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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 56 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 56/ मन्त्र 20
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - मरुतः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इ॒मे र॒ध्रं चि॑न्म॒रुतो॑ जुनन्ति॒ भृमिं॑ चि॒द्यथा॒ वस॑वो जु॒षन्त॑। अप॑ बाधध्वं वृषण॒स्तमां॑सि ध॒त्त विश्वं॒ तन॑यं तो॒कम॒स्मे ॥२०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मे । र॒ध्रम् । चि॒त् । म॒रुतः॑ । जु॒न॒न्ति॒ । भृमि॑म् । चि॒त् । यथा॑ । वस॑वः । जु॒षन्त॑ । अप॑ । बा॒ध॒ध्व॒म् । वृ॒ष॒णः॒ । तमां॑सि । ध॒त्त । विश्व॑म् । तन॑यम् । तो॒कम् । अ॒स्मे इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमे रध्रं चिन्मरुतो जुनन्ति भृमिं चिद्यथा वसवो जुषन्त। अप बाधध्वं वृषणस्तमांसि धत्त विश्वं तनयं तोकमस्मे ॥२०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमे। रध्रम्। चित्। मरुतः। जुनन्ति। भृमिम्। चित्। यथा। वसवः। जुषन्त। अप। बाधध्वम्। वृषणः। तमांसि। धत्त। विश्वम्। तनयम्। तोकम्। अस्मे इति ॥२०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 56; मन्त्र » 20
    अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते राजजनाः कीदृशा भवन्तीत्याह ॥

    अन्वयः

    हे वृषणो वसवो ! यूयं यथेमे मरुतो रध्रं चित् जुनन्ति भृमिं चित् जुषन्त तथा यूयं सूर्यस्तमांसीव शत्रूनप बाधध्वमस्मे विश्वं तनयं तोकं धत्त ॥२०॥

    पदार्थः

    (इमे) (रध्रम्) समृद्धिमन्तम् (चित्) अपि (मरुतः) वायव इव मनुष्याः (जुनन्ति) प्रेरयन्ति (भृमिम्) भ्रमणशीलम् (चित्) अपि (यथा) (वसवः) वासयितारः (जुषन्त) सेवन्ते (अप) (बाधध्वम्) (वृषणः) बलिष्ठाः (तमांसि) रात्रिरिव वर्तमानान् दुष्टान् जनान् (धत्त) (विश्वम्) सर्वम् (तनयम्) विस्तीर्णशुभगुणकर्मस्वभावम् (तोकम्) अपत्यम् (अस्मे) अस्मासु ॥२०॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा प्राणायामादिभिः सुसाधिता वायवस्समृद्धिं कुपथ्येन सेविता दारिद्र्यं च जनयन्ति तथैव सेविता विद्वांसो राज्यर्द्धिमपमानिता राज्यभङ्गं जनयन्ति सुशिक्ष्य सत्कृत्य रक्षिताः शूरवीरा यथा शत्रूनपबाधन्ते तथा वर्तित्वा प्रजासूत्तमान्यपत्यानि राजजना नयन्तु ॥२०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे राजजन कैसे होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (वृषणः) बलिष्ठो (वसवः) निवास करानेवालो ! तुम (यथा) जैसे (इमे) यह (मरुतः) पवनों के समान वर्त्तमान (रध्रम्) समृद्धिमान् (चित्) ही को (जुनन्ति) प्रेरणा करते हैं और (भृमिम्) घूमनेवाले को (चित्) ही (जुषन्त) सेवते हैं, वैसे और जैसे सूर्य अन्धकारों को वैसे (तमांसि) रात्रि के समान वर्त्तमान दुष्ट शत्रुओं को (अप, बाधध्वम्) अत्यन्त बाधा देओ और (अस्मे) हम लोगों में (विश्वम्) समस्त (तनयम्) विस्तारयुक्त शुभ गुण-कर्म-स्वभाववाले (तोकम्) सन्तान को (धत्त) धारण करो ॥२०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जैसे प्राणायामादिकों से अच्छे सिद्ध किये हुए पवन समृद्धि और कुपथ्य से सेवन किये दरिद्रता को उत्पन्न करते हैं, वैसे ही सेवन किये हुए विद्वान् राज्य की वृद्धि और अपमान किये हुए राज्य का भङ्ग उत्पन्न करते हैं, अच्छी शिक्षा दिये और सत्कार कर रक्षा किये हुए शूरवीर जैसे शत्रुओं को नष्ट करते हैं, वैसे वर्त्तकर प्रजाजनों में उत्तम सन्तान राजजन उत्पन्न करावें ॥२०॥

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    विषय

    वीरों विद्वानों के वायुओं के तुल्य कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( वरुण ) वर्षणशील, मेघों को लाने वाले वायुओं के तुल्य बलवान् पुरुषो ! ( इमे ) ये ( मरुतः ) वायुगण जिस प्रकार ( रधं चित् जुनन्ति ) दृढ़ वृक्ष को भी हला देते हैं । उसी प्रकार आप लोग भी ( रध्रं ) वश करने योग्य प्रबल, समृद्धिमान् पुरुष को भी सन्मार्ग पर चलाओ। और ( वसवः ) पृथिवी आदि लोक जिस प्रकार ( भूमिं ) धारक सूर्य के प्रकाश का सेवन करते हैं उसी प्रकार आप लोग ( भूमिं ) अपने भरण पोषण करने वाले स्वामी तथा ( भूमिं ) भ्रमणशील, विद्वान् परिव्राजक का भी ( जुषन्त ) प्रेम से सेवन करें । आप लोग ( तमांसि ) सूर्य की किरणों के समान अन्धकारों को (अप बाधध्वं) शत्रुओं और खेदजनक मोह आदि को भी दूर करो । इति पञ्चविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ।। मरुतो देवताः ॥ छन्दः -१ आर्ची गायत्री । २, ६, ७,९ भुरिगार्ची गायत्रीं । ३, ४, ५ प्राजापत्या बृहती । ८, १० आर्च्युष्णिक् । ११ निचृदार्च्युष्णिक् १२, १३, १५, १८, १९, २१ निचृत्त्रिष्टुप् । १७, २० त्रिष्टुप् । २२, २३, २५ विराट् त्रिष्टुप् । २४ पंक्तिः । १४, १६ स्वराट् पंक्तिः ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    संन्यासी का सम्मान

    पदार्थ

    पदार्थ - (इमे) = ये (मरुतः) = वायुगण जैसे (रध्रं चित् जुनन्ति) = दृढ़ वृक्ष को भी हिला देते हैं। वैसे ही आप लोग भी (रध्रं) = वश करने योग्य, प्रबल पुरुषों को भी सन्मार्ग पर चलाओ और (वसवः) = पृथिवी आदि लोक जैसे (भृमिं) = धारक सूर्य के प्रकाश का सेवन करते हैं वैसे ही आप लोग (भृमिं) = भरण-पोषण करनेवाले स्वामी तथा (भृमिं) = भ्रमणशील, विद्वान् परिव्राजक का भी (जुषन्त) = प्रेम से सेवन करें। आप लोग (तमांसि) = सूर्य-किरणों के समान अन्धकारों को, (अप बाधध्वं) = और खेदजनक मोह आदि को भी दूर करो।

    भावार्थ

    भावार्थ- संन्यासी लोग समृद्ध जनों को भी सन्मार्ग पर चलावें अज्ञान अन्धकार को दूर कर मोह आदि शत्रुओं का नाश करते हैं। ऐसे भ्रमणशील परोपकारी संन्यासियों को सम्मान करें तथा प्रेम से उनकी संगति करें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे प्राणायाम इत्यादीने चांगल्या प्रकारे सिद्ध केलेले वायू समृद्ध करतात व कुपथ्याने ग्रहण केलेले (वायू) दारिद्र्य उत्पन्न करतात तसेच स्वीकारलेले विद्वान राज्याची वृद्धी वाढवितात व अपमान झालेले राज्य नष्ट करतात. चांगले शिक्षण, सत्कार व रक्षण केलेले शूरवीर जसे शत्रूंना नष्ट करतात तसे वागून राजजनांनी प्रजेमध्ये उत्तम संतान निर्माण करावयास लावावे. ॥ २० ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    These vibrant Maruts, leading lights of wealth and settlement, inspire the settled prosperous as they encourage the migrant seeker and explorer on the move since they command the sources of wealth and production. O generous powers, shut off all forms of darkness and sloth, bear and bring us dynamic children and grand children ranging over the vast world of possibilities and achievement.

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