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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 66 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 66/ मन्त्र 2
    ऋषिः - शतं वैखानसाः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    ताभ्यां॒ विश्व॑स्य राजसि॒ ये प॑वमान॒ धाम॑नी । प्र॒ती॒ची सो॑म त॒स्थतु॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ताभ्य॑म् । विश्व॑स्य । रा॒ज॒सि॒ । ये । प॒व॒मा॒न॒ । धाम॑नी॒ इति॑ । प्र॒ती॒ची इति॑ । सो॒म॒ । त॒स्थतुः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ताभ्यां विश्वस्य राजसि ये पवमान धामनी । प्रतीची सोम तस्थतु: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ताभ्यम् । विश्वस्य । राजसि । ये । पवमान । धामनी इति । प्रतीची इति । सोम । तस्थतुः ॥ ९.६६.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 66; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सोम) हे परमेश्वर ! भवान् (ताभ्याम्) कर्मज्ञानाभ्यां (विश्वस्य) समस्तसंसारस्य (राजसि) प्रकाशं करोति (पवमान) सर्वपवित्रयितः परमात्मन् ! (ये धामनी) ज्ञानकर्मणी (प्रतीची) प्राचीने स्तः ते (तस्थतुः) उपजग्मतुः ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सोम) हे परमात्मन् ! आप (ताभ्याम्) ज्ञान और कर्म दोनों द्वारा (विश्वस्य) सम्पूर्ण विश्व का (राजसि) प्रकाश करते हैं। (पवमान) हे सबको पवित्र करनेवाले परमात्मन् ! (ये धामनी) जो ज्ञान कर्म (प्रतीची) प्राचीन हैं, वे (तस्थतुः) हममें विराजमान हों ॥२॥

    भावार्थ

    परमात्मा सब लोक-लोकान्तरों में विराजमान है। ज्ञान क्रिया और बल ये तीनों प्रकार के उसके प्राचीन धाम हैं, जिनसे वह सबको प्रेरणा करता है ॥२॥

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    विषय

    दो तेज

    पदार्थ

    [१] हे (पवमान) - पवित्र करनेवाले (सोम) = सोम [वीर्यशक्ते] (ये) = जो (धामनी) = तेरे तेज (प्रतीची) = हमारे अन्दर गतिवाले होकर (तस्थतुः) = स्थित होते हैं, शरीर में तेजस्विता के रूप से तथा मस्तिष्क में ज्ञानदीति के रूप से, (ताभ्याम्) = उन तेजों से (विश्वस्य राजसि) = सबका तू दीप्त करनेवाला होता है अथवा सबका तू शासक होता है। शरीर में तेजस्विता के द्वारा तू रोगकृमियों का संहार करके शरीर को अपने शासन में रखता है तथा मस्तिष्क की तेजस्विता से तू काम- क्रोध-लोभ आदि वासनाओं को दग्ध करके मन का शासन करनेवाली मनीषा [बुद्धि] वाला होता है । [२] शरीर में सुरक्षित सोम शरीर को तेजस्विता से युक्त करता है, मस्तिष्क को ज्ञानदीप्ति से । ये दोनों ही तेज एक दूसरे का पूरण करते हुए शरीर में दीप्ति को प्राप्त कराते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम शरीर में सुरक्षित होकर तेजस्विता व ज्ञानदीप्ति से पवित्रता का संचार करता हैं ।

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    विषय

    वह सर्वप्रकाशक है। पक्षान्तर में आत्मा का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (पवमान) सर्वव्यापक ! सर्वप्रकाशक ! (ये) जो (धामनी) दोनों विश्व को धारण करने वाले, आकाश और पृथिवी वा उत्तर और दक्षिण अयनों के तुल्य इह और पर (प्रतीची) परस्पर सुसम्बद्ध दोनों लोक (तस्थतुः) खड़े हैं (ताभ्यां) उनसे तू (विश्वस्य राजसि) समस्त जगत् में प्रकाश करता है। सूर्य दक्षिण और उत्तर ध्रुवों में प्रकाश करता है, (२) अध्यात्म में—आत्मा, प्राण, अपान, दोनों स्वरों वा जाग्रत् और स्वप्न दोनों अवस्थाओं को सम्भालता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शतं वैखानसा ऋषयः॥ १–१८, २२–३० पवमानः सोमः। १९—२१ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १ पादनिचृद् गायत्री। २, ३, ५—८, १०, ११, १३, १५—१७, १९, २०, २३, २४, २५, २६, ३० गायत्री। ४, १४, २२, २७ विराड् गायत्री। ९, १२,२१,२८, २९ निचृद् गायत्री। १८ पाद-निचृदनुष्टुप् ॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Vibrant Soma, pure and purifying, by those two media of yours, omniscience of knowledge and omnipotence of action, you shine, illuminate and rule the world both of which too abide as eternal complementarities of nature and divine power.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा सर्व लोकलोकांतरात विराजमान आहे. ज्ञान, क्रिया व बल हे तिन्ही प्रकारचे त्याचे धाम आहेत ज्यातून तो सर्वांना प्रेरणा देतो. ॥२॥

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