ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 66/ मन्त्र 25
पव॑मानस्य॒ जङ्घ्न॑तो॒ हरे॑श्च॒न्द्रा अ॑सृक्षत । जी॒रा अ॑जि॒रशो॑चिषः ॥
स्वर सहित पद पाठपव॑मानस्य । जङ्घ्न॑तः । हरेः॑ । च॒न्द्राः । अ॒सृ॒क्ष॒त॒ । जी॒राः । अ॒जि॒रऽशो॑चिषः ॥
स्वर रहित मन्त्र
पवमानस्य जङ्घ्नतो हरेश्चन्द्रा असृक्षत । जीरा अजिरशोचिषः ॥
स्वर रहित पद पाठपवमानस्य । जङ्घ्नतः । हरेः । चन्द्राः । असृक्षत । जीराः । अजिरऽशोचिषः ॥ ९.६६.२५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 66; मन्त्र » 25
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
तस्मिन्नज्ञाने नष्टे सति (पवमानस्य) पवित्रयितुः (जङ्घ्नतः) अज्ञानननाशकस्य (हरेः) पापहर्तुः (अजिरशोचिषः) सर्वगततेजस्विनः परमदयावत ईश्वरस्य (चन्द्राः) आह्लादकानि (जीराः) ज्योतींषि (असृक्षत) उत्पद्यन्ते ॥२५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
उस समय (पवमानस्य) पवित्र करनेवाले (जङ्घ्नतः) अज्ञानों के नाश करनेवाले तथा (हरेः) पापों के हरण करनेवाले (अजिरशोचिषः) सर्वगत तेजवाले परमात्मा की (चन्द्राः) आह्लादक (जीराः) ज्योतियाँ (असृक्षत) उत्पन्न होती हैं ॥२५॥
भावार्थ
जब योगी जन उस परमात्मा को लक्ष्य बनाकर उसका ध्यान करते हैं, तब अपूर्व ज्योति उत्पन्न होती है। वा यों कहो कि अजर अमर भाव देनेवाला ब्रह्मज्ञान उस समय मनुष्य की बुद्धि को प्रकाशित करता है। इसी का नाम ब्राह्मी प्रज्ञा है। इसी अभिप्राय से गीता में कृष्ण जी ने कहा है कि “एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति” हे अर्जुन ! यह ब्राह्मी स्तिथि है, इसको पाकर फिर पुरुष मोह को प्राप्त नहीं होता ॥२५॥
विषय
'चन्द्र- जीर- अजिरशोचिष्' धारायें
पदार्थ
[१] (पवमानस्य) = हमारे जीवनों को पवित्र करनेवाले (जघ्नतः) = अज्ञानान्धकारों नष्ट करते हुए (हरे:) = सब बुराइयों का हरण करनेवाले सोम की (चन्द्राः) = आह्लाद को पैदा करनेवाली धारायें (असृक्षत) = उत्पन्न की जाती हैं। [२] सोम की ये धारायें (जीरा:) = [ ज् वयोहानौ] सब रोगकृमियों व वासनाओं को जीर्ण करनेवाली हैं तथा (अजिरशोचिषः) = खूब गतिशील दीप्तिवाली हैं । अर्थात् ये ज्ञानदीप्ति को दीप्त करती हैं और हमें खूब क्रियाशील बनाती हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- सोम की धारायें चन्द्र, जीर व अजिरशोचिष् हैं।
विषय
दुष्टों के नाशक तेजस्वी के उत्तम गुणों का स्वतः प्रकाश।
भावार्थ
(पवमानस्य) राष्ट्र को शोधन करने वाले और (जंघ्नतः) दुष्टों का बार २ नाश करते हुए (अजिर-शोचिषः) अविनश्वर तेजस्वी (हरेः) सूर्यवत् दुःखों के हटाने वाले तुझ नरोत्तम के (जीराः) वेग से युक्त सब को जीवन देने वाले (चन्द्राः) सर्वाह्लादकारी गुण (असृक्षत) प्रकट होते हैं। इत्येकादशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शतं वैखानसा ऋषयः॥ १–१८, २२–३० पवमानः सोमः। १९—२१ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १ पादनिचृद् गायत्री। २, ३, ५—८, १०, ११, १३, १५—१७, १९, २०, २३, २४, २५, २६, ३० गायत्री। ४, १४, २२, २७ विराड् गायत्री। ९, १२,२१,२८, २९ निचृद् गायत्री। १८ पाद-निचृदनुष्टुप् ॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Beauteous manifestations and brilliant radiations of eternal light and power of lord creator, destroyer of want and suffering, dispeller of darkness and negation, ever active and constantly flowing, pure and purifying, come into existence and flow according to divine plan and the cosmic model.
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा योगी त्या परमेश्वराला लक्ष्य बनवून त्याचे ध्यान करतात तेव्हा अपूर्व ज्योती उत्पन्न होते किंवा अजर, अमर भावयुक्त ब्रह्मज्ञान त्यावेळी माणसाच्या बुद्धीला प्रकाशित करतो. त्याचेच नाव ब्राह्मी प्रज्ञा आहे. याच अभिप्रायाने गीतेत कृष्णाने म्हटले आहे की ‘‘एषा ब्राह्मी स्थिति: पार्थ नैवां प्राप्य विमुह्यति’’ हे अर्जुन! ही ब्राह्मी स्थिती आहे ही प्राप्त झाल्यावर पुरुष पुन्हा मोहात पडत नाही. ॥२५॥
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