ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 56/ मन्त्र 14
प्र बु॒ध्न्या॑ व ईरते॒ महां॑सि॒ प्र नामा॑नि प्रयज्यवस्तिरध्वम्। स॒ह॒स्रियं॒ दम्यं॑ भा॒गमे॒तं गृ॑हमे॒धीयं॑ मरुतो जुषध्वम् ॥१४॥
स्वर सहित पद पाठप्र । बु॒ध्न्या॑ । वः॒ । ई॒र॒ते॒ । महां॑सि । प्र । नामा॑नि । प्र॒ऽय॒ज्य॒वः॒ । ति॒र॒ध्व॒म् । स॒ह॒स्रिय॑म् । दम्य॑म् । भा॒गम् । ए॒तम् । गृ॒ह॒ऽमे॒धीय॑म् । म॒रु॒तः॒ । जु॒ष॒ध्व॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र बुध्न्या व ईरते महांसि प्र नामानि प्रयज्यवस्तिरध्वम्। सहस्रियं दम्यं भागमेतं गृहमेधीयं मरुतो जुषध्वम् ॥१४॥
स्वर रहित पद पाठप्र। बुध्न्या। वः। ईरते। महांसि। प्र। नामानि। प्रऽयज्यवः। तिरध्वम्। सहस्रियम्। दम्यम्। भागम्। एतम्। गृहऽमेधीयम्। मरुतः। जुषध्वम् ॥१४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 56; मन्त्र » 14
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं कर्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे मरुतः प्रयज्यवो ! यूयं ये वो महांसि नामानि बुध्न्याः प्रेरते तैः शत्रून् प्रतिरध्वमेतं सहस्रियं दम्यं गृहमेधीयं भागं जुषध्वम् ॥१४॥
पदार्थः
(प्र) (बुध्न्याः) बुध्न्येऽन्तरिक्षे मेघाः (वः) युष्माकम् (ईरते) प्राप्नुवन्ति (महांसि) (प्र) (नामानि) (प्रयज्यवः) प्रकर्षेण सङ्गन्तारः (तिरध्वम्) शत्रुबलमुल्लङ्घध्वम् (सहस्रियम्) सहस्रेषु भवं (दम्यम्) दमनीयम् (भागम्) भजनीयम् (एतम्) (गृहमेधीयम्) गृहमेधे गृहस्थे शुद्धे व्यवहारे भवम् (मरुतः) वायव इव (जुषध्वम्) सेवध्वम् ॥१४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे गृहस्था ! यथा मेघाः पृथिवीं सेवन्ते तथैव भवन्तः प्रजाः सेवध्वम् शत्रून्निवार्यातुलसुखं प्राप्नुत ॥१४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (मरुतः) पवनों के समान (प्रयज्यवः) उत्तम सङ्ग करनेवालो ! तुम जो (वः) तुम लोगों के (महांसि) बड़े-बड़े (नामानि) नामों को (बुध्न्याः) अन्तरिक्ष में उत्पन्न हुए मेघ (प्र, ईरते) प्राप्त होते हैं उससे शत्रुओं के (प्र, तिरध्वम्) बल को उल्लङ्घन करो (एतम्) इस (सहस्रियम्) हजारों में हुए और (दम्यम्) शान्त करने योग्य (गृहमेधीयम्) घर के शुद्ध व्यवहार में हुए (भागम्) सेवने करने योग्य विषय को (जुषध्वम्) सेवो ॥१४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे गृहस्थो ! जैसे मेघ पृथिवी को सेवते हैं, वैसे ही आप लोग प्रजाजनों को सेओ और शत्रुओं की निवृत्ति कर अतुल सुख पाओ ॥१४॥
विषय
वीरों विद्वानों के वायुओं के तुल्य कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( बुध्न्याः) आकाश में उत्पन्न मेघ जिस प्रकार ( महांसि नामानि प्र ईरते ) तेज और बहुत अधिक जलों को नीचे प्रदान करते हैं उसी प्रकार हे ( बुध्न्याः ) उच्च पद के योग्य, सर्वाश्रय योग्य ( प्र यज्यवः) उत्तम यज्ञ दानशील पुरुषो ! आप लोग भी (महांसि) देने योग्य ( नामानि ) अन्नों को ( प्र तिरध्वम् ) उत्तम रीति से बढ़ाओ और दान किया करो। हे ( मरुतः ) वीरो ! विद्वान् पुरुषो ! आप लोग ( एतम् ) इस ( गृहमेधीयं ) गृहस्थों से प्राप्त वा गृह के निर्वाह योग्य ( सहस्रियं भागम् ) सहस्रों ग्रामों वा गृहों से प्राप्त करादि अंश को ( जुषध्वम् ) प्रेम पूर्वक स्वीकार करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ।। मरुतो देवताः ॥ छन्दः -१ आर्ची गायत्री । २, ६, ७,९ भुरिगार्ची गायत्रीं । ३, ४, ५ प्राजापत्या बृहती । ८, १० आर्च्युष्णिक् । ११ निचृदार्च्युष्णिक् १२, १३, १५, १८, १९, २१ निचृत्त्रिष्टुप् । १७, २० त्रिष्टुप् । २२, २३, २५ विराट् त्रिष्टुप् । २४ पंक्तिः । १४, १६ स्वराट् पंक्तिः ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
विषय
कर व्यवस्था
पदार्थ
पदार्थ - (बुध्न्याः) = आकाश में मेघ जैसे (महांसि नामानि प्र ईरते) = तेज और जलों को प्रदान करते हैं वैसे ही हे (बुध्न्याः) = उच्च पद के योग्य (प्रयज्यवः) = उत्तम दानशील पुरुषो! आप भी (महांसि) = देने योग्य (नामानि) = अन्नों को (प्र तिरध्वम्) = बढ़ाओ और दान करो। हे (मरुतः) = वीरो ! आप (एतम्) = इन (गृहमेधीयं) = गृहस्थों से प्राप्त वा गृह के निर्वाह योग्य (सहस्त्रियं दम्यं भागम्) = सहस्रों ग्रामों वा गृहों से प्राप्त करादि अंश को (जुषध्वम्) = स्वीकार करो।
भावार्थ
भावार्थ- शासक का अधिकारी वर्ग प्रजा से प्रेमपूर्वक कर का संग्रह करे। कर से प्राप्त उस धन को शासक वर्ग प्रजा को सुविधाएँ प्रदान करने में व्यय करे। प्रजा के उच्च व समृद्ध लोग अपने धन का राष्ट्रोन्नति की योजनाओं में कुछ अंश दान करें।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे मेघ पृथ्वीचे सेवन करतात तसा तुम्ही प्रजेचा स्वीकार करा. शत्रूची निवृत्ती करून अतुल सुख प्राप्त करा. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Adorable Maruts, admirable advancers of the bounds of progress, your fame and glory rises to clouds over the vast skies. Go forward and win the battles. Play this part of yours with love and faith worthy of the home like a fragrant yajna of thousand possibilities.
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