ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 56/ मन्त्र 19
इ॒मे तु॒रं म॒रुतो॑ रामयन्ती॒मे सहः॒ सह॑स॒ आ न॑मन्ति। इ॒मे शंसं॑ वनुष्य॒तो नि पा॑न्ति गु॒रु द्वेषो॒ अर॑रुषे दधन्ति ॥१९॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मे । तु॒रम् । म॒रुतः॑ । र॒म॒य॒न्ति॒ । इ॒मे । सहः॑ । सह॑सः । आ । न॒म॒न्ति॒ । इ॒मे । शंस॑म् । व॒नु॒ष्य॒तः । नि । पा॒न्ति॒ । गु॒रु । द्वेषः॑ । अर॑रुषे । द॒ध॒न्ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमे तुरं मरुतो रामयन्तीमे सहः सहस आ नमन्ति। इमे शंसं वनुष्यतो नि पान्ति गुरु द्वेषो अररुषे दधन्ति ॥१९॥
स्वर रहित पद पाठइमे। तुरम्। मरुतः। रमयन्ति। इमे। सहः। सहसः। आ। नमन्ति। इमे। शंसम्। वनुष्यतः। नि। पान्ति। गुरु। द्वेषः। अररुषे। दधन्ति ॥१९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 56; मन्त्र » 19
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते कीदृशा भवेयुरित्याह ॥
अन्वयः
हे राजन् ! य इमे मरुतस्तुरं रमयन्तीमे सहसस्सह आ नमन्तीमे वनुष्यतः शंसं नि पान्त्यररुषे द्वेषो गुरु दधन्ति तांस्त्वं सततं सत्कृद्रक्ष ॥१९॥
पदार्थः
(इमे) (तुरम्) शीघ्रम् (मरुतः) वायव इव (रमयन्ति) (इमे) (सहः) बलम् (सहसः) बलात् (आ) (नमन्ति) (इमे) (शंसम्) प्रशंसकम् (वनुष्यतः) क्रुध्यतः। वनुष्यतीति क्रुध्यतिकर्मा। (निघं०२.१२)। (नि) (पान्ति) रक्षन्ति (गुरु) भारवत् (द्वेषः) अप्रीतिम् (अररुषे) अलंरोषकाय (दधन्ति) ॥१९॥
भावार्थः
हे राजन्ये ! सेनां सुशिक्ष्य सद्यो व्यूह्य बलिष्ठानपि शत्रून् विजित्योत्तमान् संरक्ष्य दुष्टे द्वेषं विदधति ते त्वया सत्कर्तव्याः सन्ति ॥१९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजन् ! जो (इमे) ये (मरुतः) पवनों के समान (तुरम्) शीघ्र (रमयन्ति) रमण कराते (इमे) यह (सहसः) बल से (सहः) बल को (आ, नमन्ति) सब ओर से नमते (इमे) यह (वनुष्यतः) क्रोध करनेवाले की (शंसम्) प्रशंसा करनेवाले को (नि, पान्ति) निरन्तर रखते और (अररुषे) पूरा रोष करनेवाले के लिए (द्वेषः) वैर (गुरु) बहुत (दधन्ति) धारण करते हैं, उन का आप निरन्तर सत्कार करो ॥१९॥
भावार्थ
हे राजा ! जो सेना को अच्छी शिक्षा देकर शीघ्र विशेष रचना कर बली शत्रुओं को भी जीत उत्तमों की रक्षा कर दुष्टों में द्वेष फैलाते हैं, वे तुम को सत्कार करने चाहियें ॥१९॥
विषय
वीरों विद्वानों के वायुओं के तुल्य कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( इमे ) ये ( मरुतः ) वायुवत् बलवान् वीर और प्राणवत् प्रिय विद्वान् लोग ( तुरं) शीघ्र ही वा शीघ्रकार्य करने में कुशल, शत्रुओं को मारने वाले राजा को ( रमयन्ति ) सदा प्रसन्न रखते हैं और (इमे) ये ( सह: ) अपने बल से ( सहसः ) बलवान् शत्रुओं को भी (आ नमन्ति) झुका लेते हैं। वा (सहसः सहः आ नमन्ति) बलवान् राजा के बल के आगे झुकते हैं। वा (सहसः बलं आ नमन्ति) बलवान् शत्रु पराजयकारी बल, सैन्य वा धनुष को अपने अधीन रखते और नमाते हैं । ( इमे ) ये ( वनुष्यतः ) हिंसक वा क्रोधी से ( शंसं नि पान्ति ) प्रशंसनीय जन को बचा लेते हैं। ( अरुरुषे ) अदानी और अतिक्रोधी जन के विशेष दमन के लिये वे ( गुरु द्वेषः ) बड़ा भारी द्वेष अप्रीतिकर व्यवहार ( दधन्ति ) करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ।। मरुतो देवताः ॥ छन्दः -१ आर्ची गायत्री । २, ६, ७,९ भुरिगार्ची गायत्रीं । ३, ४, ५ प्राजापत्या बृहती । ८, १० आर्च्युष्णिक् । ११ निचृदार्च्युष्णिक् १२, १३, १५, १८, १९, २१ निचृत्त्रिष्टुप् । १७, २० त्रिष्टुप् । २२, २३, २५ विराट् त्रिष्टुप् । २४ पंक्तिः । १४, १६ स्वराट् पंक्तिः ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
विषय
दुष्ट को दण्ड
पदार्थ
पदार्थ- (इमे) = ये (मरुतः) = वायुवत् बलवान् और (प्राणवत्) = प्रिय विद्वान्, (तुरं) = कार्य-कुशल, राजा को (रमयन्ति) = प्रसन्न रखते हैं और (इमे) = ये (सह:) = बल से (सहसः) = बलवान् शत्रुओं को भी (आ नमन्ति) = झुका लेते हैं । (इमे) = ये (वनुष्यतः) = हिंसक वा क्रोधी से (शंसं नि पान्ति) = प्रशंसनीय जन को बचा लेते हैं। (अररुषे) = अदानी और क्रोधी जन के दमन के लिये वे (गुरु द्वेष:) = बड़ा भारी द्वेष, अप्रीतिकर व्यवहार (दधन्ति) = करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- उत्तम विद्वान् शत्रुनाशक राजा की प्रशंसा करते हैं तथा अपने बुद्धि बल एवं वाक् कुशलता से बलवान् शत्रु को भी झुका देते हैं तथा अपने बुद्धि कौशल से सज्जनों को बचाकर दुष्टों को दण्डित करा देते हैं। उत्तम जनों की रक्षा दुष्टों के नाश की योजना बनाते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा ! जो सेनेला चांगल्या प्रकारे शिक्षण देऊन तात्काळ विशेष व्यूहरचना करतो व बलवान शत्रूलाही जिंकून उत्तमांचे रक्षण व दुष्टांवर क्रोध करतो त्यांचा तू सत्कार कर. ॥ १९ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
They sustain and strengthen the fast moving progressive forces and bend the might of the mighty. They protect the prayer of the supplicant and advance the song of the celebrant against the violent and they bear and maintain deep opposition to the jealous and the wicked.
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