ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 66/ मन्त्र 10
पव॑मानस्य ते कवे॒ वाजि॒न्त्सर्गा॑ असृक्षत । अर्व॑न्तो॒ न श्र॑व॒स्यव॑: ॥
स्वर सहित पद पाठपव॑मानस्य । ते॒ । क॒वे॒ । वाजि॑न् । सर्गाः॑ । अ॒सृ॒क्ष॒त॒ । अर्व॑न्तः । न । श्र॒व॒स्यवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पवमानस्य ते कवे वाजिन्त्सर्गा असृक्षत । अर्वन्तो न श्रवस्यव: ॥
स्वर रहित पद पाठपवमानस्य । ते । कवे । वाजिन् । सर्गाः । असृक्षत । अर्वन्तः । न । श्रवस्यवः ॥ ९.६६.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 66; मन्त्र » 10
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(कवे) हे सर्वज्ञ ! (वाजिन्) सर्वशक्तिसम्पन्न जगदीश्वर ! (पवमानस्य) सर्वपवित्रयितः (ते) भवतः (सर्गाः) बहुविधाः सृष्टय एवम् (असृक्षत) उत्पद्यन्ते (न) यथा (अर्वन्तः) विद्युच्छक्तयोऽनेकधा (श्रवस्यवः) प्रवहन्ति ॥१०॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(कवे) हे सर्वज्ञ ! (वाजिन्) हे सर्वशक्तिमान् परमात्मन् ! (पवमानस्य) सबको पवित्र करनेवाले (ते) आपकी (सर्गाः) अनन्त प्रकार की सृष्टियाँ इस प्रकार (असृक्षत) उत्पन्न होती हैं, (न) जैसे कि (अर्वन्तः) विद्युत् शक्तियाँ अनेक प्रकार से (श्रवस्यवः) प्रवाहित होती हैं ॥१०॥
भावार्थ
इस मन्त्र में परमात्मा को निमित्तकारण वर्णन किया है कि परमात्मा इस सृष्टि का निमित्त कारण है। उपादानकारण प्रकृति है और निमित्तकारण परमात्मा है। इसी से यहाँ विद्युत् का दृष्टान्त दिया गया है ॥१०॥
विषय
'रोगनाशक ज्ञानवर्धक' सोमधारायें
पदार्थ
[१] हे (कवे) = क्रान्तप्रज्ञ, (वाजिन्) = शक्तिशालिन् सोम ! (पवमानस्य) = हमारे जीवनों को पवित्र करनेवाले (ते) = तेरी (सर्गाः) = धारायें (असृक्षत) = उत्पन्न की जाती हैं। इस सोम की धारायें ही हमें दीप्त बुद्धिवाला बनाती हैं, और हमारी शक्ति को बढ़ाती हैं। हृदय को भी यह सोम ही पवित्र करता है । [२] ये सोमधारायें (न) = जैसे (अर्वन्तः) = [ अर्व् To kill ] सब रोगों व वासनाओं को नष्ट करनेवाली हैं, उसी प्रकार ये (श्रवस्यवः) = हमारे लिये ज्ञान की कामनावाली होती हैं। हमें नीरोग व ज्ञान सम्पन्न बनाती हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सोमधारायें रोगनाशक व ज्ञानवर्धक होती हैं।
विषय
पक्षान्तर में वेदज्ञ का वर्णन। ईश्वर के सृष्ट लोकों का प्रसार।
भावार्थ
हे (कवे) क्रान्तदर्शिन् ! हे (वाजिन्) ज्ञानवन् ! (पवमानस्य ते) पवित्र करने वाले तेरे (श्रवस्यवः) श्रवण करने योग्य ज्ञान के इच्छुक जन (ते सर्गाः) तेरी सृष्टि के रूप में (असृक्षत) उत्पन्न होते हैं। वे (अर्वन्तः न) अश्वों व सवारों के समान धीरता से आगे बढ़ें। इत्यष्टमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शतं वैखानसा ऋषयः॥ १–१८, २२–३० पवमानः सोमः। १९—२१ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १ पादनिचृद् गायत्री। २, ३, ५—८, १०, ११, १३, १५—१७, १९, २०, २३, २४, २५, २६, ३० गायत्री। ४, १४, २२, २७ विराड् गायत्री। ९, १२,२१,२८, २९ निचृद् गायत्री। १८ पाद-निचृदनुष्टुप् ॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord ever flowing in constancy, omniscient poetic creator, omnipotent absolute victor and ruler, streams of creations flow like waves of energy in search of celebrative fulfilment.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात परमात्म्याला निमित्त कारण म्हटलेले आहे. परमात्मा या सृष्टीचे निमित्त कारण आहे. प्रकृती उपादान कारण आहे. परमात्मा निमित्त कारण आहे. त्यामुळे येथे विद्युतचा दृष्टाना दिलेला आहे.
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