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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 56 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 56/ मन्त्र 10
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - मरुतः छन्दः - आर्च्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    प्रि॒या वो॒ नाम॑ हुवे तु॒राणा॒मा यत्तृ॒पन्म॑रुतो वावशा॒नाः ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रि॒या । वः॒ । नाम॑ । हु॒वे॒ । तु॒राणा॑म् । आ । यत् । तृ॒पत् । म॒रु॒तः॒ । वा॒व॒शा॒नाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रिया वो नाम हुवे तुराणामा यत्तृपन्मरुतो वावशानाः ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रिया। वः। नाम। हुवे। तुराणाम्। आ। यत्। तृपत्। मरुतः। वावशानाः ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 56; मन्त्र » 10
    अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे वावशाना मरुतस्तुराणां वः प्रिया नामाहं हुवे यद्यः आतृपत् तं मा च यूयं सत्कुरुत ॥१०॥

    पदार्थः

    (प्रिया) प्रियाणि कमनीयानि (वः) युष्माकम् (नाम) नामानि (हुवे) प्रशंसामि (तुराणाम्) सद्यःकारिणाम् (आ) (यत्) यः (तृपत्) तृप्यति (मरुतः) प्राण इव प्रिया विद्वांसः (वावशानाः) कामयमानाः ॥१०॥

    भावार्थः

    ये सर्वेषां प्रियाचरणाः सुखं कामयमाना मनुष्या वर्तन्ते त एव प्रियाणि सुखानि लभन्ते ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (वावशानाः) कामना करते हुए (मरुतः) प्राण के समान प्यारे विद्वानो ! (तुराणाम्) शीघ्र करनेवालों (वः) आप लोगों के (प्रिया) मनोहर (नाम) नामों को मैं (हुवे) प्रशंसता हूँ अर्थात् मैं उनकी प्रशंसा करता हूँ (यत्) जो (आ, तृपत्) अच्छे प्रकार तृप्त होता है उस का और मेरा सत्कार करो ॥१०॥

    भावार्थ

    जो सब के प्रियाचरण करने और सुख की कामना करनेवाले मनुष्य वर्त्तमान हैं, वे ही प्रिय सुखों को पाते हैं ॥१०॥

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    विषय

    वीरों विद्वानों के वायुओं के तुल्य कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( यत् नाम ) जो उत्तम, नाम, कीर्ति वा अन्न (वः मरुतः) प्राणवत् प्रिय आप लोगों को ( तृपत् ) तृप्त करे, सुखी, प्रसन्न करे हे ( वावशाना:) उत्तम अन्न, यशादि की कामना करने वाले सज्जनो ! मैं कुशल ( तुराणां ) अति शीघ्रकारी, अप्रमादी, शत्रुहिंसक ( वः ) आप लोगों के लिये वही ( प्रिया नाम ) प्रिय नाम वा अन्नादि पदार्थ ( आ हुवे ) आदर पूर्वक कहूँ और प्रदान करूं । इति त्रयोविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ।। मरुतो देवताः ॥ छन्दः -१ आर्ची गायत्री । २, ६, ७,९ भुरिगार्ची गायत्रीं । ३, ४, ५ प्राजापत्या बृहती । ८, १० आर्च्युष्णिक् । ११ निचृदार्च्युष्णिक् १२, १३, १५, १८, १९, २१ निचृत्त्रिष्टुप् । १७, २० त्रिष्टुप् । २२, २३, २५ विराट् त्रिष्टुप् । २४ पंक्तिः । १४, १६ स्वराट् पंक्तिः ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    यशोकामी पुरुष

    पदार्थ

    पदार्थ - (यत् नाम) = जो उत्तम नाम, अन्न (वः मरुतः) = प्राणवत् प्रिय आप लोगों को (तृपत्) = प्रसन्न करे, हे (वावशाना:) = कीर्ति-कामी सज्जनो! मैं (तुराणां) = शीघ्रकारी (वः) = आप लोगों के लिये (प्रिया नाम) = प्रिय नाम वा अन्नादि पदार्थ (आ हुवे) = आदर पूर्वक कहूँ और दूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- यश की कामना करनेवाले पुरुष सब लोगों के साथ आत्मवत् प्रिय व्यवहार कर उन्हें तृप्त करें तथा अप्रमादी होकर अपने आन्तरिक तथा बाहरी शत्रुओं को नष्ट करें। और सबके साथ आदर पूर्ण व्यवहार करें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे सर्वांशी प्रेमाने वागतात व सुखाची कामना करतात त्यांनाच इच्छित सुख मिळते. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Maruts, bright and instant warriors, fast workers, noble leaders and eminent scholars of the nation of humanity, dear and lovable is your name and title which I admire and invoke, the name which is elevating and deeply satisfying, keen and dedicated as you are to the targets of action.

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