouds.

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