ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 30/ मन्त्र 13
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
दिदृ॑क्षन्त उ॒षसो॒ याम॑न्न॒क्तोर्वि॒वस्व॑त्या॒ महि॑ चि॒त्रमनी॑कम्। विश्वे॑ जानन्ति महि॒ना यदागा॒दिन्द्र॑स्य॒ कर्म॒ सुकृ॑ता पु॒रूणि॑॥
स्वर सहित पद पाठदिदृ॑क्षन्ते । उ॒षसः॑ । याम॑न् । अ॒क्तोः । वि॒वस्व॑त्याः । महि॑ । चि॒त्रम् । अनी॑कम् । विश्वे॑ । जा॒न॒न्ति॒ । म॒हि॒ना । यत् । आ । अगा॑त् । इन्द्र॑स्य । कर्म॑ । सुऽकृ॑ता । पु॒रूणि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
दिदृक्षन्त उषसो यामन्नक्तोर्विवस्वत्या महि चित्रमनीकम्। विश्वे जानन्ति महिना यदागादिन्द्रस्य कर्म सुकृता पुरूणि॥
स्वर रहित पद पाठदिदृक्षन्ते। उषसः। यामन्। अक्तोः। विवस्वत्याः। महि। चित्रम्। अनीकम्। विश्वे। जानन्ति। महिना। यत्। आ। अगात्। इन्द्रस्य। कर्म। सुऽकृता। पुरूणि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 30; मन्त्र » 13
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
यद्ये विश्वे मनुष्या विवस्वत्या उषसोऽक्तोर्यामन् दिदृक्षन्ते महिना महि चित्रमनीकं जानन्तीन्द्रस्य पुरूणि सुकृता कर्म दिदृक्षन्ते तान्य आगात्स सुखी स्यात् ॥१३॥
पदार्थः
(दिदृक्षन्ते) द्रष्टुमिच्छन्ति (उषसः) प्रभातान् (यामन्) यामनि मार्गे (अक्तोः) रात्रेः (विवस्वत्याः) यः विवस्वति साध्व्यः (महि) महत् (चित्रम्) अद्भुतम् (अनीकम्) सैन्यम् (विश्वे) सर्वे (जानन्ति) (महिना) महिम्ना। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वेति नलोपः। (यत्) ये (आ) समन्तात् (अगात्) प्राप्नुयात् (इन्द्रस्य) विद्युतः (कर्म) कर्माणि (सुकृता) सुष्ठुकृतानि (पुरूणि) बहूनि ॥१३॥
भावार्थः
ये परीक्षकाः प्रातरुत्थाय प्रयत्नेन व्यवहारान्साध्नुवन्ति तेऽत्र ज्ञानविशेषा पूज्यन्ते बलं च लभन्ते ॥१३॥
हिन्दी (2)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
(यत्) जो (विश्वे) संपूर्ण मनुष्य (विवस्वत्याः) सूर्य मण्डल के निमित्त व्यवहारवाली (उषसः) प्रभात वेलाओं को (अक्तोः) रात्रि के (यामन्) मार्ग में (दिदृक्षन्ते) देखने की इच्छा करते हैं (महिना) महिमा से (महि) बड़ी (चित्रम्) अद्भुत (अनीकम्) सेना को (जानन्ति) जानते हैं (इन्द्रस्य) बिजुली के (पुरूणि) बहुत (सुकृता) उत्तम प्रकार किये गये (कर्म) कर्मों को देखने की इच्छा करते हैं, उनको जो (आ, अगात्) प्राप्त हो, वह सुखी होवे ॥१३॥
भावार्थ
जो परीक्षक लोग प्रातःकाल उठ के प्रयत्न से व्यवहारों को सिद्ध करते हैं, वे इस संसार में ज्ञान विशेष से प्रतिष्ठा को प्राप्त और बल से युक्त होते हैं ॥१३॥
विषय
सूर्योदय व उत्तम कर्म
पदार्थ
[१] (विवस्वत्याः उषसः) = विवासन वर्त - अन्धकार दूर करनेवाली उषा के (यामन्) = जाने पर (अक्तोः) = प्रकाश की किरणों के (महि चित्रं अनीकम्) = महनीय अद्भुत तेज को (दिदृक्षन्ते) = देखने की इच्छा करते हैं । [२] (यद्) = जब आगात् यह सूर्य का प्रकाश आता है, तो (विश्वे) = सब (महिना) = [महनीयानि सा०] महनीय-आदरणीय-उत्तम अग्निहोत्रादि कर्मों को जानन्ति कर्त्तव्य के रूप में जानते हैं, अर्थात् सूर्य निकलते ही अग्निहोत्रादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। (इन्द्रस्य) = एक जितेन्द्रिय पुरुष के (कर्म) = काम (सुकृता) = उत्तमता से किये जाते हैं और (पुरूणि) = ये कर्मपालनात्मक व पूरणात्मक होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- उषाकाल में जागकर हम सूर्य के स्वागत के लिए तैयार हों। उसके उदय होते ही उत्तम कर्मों में प्रवृत्त हो जाएँ। इन कर्मों को उत्तमता से करें ये कर्म पालनात्मक हों।
मराठी (1)
भावार्थ
जे परीक्षक प्रातःकाळी उठून प्रयत्नाने व्यवहार सिद्ध करतात ते विशेष ज्ञानाने या जगात प्रतिष्ठा व बल प्राप्त करतात. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
When the night is on the wayout, all the inmates of the living world love to see the great and glorious light of the dawn proclaiming the majesty of the rising sun, and, when the dawn arises, they realise the holiness and grace of Indra’s infinite acts of omnipotence.
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