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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 56 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 56/ मन्त्र 16
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - मरुतः छन्दः - स्वराट्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    अत्या॑सो॒ न ये म॒रुतः॒ स्वञ्चो॑ यक्ष॒दृशो॒ न शु॒भय॑न्त॒ मर्याः॑। ते ह॑र्म्ये॒ष्ठाः शिश॑वो॒ न शु॒भ्रा व॒त्सासो॒ न प्र॑क्री॒ळिनः॑ पयो॒धाः ॥१६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अत्या॑सः । न । ये । म॒रुतः॑ । सु॒ऽअञ्चः॑ । य॒क्ष॒ऽदृशः॑ । न । शु॒भय॑न्त । मर्याः॑ । ते । ह॒र्म्ये॒ऽस्थाः । शिश॑वः । न । शु॒भ्राः । व॒त्सासः॑ । न । प्र॒ऽकी॒ळिनः॑ । प॒यः॒ऽधाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अत्यासो न ये मरुतः स्वञ्चो यक्षदृशो न शुभयन्त मर्याः। ते हर्म्येष्ठाः शिशवो न शुभ्रा वत्सासो न प्रक्रीळिनः पयोधाः ॥१६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अत्यासः। न। ये। मरुतः। सुऽअञ्चः। यक्षऽदृशः। न। शुभयन्त। मर्याः। ते। हर्म्येऽस्थाः। शिशवः। न। शुभ्राः। वत्सासः। न। प्रऽकीळिनः। पयःऽधाः ॥१६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 56; मन्त्र » 16
    अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते राजजनाः कीदृशा भवेयुरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः ! ये मर्या अत्यासो न स्वञ्चः पयोधा मरुत इव गतिमन्तो बलिष्ठा यक्षदृशो न हर्म्येष्ठाः शिशवो न शुभ्रा वत्सासो न प्रक्रीळिनः सन्तः शुभयन्त ते कृतकार्या भवन्ति ॥१६॥

    पदार्थः

    (अत्यासः) येऽतन्त्यध्वानं व्याप्नुवन्ति ते (न) इव (ये) (मरुतः) वायव इव बलिष्ठा मनुष्याः (स्वञ्चः) ये सुष्ठ्वञ्चन्ति गच्छन्ति ते (यक्षदृशः) ये यक्षान् पूजनीयान् पश्यन्ति ते (न) इव (शुभयन्त) शुभ इवाचरन्ति (मर्याः) मनुष्याः (ते) (हर्म्येष्ठाः) ये हर्म्ये तिष्ठन्ति ते (शिशवः) बालकाः (न) इव (शुभ्राः) शुद्धाः (वत्सासः) सद्योजाता वत्साः (न) इव (प्रक्रीळिनः) प्रकृष्टा क्रीळा विद्यते येषां ते (पयोधाः) ये पयांसि स्वगतानि दधति ते ॥१६॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । ये शूरवीरा अश्ववद्वेगवन्तः कल्याणदृष्टिवत्समीक्षकाः शिशुवत्सरलस्वभावा वत्सवत्क्रीडाकर्तारः वायुवत्सामग्रीधरा राजादयो वीरास्सन्ति त एव विजयप्रतिष्ठे सततं लभन्ते ॥१६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे राजजन कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (ये) जो (मर्याः) मरणधर्मा मनुष्य (अत्यासः) मार्ग को व्याप्त होते हुओं के (न) समान (स्वञ्चः) सुन्दरता से जाने (पयोधाः) वा जलों को धारण करनेवाले (मरुतः) पवनों के समान निरन्तर चालवाले बलिष्ठ (यक्षदृशः) जो पूजन करने योग्यों को देखते हैं उनके (न) समान (हर्म्येष्ठाः) अटारियों पर स्थिर होनेवाले (शिशवः) बालकों के (न) समान (शुभ्राः) शुद्ध सुन्दर (वत्सासः) शीघ्र उत्पन्न हुए बछड़ों के (न) समान (प्रक्रीळिनः) अच्छे प्रकार खेलवाले होते हुए (शुभयन्त) उत्तम के समान आचरण करते हैं (ते) वे कृतकार्य होते हैं ॥१६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो शूरवीर घोड़े के समान वेगवाले, अच्छी दृष्टिवाले के समान देखनेवाले, बालकों के समान सीधे स्वभाववाले, बछड़ों के समान खेल करनेवाले, पवनों के समान पदार्थों के धारण करनेवाले राजा आदि वीर जन हैं, वे ही विजय और प्रतिष्ठा को निरन्तर पाते हैं ॥१६॥

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    विषय

    वीरों विद्वानों के वायुओं के तुल्य कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( ये ) जो (मरुतः ) मनुष्य, वायु के तुल्य बलवान् और प्राणों के समान प्रिय ( अत्यासः न ) निरन्तर गति करने वाले अश्वों के समान ( सु-अञ्चः ) उत्तम आचरण करने और उत्तम आदर योग्य होवे ( मर्याः ) मनुष्य ( यक्षदृशः न ) पूज्य जनों को दर्शन करने वालों के समान ( शुभयन्त ) सदा उत्तम वस्त्रालंकार धारण कर सजें और सदा शुभ, उत्तम आचरण किया करें । और ( ते ) वे ( हर्म्येष्ठाः ) बड़े २ महलों में रहकर भी ( शिशवः न शुभ्राः ) बालकों के समान स्वच्छ निष्पाप आचार वाले और ( वत्सासः न ) गाय के बछड़ों के समान सदा (प्र-क्रीडिनः) खूब खेलने, विनोद करने के स्वभाव वाले और ( पयः- धाः) दूध, अन्नादि के पीने खाने वाले हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ।। मरुतो देवताः ॥ छन्दः -१ आर्ची गायत्री । २, ६, ७,९ भुरिगार्ची गायत्रीं । ३, ४, ५ प्राजापत्या बृहती । ८, १० आर्च्युष्णिक् । ११ निचृदार्च्युष्णिक् १२, १३, १५, १८, १९, २१ निचृत्त्रिष्टुप् । १७, २० त्रिष्टुप् । २२, २३, २५ विराट् त्रिष्टुप् । २४ पंक्तिः । १४, १६ स्वराट् पंक्तिः ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    निष्पाप मन

    पदार्थ

    पदार्थ- (ये) = जो (मरुतः) = मनुष्य, वायु तुल्य बलवान्, (अत्यासः न) = निरन्तर गतिवाले अश्वों के तुल्य (सुअञ्चः) = उत्तम आचरणवाले हों वे (मर्या:) = मनुष्य (यक्षदृशः न) = पूज्य जनों को दर्शन करनेवालों के तुल्य (शुभयन्त) = सदा उत्तम वस्त्रालंकार धारण करें और (ते) = वे (हर्म्येष्ठा:) = बड़े-बड़े महलों में रहकर (शिशवः न शुभ्रा:) = बालकों के समान (स्वच्छ वत्सासः न) = गाय के बछड़ों के समान, (प्र-क्रीडिन:) = विनोदी स्वभाव के और (पयः-धा:) = दूध, अन्नादि के पीने-खानेवाले हों।

    भावार्थ

    भावार्थ- उत्तम आचरणवाले मनुष्य आदर के योग्य होते हैं। ऐसे निष्पाप मनवाले पुरुष बच्चों के समान विनोदी स्वभाववाले होते हैं। ऐसे पूज्य पुरुषों को घरों में बुलाकर उत्तम वस्त्र अलंकार आदि से सम्मान करें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे शूरवीर अश्वाप्रमाणे वेगवान, कल्याणदृष्टी ठेवणारे, समीक्षक, शिशूप्रमाणे सरळ स्वभावाचे, वासराप्रमाणे क्रीडा करणारे, वायूप्रमाणे पदार्थ धारण करणारे असे राजे वगैरे वीरलोक असतात तेच निरंतर विजय व प्रतिष्ठा प्राप्त करतात. ॥ १६ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The Maruts ever on the move by themselves like never resting forces of nature, mortals pure and graceful like those who go to meet the divines, they are ever bright and happy like innocent children of the palace of majesty and playful like sucklings of the cow.

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