ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 66/ मन्त्र 11
अच्छा॒ कोशं॑ मधु॒श्चुत॒मसृ॑ग्रं॒ वारे॑ अ॒व्यये॑ । अवा॑वशन्त धी॒तय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठअच्छ॑ । कोश॑म् । म॒धु॒ऽश्चुत॑म् । असृ॑ग्रम् । वारे॑ । अ॒व्यये॑ । अवा॑वशन्त । धी॒तयः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अच्छा कोशं मधुश्चुतमसृग्रं वारे अव्यये । अवावशन्त धीतय: ॥
स्वर रहित पद पाठअच्छ । कोशम् । मधुऽश्चुतम् । असृग्रम् । वारे । अव्यये । अवावशन्त । धीतयः ॥ ९.६६.११
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 66; मन्त्र » 11
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सर्वाधिकरणत्वेन परमात्मा स्तूयते।
पदार्थः
येन परमात्मना (अच्छ) निर्मलं (कोशम्) सर्वनिधानं तथा (मधुश्चुतम्) आनन्ददायकं जगदिदं (असृग्रम्) रचितमस्ति तस्मिन् (अव्यये) अविनाशिनि (वारे) वरणीये परमात्मनि (धीतयः) सृष्टयः (अवावशन्त) निवसन्ति ॥११॥
हिन्दी (3)
विषय
यहाँ सर्वाधिकरणत्व से परमात्मा की स्तुति करते हैं।
पदार्थ
जिस परमात्मा ने इस संसार को (अच्छ) निर्मल और (कोशम्) सर्वनिधान तथा (मधुश्चुतम्) आनन्ददायक (असृग्रम्) रचा है, उसी (अव्यये) अविनाशी तथा (वारे) वरणीय परमात्मा में (धीतयः) सृष्टियाँ (अवावशन्त) निवास करती हैं ॥११॥
भावार्थ
परमात्मा ही एकमात्र सर्व लोक-लोकान्तरों का अधिकरण है ॥११॥
विषय
आनन्दमयकोश की ओर
पदार्थ
[१] (वारे) = जिससे सब वासनाओं का निवारण किया गया है, (अव्यये) = [अवि अय्] 'जो विविध विषयों की ओर नहीं जा रहा', ऐसे हृदय के होने पर (मधुश्चुतं कोशम् अच्छा) = माधुर्य को टपकानेवाले आनन्दयमकोश का लक्ष्य करके सोम धारायें असृग्रम् उत्पन्न की जाती हैं। हृदय की पवित्रता के होने पर ही सोम का रक्षण होता है, और रक्षित सोम आनन्द वृद्धि का कारण बनता है । [२] (धीतयः) = सोम का अपने अन्दर पान करनेवाले लोग (अवावशन्त) = अपने शोधन के लिये इस सोम की सदा कामना करते हैं। ये शरीर में सुरक्षित रहता है, तभी जीवन सर्वथा पवित्र बना रहता है, शरीर रोगों से मलिन नहीं होता, मन वासनाओं से अपवित्र नहीं होता और बुद्धि भी दीप्त बनी रहती है।
भावार्थ
भावार्थ - शरीर में सुरक्षित सोम आनन्द वृद्धि का कारण बनता है। इसके रक्षण से जीवन पवित्र होता है।
विषय
राष्ट्र में शासक पद पर कोश से पुष्ट राजा की स्थाप्ति।
भावार्थ
(धीतयः) राष्ट्र को धारण करने वाले जन (अव्यये वारे) अविनाशी, वरण करने योग्य पद पर (मधुश्चुतम्) अन्न के देने वाले, (कोशम्) धनादि से पूर्ण कोश को (अच्छ) प्राप्त कर (सोमं असृग्रम्) शासक पुरुष को नियुक्त करें और उसी को (अवावशन्त) चाहें।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शतं वैखानसा ऋषयः॥ १–१८, २२–३० पवमानः सोमः। १९—२१ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १ पादनिचृद् गायत्री। २, ३, ५—८, १०, ११, १३, १५—१७, १९, २०, २३, २४, २५, २६, ३० गायत्री। ४, १४, २२, २७ विराड् गायत्री। ९, १२,२१,२८, २९ निचृद् गायत्री। १८ पाद-निचृदनुष्टुप् ॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The honey sweet nectar of soma ecstasy created and vibrating in the presence of the supreme imperishable eternal spirit, the yogi’s thoughts and words exalt in celebration.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्माच एकमेव सर्व लोकलोकांतराचा प्रमुख आहे. ॥११॥
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