ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 56/ मन्त्र 3
अ॒भि स्व॒पूभि॑र्मि॒थो व॑पन्त॒ वात॑स्वनसः श्ये॒ना अ॑स्पृध्रन् ॥३॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । स्व॒ऽपूभिः॑ । मि॒थः । व॒प॒न्त॒ । वात॑ऽस्वनसः । श्ये॒नाः । अ॒स्पृ॒ध्र॒न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि स्वपूभिर्मिथो वपन्त वातस्वनसः श्येना अस्पृध्रन् ॥३॥
स्वर रहित पद पाठअभि। स्वऽपूभिः। मिथः। वपन्त। वातऽस्वनसः। श्येनाः। अस्पृध्रन् ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 56; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह ॥
अन्वयः
ये गृहस्था वातस्वनसः श्येना इव वर्त्तमानाः स्वपूभिर्मिथो वपन्ताभ्यस्पृध्रन् ते श्रेष्ठैश्वर्या जायन्ते ॥३॥
पदार्थः
(अभि) आभिमुख्ये (स्वपूभिः) शयानैस्स्वकीयैः पवित्राचरणैः सह (मिथः) अन्योन्यम् (वपन्त) वपन्ति (वातस्वनसः) वातस्य स्वनः शब्द इव शब्दो येषान्ते (श्येनाः) श्येन इव पराक्रमिणः (अस्पृध्रन्) स्पर्धन्ते ॥३॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये गृहस्थाः परस्परं सत्याचरणानुष्ठानेन गम्भीराशयाः पराक्रमिणो भूत्वा सर्वस्योन्नतिं चिकीर्षन्ति तेऽभिपूजिता भवन्ति ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
जो गृहस्थ पुरुष (वातस्वनसः) पवन के शब्द के समान जिनका शब्द है वे (श्येनाः) वाज के समान पराक्रमी (स्वपूभिः) सोते हुए अर्थात् अप्रसिद्ध अपने पवित्र आचरणों के साथ (मिथः) परस्पर (वपन्त) बोते (अभि, अस्पृध्रन्) और सम्मुख स्पर्द्धा करते हैं, वे श्रेष्ठ ऐश्वर्यवाले होते हैं ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जो गृहस्थ परस्पर सत्याचरणानुष्ठान से गम्भीर आशयवाले पराक्रमी होकर सब की उन्नति करना चाहते हैं, वे पूजित होते हैं ॥३॥
विषय
जीवों के जन्म मरणादि का विज्ञान।
भावार्थ
वे जीवगण ( मिथः ) परस्पर ( स्वपूभिः ) अपने साथ सोने वाली अथवा ( स्वपूभिः = स्व-भूभिः ) अपने उत्पन्न होने योग्य भूमियों से ( मिथः ) परस्पर मिलकर ( अभि वपन्त ) परस्पर सन्मुख होकर बीज वपन करते हैं। वे ( वात-स्वनसः ) वायु के समान प्राण के बल पर ध्वनि करने वाले ( श्येनाः ) वाजपक्षी के समान एक देह से दूसरे देह में जाने वाले होकर भी ( अस्पृध्रन् ) परस्पर स्पर्द्धा करते हैं, भोग्य पदार्थों में ममता करते हैं । ( २ ) वीर सैनिक ( मिथः ) परस्पर मिलकर ( स्वपूभिः ) अपने शस्त्रों से ( अभि वपन्त ) सन्मुख शत्रुओं का छेदन करते और ( वात-स्वनसः ) वायुवत् गर्जन करते हुए ( श्येना: ) बाज के समान आक्रमण करते हुए ( अस्पृधन् ) शत्रु के साथ स्पर्द्धा करते, उससे बल में बढ़ने और जीतने का यत्न करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ।। मरुतो देवताः ॥ छन्दः -१ आर्ची गायत्री । २, ६, ७,९ भुरिगार्ची गायत्रीं । ३, ४, ५ प्राजापत्या बृहती । ८, १० आर्च्युष्णिक् । ११ निचृदार्च्युष्णिक् १२, १३, १५, १८, १९, २१ निचृत्त्रिष्टुप् । १७, २० त्रिष्टुप् । २२, २३, २५ विराट् त्रिष्टुप् । २४ पंक्तिः । १४, १६ स्वराट् पंक्तिः ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
विषय
वीरों का कर्त्तव्य
पदार्थ
पदार्थ-वे जीव (स्वपूभिः) = अपने साथ सोनेवाली अथवा (स्वपूभिः) = अपनी उत्पन्न होने योग्य भूमियों से (मिथ:) = परस्पर मिलकर (अभि वपन्त) = सम्मुख हो बीज बोते हैं। वे (वातस्वनस:) = वायुवत् प्राण के बल पर ध्वनि करनेवाले (श्येनाः) = वाजपक्षी के समान एक देह से दूसरे देह में जानेवाले होकर भी (अस्पृधन्) = स्पर्धा करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सेनापति अपने सैनिकों को संगठित रहने की प्रेरणा करे। वे वीर सैनिक संगठित होकर सम्मुख आनेवाले शत्रुओं को मारते हुए वायु के समान शत्रु पर आक्रमण करें तथा उस पर विजय करने का प्रयत्न करें।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे गृहस्थ परस्पर सत्याचरणाने वागतात, गंभीर आशय धारण करतात, पराक्रमी असतात, सर्वांची उन्नती करू इच्छितात ते पूजनीय ठरतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Roaring like winds, flying like eagles, together they rival each other and generate energy and vitality of life by their essential purity of character and action.
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