ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 56/ मन्त्र 9
सने॑म्य॒स्मद्यु॒योत॑ दि॒द्युं मा वो॑ दुर्म॒तिरि॒ह प्रण॑ङ्नः ॥९॥
स्वर सहित पद पाठसने॑मि । अ॒स्मत् । यु॒योत॑ । दि॒द्युम् । मा । वः॒ । दुः॒ऽम॒तिः । इ॒ह । प्रण॑क् । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सनेम्यस्मद्युयोत दिद्युं मा वो दुर्मतिरिह प्रणङ्नः ॥९॥
स्वर रहित पद पाठसनेमि। अस्मत्। युयोत। दिद्युम्। मा। वः। दुःऽमतिः। इह। प्रणक्। नः ॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 56; मन्त्र » 9
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 9
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अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 9
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसः ! अस्मत्सनेमि दिद्युं युयोत यत इह वो युष्मान् नोऽस्माँश्च दुर्मतिर्मा प्रणक् ॥९॥
पदार्थः
(सनेमि) पुरातनम् (अस्मत्) अस्माकं सकाशात् (युयोत) पृथक् कुरुत (दिद्युम्) प्रज्वलितं शस्त्रास्त्रम् (मा) (वः) युष्मान् (दुर्मतिः) दुष्टधीः (इह) अस्मिन् गृहाश्रमे (प्रणक्) प्रणाशयेत् (नः) अस्मान् ॥९॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यूयं सदा दुष्टचारेभ्यो मनुष्येभ्यः पृथक् स्थित्वा शत्रुबलं निवार्य वर्धमाना भवत ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वानो ! (अस्मत्) हम से (सनेमि) पुराने (दिद्युम्) प्रज्वलित शस्त्र और अस्त्र समूह को (युयोत) अलग करो जिससे (इह) इस गृहाश्रम व्यवहार में (वः) तुम लोगों को और (नः) हम लोगों को (दुर्मतिः) दुष्टबुद्धि (मा) मत (प्रणक्) नष्ट करावे ॥९॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! तुम सदा दुष्टाचारी मनुष्यों से अलग रह कर और शत्रु बल को निवार के बढ़ते हुए होओ ॥९॥
विषय
वीरों विद्वानों के वायुओं के तुल्य कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे विद्वान् वीर जनो ! ( अस्मत् ) हम से अपना (सनेमि ) चक्रधारा से युक्त ( दिद्युम् ) चमचमाते तेजस्वी शस्त्र बल को ( युयोत ) सदा पृथक् रक्खो । और ( वः ) आप लोगों की (दुर्मतिः ) दुष्ट बुद्धि (नः) हमें और (नः मतिः वः) हमारी दुष्टमति आपको ( मा प्रणक् ) कभी प्राप्त न हो, एक दूसरे का विनाश भी न करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ।। मरुतो देवताः ॥ छन्दः -१ आर्ची गायत्री । २, ६, ७,९ भुरिगार्ची गायत्रीं । ३, ४, ५ प्राजापत्या बृहती । ८, १० आर्च्युष्णिक् । ११ निचृदार्च्युष्णिक् १२, १३, १५, १८, १९, २१ निचृत्त्रिष्टुप् । १७, २० त्रिष्टुप् । २२, २३, २५ विराट् त्रिष्टुप् । २४ पंक्तिः । १४, १६ स्वराट् पंक्तिः ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
विषय
परस्पर प्रेम
पदार्थ
पदार्थ- हे विद्वान् वीर जनो! (अस्मत्) = हमसे अपने (सनेमि) = चक्रधारा से युक्त (दिद्युम्) = चमचमाते शस्त्र बल को (युयोत) = सदा पृथक् रक्खो और (वः) = आप लोगों की (दुर्मतिः) = दुष्ट बुद्धि (नः) = हमें और (नः दुर्मतिः वः) = हमारी दुष्टमति आपको (मा प्रणक्) = प्राप्त न हो।
भावार्थ
भावार्थ - वीर सैनिक राष्ट्र की प्रजा पर दुष्टबुद्धि-स्वार्थ से युक्त होकर अपने अस्त्र-शस्त्रों का बल प्रयोग न करें। प्रजा की दुर्मति भ्रान्ति की शिकार होकर सैनिकों से द्वेष न करे। सेनाप्रजा परस्पर प्रेमपूर्वक रहें।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! तुम्ही सदैव दुष्ट माणसांना पृथक ठेवून शत्रू बल न्यून करून उन्नती करा. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Reject the outmoded weapons, always take to the bright and blazing ones. Keep off from us, citizens, the old as well as the new and bright ones. Let not evil thought and intention ever vitiate and damage you or us.
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