ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 66/ मन्त्र 12
अच्छा॑ समु॒द्रमिन्द॒वोऽस्तं॒ गावो॒ न धे॒नव॑: । अग्म॑न्नृ॒तस्य॒ योनि॒मा ॥
स्वर सहित पद पाठअच्छ॑ । स॒मु॒द्रम् । इन्द॑वः । अस्त॑म् । गावः॑ । न । धे॒नवः॑ । अग्म॑न् । ऋ॒तस्य॑ । योनि॑म् । आ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अच्छा समुद्रमिन्दवोऽस्तं गावो न धेनव: । अग्मन्नृतस्य योनिमा ॥
स्वर रहित पद पाठअच्छ । समुद्रम् । इन्दवः । अस्तम् । गावः । न । धेनवः । अग्मन् । ऋतस्य । योनिम् । आ ॥ ९.६६.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 66; मन्त्र » 12
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(धेनवो न) यथा वेदवाण्यः (अस्तम्) स्थानरूपं (समुद्रम्) येन शब्दा उत्पद्यन्ते एतादृशं (अच्छ) विमलं परमेश्वरं (आग्मन्) सुतरां प्राप्नुवन्ति। तथा (इन्दवः) प्रकाशिन्यः (गावः) सत्कर्मिणामिन्द्रियवृत्तयः (ऋतस्य योनिम्) सत्यस्थानं परमेश्वरं सुखेन प्राप्नुवन्ति ॥१२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(धेनवो न) जैसे वेदवाणियाँ (अस्तम्) स्थानरूप (समुद्रम्) जिससे शब्द उत्पन्न होते हैं, ऐसे (अच्छ) निर्मल परमेश्वर को (आग्मन्) भली-भाँति प्राप्त होती हैं, उसी प्रकार (इन्दवः) प्रकाश करनेवाली (गावः) सत्कर्मियों कि इन्द्रियवृत्तियाँ (ऋतस्य योनिम्) सत्यस्थान परमात्मा को भली-भाँति प्राप्त होती हैं ॥१२॥
भावार्थ
इस मन्त्र से यह सिद्ध किया है कि परमात्मा एकमात्र शब्दगम्य है। अर्थात् सर्वज्ञ परमात्मा की वेदवाणी ही उसको विषय करती हैं। अन्य प्रमाणों का विषय सुगमता से परमात्मा नहीं होता ॥१२॥
विषय
अच्छा समुद्रम्
पदार्थ
[१] (इन्दवः) = हमें शक्तिशाली बनानेवाले सोमकण (समुद्रं अच्छा) = [स+मुद्] उस आनन्दमयकोश की ओर गतिवाले होते हैं, उसी प्रकार (न) = जैसे कि (धेनवः गावः) = दुधार गौवें (अस्तम्) = गृह की ओर। सोमकण क्या हैं? ये तो दुधार गौवों के समान हैं। वे गौवें दूध से प्रीणित करती हैं, सोमकण ज्ञानदुग्ध से। हमारे जीवन को ज्ञानमय बना करके ये हमें प्रभु की ओर ले चलते हैं । [२] अन्ततः, (ऋतस्य योनिम्) = ऋत के, जो भी ठीक है, उसके उत्पत्ति स्थान प्रभु के (आ अग्मन्) = ये सर्वथा होते हैं। हमारे जीवनों को अधिकाधिक पवित्र व ज्ञान-सम्पन्न करते हुए ये हमें प्रभु को प्राप्त कराते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमकण शरीर में सुरक्षित होकर हमें प्रभु की ओर ले चलते हैं, अन्ततः प्रभु को प्राप्त कराते हैं।
विषय
उपासकों के तुल्य शिष्यों का गुरु-सेवन।
भावार्थ
(गावः धेनवः अस्तं न) दुधार गौवें जिस प्रकार अपने घर को स्वयं लौट आती हैं, उसी प्रकार (इन्दवः) उपासना करने वाले, उसकी सेवा करने वाले उपासक शिष्य जन गुरु के प्रति स्वयं आकर (ऋतस्य योनिम्) सत्य ज्ञान के आश्रय, (समुद्रम् अच्छ) ज्ञान रस के सागर एवं ज्ञान वाणी के उपदेष्टा को (आ अग्मन्) प्राप्त हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शतं वैखानसा ऋषयः॥ १–१८, २२–३० पवमानः सोमः। १९—२१ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १ पादनिचृद् गायत्री। २, ३, ५—८, १०, ११, १३, १५—१७, १९, २०, २३, २४, २५, २६, ३० गायत्री। ४, १४, २२, २७ विराड् गायत्री। ९, १२,२१,२८, २९ निचृद् गायत्री। १८ पाद-निचृदनुष्टुप् ॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Just as cows retire into their stall, and words of language retire into the ocean of absolute silence, so do the mental fluctuations of the yogi recede and return into the origin of their flow, into divinity.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात म्हटले आहे की परमात्मा हा शब्दगम्य आहे. अर्थात परमात्म्याची वेदवाणीच त्याचा विषय आहे. परमात्मा अन्य प्रमाणाचा विषय नसतो. ॥१२॥
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