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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 56 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 56/ मन्त्र 15
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - मरुतः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यदि॑ स्तु॒तस्य॑ मरुतो अधी॒थेत्था विप्र॑स्य वा॒जिनो॒ हवी॑मन्। म॒क्षू रा॒यः सु॒वीर्य॑स्य दात॒ नू चि॒द्यम॒न्य आ॒दभ॒दरा॑वा ॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यदि॑ । स्तु॒तस्य॑ । म॒रु॒तः॒ । अ॒धि॒ऽइ॒थ । इ॒त्था । विप्र॑स्य । वा॒जिनः॑ । हवी॑मन् । म॒क्षु । रा॒यः । सु॒ऽवीर्य॑स्य । दा॒त॒ । नु । चि॒त् । यम् । अ॒न्यः । आ॒ऽदभ॑त् । अरा॑वा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदि स्तुतस्य मरुतो अधीथेत्था विप्रस्य वाजिनो हवीमन्। मक्षू रायः सुवीर्यस्य दात नू चिद्यमन्य आदभदरावा ॥१५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदि। स्तुतस्य। मरुतः। अधिऽइथ। इत्था। विप्रस्य। वाजिनः। हवीमन्। मक्षु। रायः। सुऽवीर्यस्य। दात। नु। चित्। यम्। अन्यः। आऽदभत्। अरावा ॥१५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 56; मन्त्र » 15
    अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते मनुष्याः कीदृशा जायेरन्नित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मरुतो ! यदि स्तुतस्य वाजिनो विप्रस्य हवीमन्नित्था मक्ष्वधीथ सुवीर्यस्य रायो दात चिदपि यमन्योऽरावा न्वादभत् तर्हि किं किं विमर्शनं न जायेत ॥१५॥

    पदार्थः

    (यदि) (स्तुतस्य) (मरुतः) वायव इव (अधीथ) (इत्था) अनेन प्रकारेण (विप्रस्य) मेधाविनः (वाजिनः) वेगयुक्तस्य (हवीमन्) हवींषि दातव्यानि वसूनि विद्यन्ते यस्मिन् (मक्षू) सद्यः। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (रायः) धनस्य (सुवीर्यस्य) शोभनं वीर्यं यस्मात्तस्य (दात) दत्त (नु) शीघ्रम्। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (चित्) अपि (यम्) (अन्यः) (आदभत्) हिंस्यात् (अरावा) अदाता अवचनो वा ॥१५॥

    भावार्थः

    ये विदुषः सकाशादधीयते ते समर्था भूत्वा धनस्वामिनो जायन्ते ॥१५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे मनुष्य कैसे प्रसिद्ध हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (मरुतः) पवनों के समान वर्त्तमान मनुष्यो ! (यदि) यदि (स्तुतस्य) प्रशंसित (वाजिनः) वेगयुक्त (विप्रस्य) मेधावी जन के (हवीमन्) जिस में देने योग्य वस्तु विद्यमान उस व्यवहार में (इत्था) इस प्रकार से (मक्षू) शीघ्र (अधीथ) स्मरण करो (सुवीर्यस्य) और जिन के सम्बन्ध में शुभ वीर्य होता उस (रायः) धन को (दात) देओ (चित्) और (यम्) जिसको (अन्यः) अन्य (अरावा) न देनेवाला जन (नु) शीघ्र (आदभत्) नष्ट करें तो क्या-क्या विचार न हो ॥१५॥

    भावार्थ

    जो विद्वान् के समीप से पढ़ते हैं, वे समर्थ अर्थात् विद्यासम्पन्न हो धनपति होते हैं ॥१५॥

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    विषय

    वीरों विद्वानों के वायुओं के तुल्य कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( मरुतः ) वायु के समान दृढ़ बलवान्, प्राणों के समान प्रिय वीरो और विद्याप्रेमी, आलस्य रहित शिष्य जनो ! आप लोग (यदि) यदि ( वाजिनः ) ज्ञानवान् ऐश्वर्यवान् और (विप्रस्य ) बुद्धिमान् पुरुष के ( हवीमन् ) देने योग्य उत्तम ज्ञान और धन के लेने देने के व्यवहार में ( इत्था ) सत्य २ ( स्तुतस्य ) उपदिष्ट शास्त्र का ( अधीथ ) स्मरण रक्खो । ( यम् ) जिस धनादि को ( अन्यः ) दूसरा ( अरावा ) शत्रु वा वचनादि से रहित मूकजन (नू चित् आदमत् ) अवश्य विनाश कर देवे ऐसे ( रायः ) प्रदेय धन ज्ञानादि को आप लोग ( सु-वीर्यस्य ) उत्तम वीर्यवान् सुदृढ़, ब्रह्मचारी के हाथ (दात) प्रदान किया करो । विद्वानों को चाहिये कि गुरूपदिष्ट शास्त्र को अच्छी प्रकार याद रक्खें और विद्वान् उत्तम ब्रह्मचारी, विविध विद्योपदेश के योग्य पात्र में ही ज्ञान प्रदान करें । क्योंकि ज्ञान का ( अरावा ) अन्यों को प्रवचन द्वारा न देने वाला अवश्य नाश कर देता है । इसी प्रकार मनुष्यों को चाहिये धन के लेन देन में अपना २ इकरार स्मरण रक्खें। अपना धन भी बलवान् की रक्षा में रक्खें जिससे दूसरा शत्रु नष्ट न कर दे । इति चतुर्विंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ।। मरुतो देवताः ॥ छन्दः -१ आर्ची गायत्री । २, ६, ७,९ भुरिगार्ची गायत्रीं । ३, ४, ५ प्राजापत्या बृहती । ८, १० आर्च्युष्णिक् । ११ निचृदार्च्युष्णिक् १२, १३, १५, १८, १९, २१ निचृत्त्रिष्टुप् । १७, २० त्रिष्टुप् । २२, २३, २५ विराट् त्रिष्टुप् । २४ पंक्तिः । १४, १६ स्वराट् पंक्तिः ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    ज्ञान दान

    पदार्थ

    पदार्थ - हे (मरुतः) = वायु- समान बलवान् वीरो! आप (यदि) = यदि (वाजिनः) = ऐश्वर्यवान् और (विप्रस्य) = बुद्धिमान् पुरुष के (हवीमन्) = देने योग्य उत्तम ज्ञान और धन के व्यवहार में (इत्था) = सत्यसत्य (स्तुतस्य) = उपदिष्ट शास्त्र का (अधीथ) = स्मरण रक्खो। (यम्) = जिस धनादि को (अन्य:) = दूसरा (अरावा) = शत्रु वा वचनादि से रहित मूकजन (नू चित् आदभत्) = अवश्य विनाश कर देवे ऐसे (रायः) = धन, ज्ञानादि को आप (सु-वीर्यस्य) = उत्तम वीर्यवान्, ब्रह्मचारी के हाथ (दात) = प्रदान करो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- विद्वान जन गुरुजनों से प्राप्त शास्त्र को अच्छी प्रकार याद रक्खें तथा उस विद्या को उचित पात्र को प्रदान करें। यदि ज्ञान का प्रवचन नहीं किया जाएगा तो वह ज्ञान नष्ट हो जाएगा।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे विद्वानांजवळ शिकतात ते समर्थ असतात. अर्थात् विद्या संपन्न बनून धनपती होतात. ॥ १५ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Maruts, vibrant workers and vibrant yajakas, if thus you know and remember the holy yajnic programmes of positive value enacted by dynamic and progressive people, then create and give us abundant wealth of highly productive and progressive order at the earliest lest others and uncreative forces take over and sabotage the plans and programmes.

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